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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 53

Spread the Glory of Sri SitaRam!

53 CHAPTER

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ५३
अथ त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः 10.53

श्रीशुक उवाच
वैदर्भ्याः स तु सन्देशं निशम्य यदुनन्दनः
प्रगृह्य पाणिना पाणिं प्रहसन्निदमब्रवीत् १

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीका यह सन्देश सुनकर अपने हाथसे ब्राह्मणदेवताका हाथ पकड़ लिया और हँसते हुए यों बोले ।।१।।

श्रीभगवानुवाच
तथाहमपि तच्चित्तो निद्रां च न लभे निशि
वेदाहम्रुक्मिणा द्वेषान्ममोद्वाहो निवारितः २

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-ब्राह्मणदेवता! जैसे विदर्भराजकुमारी मुझे चाहती हैं, वैसे ही मैं भी उन्हें चाहता हूँ। मेरा चित्त उन्हींमें लगा रहता है। कहाँतक कहूँ, मुझे रातके समयनींदतक नहीं आती। मैं जानता हूँ कि रुक्मीने द्वेषवश मेरा विवाह रोक दिया है ।।२।।

तामानयिष्य उन्मथ्य राजन्यापसदान्मृधे
मत्परामनवद्याङ्गी मेधसोऽग्निशिखामिव ३

परन्तु ब्राह्मणदेवता! आप देखियेगा, जैसे लकड़ियोंको मथकर-एक-दूसरेसे रगड़कर मनुष्य उनमेंसे आग निकाल लेता है, वैसे ही युद्ध में उन नामधारी क्षत्रियकुल-कलंकोंको तहस-नहस करके अपनेसे प्रेम करनेवाली परमसुन्दरी राजकुमारीको मैं निकाल लाऊँगा ||३||

श्रीशुक उवाच
उद्वाहर्क्षं च विज्ञाय रुक्मिण्या मधुसूदनः
रथः संयुज्यतामाशु दारुकेत्याह सारथिम् ४

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! मधुसूदन श्रीकृष्णने यह जानकर कि रुक्मिणीके विवाहकी लग्न परसों रात्रिमें ही है, सारथिको आज्ञा दी कि ‘दारुक! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ’ ।।४।।

स चाश्वैः शैब्यसुग्रीव मेघपुष्पबलाहकैः
युक्तं रथमुपानीय तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः ५

दारुक भगवान्के रथमें शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामके चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोड़कर भगवानके सामने खड़ा हो गया ||५||

आरुह्य स्यन्दनं शौरिर्द्विजमारोप्य तूर्णगैः
आनर्तादेकरात्रेण विदर्भानगमद्धयैः ६

शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मणदेवताको पहले रथपर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ोंके द्वारा एक ही रातमें आनर्त-देशसे विदर्भदेशमें जा पहुँचे ।।६।।

राजा स कुण्डिनपतिः पुत्रस्नेहवशानुगः
शिशुपालाय स्वां कन्यां दास्यन्कर्माण्यकारयत् ७

कण्डिननरेश महाराज भीष्मक अपने बडे लडके रुक्मीके स्नेहवश अपनी कन्या शिशुपालको देनेके लिये विवाहोत्सवकी तैयारी करा रहे थे ||७||

पुरं सम्मृष्टसंसिक्त मार्गरथ्याचतुष्पथम्
चित्रध्वजपताकाभिस्तोरणैः समलङ्कृतम् ८

नगरके राजपथ, चौराहे तथा गली-कूचे झाड़-बुहार दिये गये थे, उनपर छिड़काव किया जा चुका था। चित्र-विचित्र, रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी झंडियाँ और पताकाएँ लगा दी गयी थीं। तोरण बाँध दिये गये थे ।।८।।

स्रग्गन्धमाल्याभरणैर्विरजोऽम्बरभूषितैः
जुष्टं स्त्रीपुरुषैः श्रीमद् गृहैरगुरुधूपितैः ९

वहाँके स्त्री-पुरुष पुष्प-माला, हार, इत्र-फुलेल, चन्दन, गहने और निर्मल वस्त्रोंसे सजे हुए थे। वहाँके सुन्दर-सुन्दर घरोंमेंसे अगरके धूपकी सुगन्ध फैल रही थी ।।९।।

पितॄन्देवान्समभ्यर्च्य विप्रांश्च विधिवन्नृप
भोजयित्वा यथान्यायं वाचयामास मङ्गलम् १०

परीक्षित्! राजा भीष्मकने पितर और देवताओंका विधिपूर्वक पूजन करके ब्राह्मणोंको भोजन कराया और नियमानुसार स्वस्तिवाचन भी ।।१०।।

सुस्नातां सुदतीं कन्यां कृतकौतुकमङ्गलाम्
आहतांशुकयुग्मेन भूषितां भूषणोत्तमैः ११

सुशोभित दाँतोंवाली परमसुन्दरी राजकुमारी रुक्मिणीजीको स्नान कराया गया, उनके हाथोंमें मंगलसूत्र कंकण पहनाये गये, कोहबर बनाया गया, दो नये-नये वस्त्र उन्हें पहनाये गये और वे उत्तम-उत्तम आभूषणोंसे विभूषित की गयीं ।।११।।

चक्रुः सामर्ग्यजुर्मन्त्रैर्वध्वा रक्षां द्विजोत्तमाः
पुरोहितोऽथर्वविद्वै जुहाव ग्रहशान्तये १२

श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने साम, ऋक् और यजुर्वेदके मन्त्रोंसे उनकी रक्षा की और अथर्ववेदके विद्वान् पुरोहितने ग्रह-शान्तिके लिये हवन किया ||१२||

हिरण्यरूप्य वासांसि तिलांश्च गुडमिश्रितान्
प्रादाद्धेनूश्च विप्रेभ्यो राजा विधिविदां वरः १३

राजा भीष्मक कुलपरम्परा और शास्त्रीय विधियोंके बड़े जानकार थे। उन्होंने सोना, चाँदी, वस्त्र, गुड़ मिले हुए तिल और गौएँ ब्राह्मणोंको दी ।।१३।।

एवं चेदिपती राजा दमघोषः सुताय वै
कारयामास मन्त्रज्ञैः सर्वमभ्युदयोचितम् १४

इसी प्रकार चेदिनरेश राजा दमघोषने भी अपने पुत्र शिशुपालके लिये मन्त्रज्ञ ब्राह्मणोंसे अपने पुत्रके विवाह-सम्बन्धी मंगलकृत्य कराये ।।१४।।

मदच्युद्भिर्गजानीकैः स्यन्दनैर्हेममालिभिः
पत्त्यश्वसङ्कुलैः सैन्यैः परीतः कुण्डिनं ययौ १५

इसके बाद वे मद चुआते हुए हाथियों, सोनेकी मालाओंसे सजाये हुए रथों, पैदलों तथा घुड़सवारोंकी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर जा पहँचे ।।१५।।

तं वै विदर्भाधिपतिः समभ्येत्याभिपूज्य च
निवेशयामास मुदा कल्पितान्यनिवेशने १६

विदर्भराज भीष्मकने आगे आकर उनका स्वागत-सत्कार और प्रथाके अनुसार अर्चन-पूजन किया। इसके बाद उन लोगोंको पहलेसे ही निश्चित किये हुए जनवासोंमें आनन्दपूर्वक ठहरा दिया ।।१६।।

तत्र शाल्वो जरासन्धो दन्तवक्त्रो विदूरथः
आजग्मुश्चैद्यपक्षीयाः पौण्ड्रकाद्याः सहस्रशः १७

उस बारातमें शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदरथ और पौण्डक आदि शिशुपालके सहस्रों मित्र नरपति आये थे ।।१७।।

कृष्णरामद्विषो यत्ताः कन्यां चैद्याय साधितुम्
यद्यागत्य हरेत्कृष्णो रामाद्यैर्यदुभिर्वृतः १८

योत्स्यामः संहतास्तेन इति निश्चितमानसाः
आजग्मुर्भूभुजः सर्वे समग्रबलवाहनाः १९

वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलरामजीके विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपालको ही मिले, इस विचारसे आये थे। उन्होंने अपने-अपने मनमें पहलेसे ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण बलराम आदि यदुवंशियोंके साथ आकर कन्याको हरनेकी चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओंने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिये थे ।।१८-१९।।

श्रुत्वैतद्भगवान्रामो विपक्षीय नृपोद्यमम्
कृष्णं चैकं गतं हर्तुं कन्यां कलहशङ्कितः २०

विपक्षी राजाओंकी इस तैयारीका पता भगवान् बलरामजीको लग गया और जब उन्होंने यह सुना कि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारीका हरण करनेके लिये चले गये हैं, तब उन्हें वहाँ लड़ाई-झगड़ेकी बड़ी आशंका हुई ।।२०।।

बलेन महता सार्धं भ्रातृस्नेहपरिप्लुतः
त्वरितः कुण्डिनं प्रागाद्गजाश्वरथपत्तिभिः २१

यद्यपि वे श्रीकृष्णका बल-विक्रम जानते थे, फिर भी भ्रातृस्नेहसे उनका हृदय भर आया; वे तुरंत ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंकी बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुरके लिये चल पड़े ।।२१।।

भीष्मकन्या वरारोहा काङ्क्षन्त्यागमनं हरेः
प्रत्यापत्तिमपश्यन्ती द्विजस्याचिन्तयत्तदा २२

इधर परमसुन्दरी रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा श्रीकृष्णकी तो कौन कहे, अभी ब्राह्मणदेवता भी नहीं लौटे! तो वे बड़ी चिन्तामें पड़ गयीं; सोचने लगीं ।।२२।।

अहो त्रियामान्तरित उद्वाहो मेऽल्पराधसः
नागच्छत्यरविन्दाक्षो नाहं वेद्म्यत्र कारणम्
सोऽपि नावर्ततेऽद्यापि मत्सन्देशहरो द्विजः २३

‘अहो! अब मुझ अभागिनीके विवाहमें केवल एक रातकी देरी है। परन्तु मेरे जीवनसर्वस्व कमलनयन भगवान अब भी नहीं पधारे! इसका क्या कारण हो सकता है, कुछ निश्चय नहीं मालूम पड़ता। यही नहीं, मेरे सन्देश ले जानेवाले ब्राह्मणदेवता भी तो अभीतक नहीं लौटे ।।२३।।

अपि मय्यनवद्यात्मा दृष्ट्वा किञ्चिज्जुगुप्सितम्
मत्पाणिग्रहणे नूनं नायाति हि कृतोद्यमः २४

इसमें सन्देह नहीं कि भगवान् श्रीकृष्णका स्वरूप परम शुद्धहै और विशुद्ध पुरुष ही उनसे प्रेम कर सकते हैं। उन्होंने मुझमें कुछ-न-कुछ बुराई देखी होगी, तभी तो मेरे हाथ पकडनेके लिये—मझे स्वीकार करनेके लिये उद्यत होकर वे यहाँ नहीं पधार रहे हैं? ।।२४।।

दुर्भगाया न मे धाता नानुकूलो महेश्वरः
देवी वा विमुखी गौरी रुद्राणी गिरिजा सती २५

ठीक है, मेरे भाग्य ही मन्द हैं! विधाता और भगवान् शंकर भी मेरे अनुकूल नहीं जान पड़ते। यह भी सम्भव है कि रुद्रपत्नी गिरिराजकुमारी सती पार्वतीजी मुझसे अप्रसन्न हों’ ||२५||

एवं चिन्तयती बाला गोविन्दहृतमानसा
न्यमीलयत कालज्ञा नेत्रे चाश्रुकलाकुले २६

परीक्षित! रुक्मिणीजी इसी उधेड-बनमें पड़ी हई थीं। उनका सम्पूर्ण मन और उनके सारे मनोभाव भक्तमनचोर भगवान्ने चुरा लिये थे। उन्होंने उन्हींको सोचते-सोचते ‘अभी समय है’ ऐसा समझकर अपने आँसभरे नेत्र बन्द कर लिये ।।२६।।

एवं वध्वाः प्रतीक्षन्त्या गोविन्दागमनं नृप
वाम ऊरुर्भुजो नेत्रमस्फुरन्प्रियभाषिणः २७

परीक्षित्! इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उसी समय उनकी बायीं जाँघ, भुजा और नेत्र फड़कने लगे, जो प्रियतमके आगमनका प्रिय संवाद सूचित कर रहे थे ।।२७।।

अथ कृष्णविनिर्दिष्टः स एव द्विजसत्तमः
अन्तःपुरचरीं देवीं राजपुत्रीं ददर्श ह २८

इतने में ही भगवान् श्रीकृष्णके भेजे हुए वे ब्राह्मण-देवता आ गये और उन्होंने अन्तःपुरमें राजकुमारी रुक्मिणीको इस प्रकार देखा, मानो कोई ध्यानमग्न देवी हो ।।२८।।

सा तं प्रहृष्टवदनमव्यग्रात्मगतिं सती
आलक्ष्य लक्षणाभिज्ञा समपृच्छच्छुचिस्मिता २९

सती रुक्मिणीजीने देखा ब्राह्मण-देवताका मुख प्रफुल्लित है। उनके मन और चेहरेपर किसी प्रकारकी घबड़ाहट नहीं है। वे उन्हें देखकर लक्षणोंसे ही समझ गयीं कि भगवान् श्रीकृष्ण आ गये! फिर प्रसन्नतासे खिलकर उन्होंने ब्राह्मणदेवतासे पूछा ।।२९।।

तस्या आवेदयत्प्राप्तं शशंस यदुनन्दनम्
उक्तं च सत्यवचनमात्मोपनयनं प्रति ३०

तब ब्राह्मणदेवताने निवेदन किया कि ‘भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधार गये हैं।’ और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह भी बतलाया कि ‘राजकुमारीजी! आपको ले जानेकी उन्होंने सत्य प्रतिज्ञा की है’ ||३०||

तमागतं समाज्ञाय वैदर्भी हृष्टमानसा
न पश्यन्ती ब्राह्मणाय प्रियमन्यन्ननाम सा ३१

भगवान्के शुभागमनका समाचार सुनकर रुक्मिणीजीका हृदय आनन्दातिरेकसे भर गया।
उन्होंने इसके बदलेमें ब्राह्मणके लिये भगवान्के अतिरिक्त और कुछ प्रिय न देखकर उन्होंने केवल नमस्कार कर लिया। अर्थात् जगत्की समग्र लक्ष्मी ब्राह्मणदेवताको सौंप दी ।।३१।।

प्राप्तौ श्रुत्वा स्वदुहितुरुद्वाहप्रेक्षणोत्सुकौ
अभ्ययात्तूर्यघोषेण रामकृष्णौ समर्हणैः ३२

राजा भीष्मकने सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी मेरी कन्याका विवाह देखनेके लिये उत्सुकतावश यहाँ पधारे हैं। तब तुरही, भेरी आदि बाजे बजवाते हुए पूजाकी सामग्री लेकर उन्होंने उनकी अगवानी की ||३२||

मधुपर्कमुपानीय वासांसि विरजांसि सः
उपायनान्यभीष्टानि विधिवत्समपूजयत् ३३

और मधुपर्क, निर्मल वस्त्र तथा उत्तम-उत्तम भेंट देकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की ||३३||

तयोर्निवेशनं श्रीमदुपाकल्प्य महामतिः
ससैन्ययोः सानुगयोरातिथ्यं विदधे यथा ३४

भीष्मकजी बड़े बुद्धिमान् थे। भगवान्के प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। उन्होंने भगवानको सेना और साथियोंके सहित समस्त सामग्रियोंसे युक्त निवासस्थानमें ठहराया और उनका यथावत् आतिथ्य-सत्कार किया ||३४||

एवं राज्ञां समेतानां यथावीर्यं यथावयः
यथाबलं यथावित्तं सर्वैः कामैः समर्हयत् ३५

विदर्भराज भीष्मकजीके यहाँ निमन्त्रणमें जितने राजा आये थे, उन्होंने उनके पराक्रम, अवस्था, बल
और धनके अनुसार सारी इच्छित वस्तुएँ देकर सबका खूब सत्कार किया ||३५||

कृष्णमागतमाकर्ण्य विदर्भपुरवासिनः
आगत्य नेत्राञ्जलिभिः पपुस्तन्मुखपङ्कजम् ३६

विदर्भदेशके नागरिकोंने जब सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं, तब वे लोग भगवान्के निवासस्थानपर आये और अपने नयनोंकी अंजलिमें भर-भरकर उनके वदनारविन्दका मधुर मकरन्द-रस पान करने लगे ।।३६||

अस्यैव भार्या भवितुं रुक्मिण्यर्हति नापरा
असावप्यनवद्यात्मा भैष्म्याः समुचितः पतिः ३७

वे आपसमें इस प्रकार बातचीत करते थे-रुक्मिणी इन्हींकी अर्धांगिनी होनेके योग्य है, और ये परम पवित्रमूर्ति श्यामसुन्दर रुक्मिणीके ही योग्य पति हैं। दूसरी कोई इनकी पत्नी होनेके योग्य नहीं है ।।३७।।

किञ्चित्सुचरितं यन्नस्तेन तुष्टस्त्रिलोककृत्
अनुगृह्णातु गृह्णातु वैदर्भ्याः पाणिमच्युतः ३८

यदि हमने अपने पूर्वजन्म या इस जन्ममें कुछ भी सत्कर्म किया हो तो त्रिलोक-विधाता भगवान हमपर प्रसन्न हों और ऐसी कृपा करें कि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ही विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीका पाणिग्रहण करें’ ।।३८।।

एवं प्रेमकलाबद्धा वदन्ति स्म पुरौकसः
कन्या चान्तःपुरात्प्रागाद्भटैर्गुप्ताम्बिकालयम् ३९

परीक्षित! जिस समय प्रेम-परवश होकर पुरवासी-लोग परस्पर इस प्रकार बातचीत कर रहे थे, उसी समय रुक्मिणीजी अन्तःपुरसे निकलकर देवीजीके मन्दिरके लिये चलीं। बहुत-से सैनिक उनकी रक्षामें नियुक्त थे ।।३९||

पद्भ्यां विनिर्ययौ द्रष्टुं भवान्याः पादपल्लवम्
सा चानुध्यायती सम्यङ्मुकुन्दचरणाम्बुजम् ४०

वे प्रेममूर्ति श्रीकृष्णचन्द्रके चरण-कमलोंका चिन्तन करती हुई भगवती भवानीके पाद-पल्लवोंका दर्शन करनेके लिये पैदल ही चलीं ।।४०||

यतवाङ्मातृभिः सार्धं सखीभिः परिवारिता
गुप्ता राजभटैः शूरैः सन्नद्धैरुद्यतायुधैः
मृडङ्गशङ्खपणवास्तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे ४१

वे स्वयं मौन थीं और माताएँ तथा सखी-सहेलियाँ सब ओरसे उन्हें घेरे हुए थीं। शूरवीर राजसैनिक हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र उठाये, कवच पहने उनकी रक्षा कर रहे थे। उस समय मृदंग, शंख, ढोल, तुरही और भेरी आदि बाजे बज रहे थे ।।४१।।

नानोपहार बलिभिर्वारमुख्याः सहस्रशः
स्रग्गन्धवस्त्राभरणैर्द्विजपत्न्यः स्वलङ्कृताः ४२

बहुत-सी ब्राह्मणपत्नियाँ पुष्पमाला, चन्दन आदि सुगन्ध-द्रव्य और गहने-कपड़ोंसे सजधजकर साथ-साथ चल रही थीं और अनेकों प्रकारके उपहार तथा पूजन आदिकी सामग्री लेकर सहस्रों श्रेष्ठ वाराङ्गनाएँ भी साथ थीं ।।४२||

गायन्त्यश्च स्तुवन्तश्च गायका वाद्यवादकाः
परिवार्य वधूं जग्मुः सूतमागधवन्दिनः ४३

गवैये गाते जाते थे, बाजेवाले बाजे बजाते चलते थे और सूत, मागध तथा वंदीजन दुलहिनके चारों ओर जय-जयकार करते-विरद बखानते जा रहे थे ।।४३||

आसाद्य देवीसदनं धौतपादकराम्बुजा
उपस्पृश्य शुचिः शान्ता प्रविवेशाम्बिकान्तिकम् ४४

देवीजीके मन्दिरमें पहुँचकर रुक्मिणीजीने अपने कमलके सदृश सुकोमल हाथ-पैर धोये, आचमन किया; इसके बाद बाहर-भीतरसे पवित्र एवं शान्तभावसे युक्त होकर अम्बिकादेवीके मन्दिरमें प्रवेश किया ।।४४।।

तां वै प्रवयसो बालां विधिज्ञा विप्रयोषितः
भवानीं वन्दयांचक्रुर्भवपत्नीं भवान्विताम् ४५

बहुत-सी विधि-विधान जाननेवाली बड़ी-बूढ़ी ब्राह्मणियाँ उनके साथ थीं। उन्होंने भगवान् शंकरकी अर्धांगिनी भवानीको और भगवान शंकरजीको भी रुक्मिणीजीसे प्रणाम करवाया ।।४५||

नमस्ये त्वाम्बिकेऽभीक्ष्णं स्वसन्तानयुतां शिवाम्
भूयात्पतिर्मे भगवान्कृष्णस्तदनुमोदताम् ४६

रुक्मिणीजीने भगवतीसे प्रार्थना की—’अम्बिकामाता! आपकी गोदमें बैठे हुए आपके प्रिय पुत्र गणेशजीको तथाआपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो। भगवान् श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों’ ।।४६।।

अद्भिर्गन्धाक्षतैर्धूपैर्वासःस्रङ्माल्य भूषणैः
नानोपहारबलिभिः प्रदीपावलिभिः पृथक् ४७

इसके बाद रुक्मिणीजीने जल, गन्ध, अक्षत, धूप, वस्त्र, पुष्पमाला, हार, आभूषण, अनेकों प्रकारके नैवेद्य, भेंट और आरती आदि सामग्रियोंसे अम्बिकादेवीकी पूजा की ।।४७।।

विप्रस्त्रियः पतिमतीस्तथा तैः समपूजयत्
लवणापूपताम्बूल कण्ठसूत्रफलेक्षुभिः ४८

तदनन्तर उक्त सामग्रियोंसे तथा नमक, पूआ, पान, कण्ठसूत्र, फल और ईखसे सुहागिन ब्राह्मणियोंकी भी पूजा की ||४८।।

तस्यै स्त्रियस्ताः प्रददुः शेषां युयुजुराशिषः
ताभ्यो देव्यै नमश्चक्रे शेषां च जगृहे वधूः ४९

तब ब्राह्मणियोंने उन्हें प्रसाद देकर आशीर्वाद दिये और दुलहिनने ब्राह्मणियों और माता अम्बिकाको नमस्कार करके प्रसाद ग्रहण किया ||४९।।

मुनिव्रतमथ त्यक्त्वा निश्चक्रामाम्बिकागृहात्
प्रगृह्य पाणिना भृत्यां रत्नमुद्रोपशोभिना ५०

पूजा-अर्चाकी विधि समाप्त हो जानेपर उन्होंने मौनव्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठीसे जगमगाते हुए करकमलके द्वारा एक सहेलीका हाथ पकड़कर वे गिरिजामन्दिरसे बाहर निकलीं ।।५०।।

तां देवमायामिव धीरमोहिनीं सुमध्यमां कुण्डलमण्डिताननाम्
श्यामां नितम्बार्पितरत्नमेखलां व्यञ्जत्स्तनीं कुन्तलशङ्कितेक्षणाम् ५१

परीक्षित्! रुक्मिणीजी भगवान्की मायाके समान ही बड़े-बड़े धीर-वीरोंको भी मोहित कर लेनेवाली थीं। उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर और पतला था। मुखमण्डलपर कुण्डलोंकी शोभा जगमगा रही थी। वे किशोर और तरुण-अवस्थाकी सन्धिमें स्थित थीं। नितम्बपर जड़ाऊ करधनी शोभायमान हो रही थी, वक्षःस्थल कुछ उभरे हुए थे और उनकी दृष्टि लटकती हुई अलकोंके कारण कुछ चंचल हो रही थी ।।५१।।

शुचिस्मितां बिम्बफलाधरद्युति शोणायमानद्विजकुन्दकुड्मलाम्
पदा चलन्तीं कलहंसगामिनीं सिञ्जत्कलानूपुरधामशोभिना ५२

उनके होठोंपर मनोहर मुसकान थी। उनके दाँतोंकी पाँत थी तो कुन्दकलीके समान परम उज्ज्वल, परन्तु पके हुए कुंदरूके समान लाल-लाल होठोंकी चमकसे उसपर भी लालिमा आ गयी थी। उनके पाँवोंके पायजेब चमक रहे थे और उनमें लगे हुए छोटे-छोटे धुंघरू रुनझुनरुनझुन कर रहे थे। वे अपने सुकुमार चरण-कमलोंसे पैदल ही राजहंसकी गतिसे चल रही थीं। उनकी वह अपूर्व छबि देखकर वहाँ आये हए बड़े-बड़े यशस्वी वीर सब मोहित हो गये। कामदेवने ही भगवान्का कार्य सिद्ध करनेके लिये अपने बाणोंसे उनका हृदय जर्जर कर दिया ||५२||

विलोक्य वीरा मुमुहुः समागता यशस्विनस्तत्कृतहृच्छयार्दिताः
यां वीक्ष्य ते नृपतयस्तदुदारहास व्रीडावलोकहृतचेतस उज्झितास्त्राः ५३

रुक्मिणीजी इस प्रकार इस उत्सवयात्राके बहाने मन्द-मन्द गतिसे चलकर । भगवान् श्रीकृष्णपर अपना राशि-राशि सौन्दर्य निछावर कर रही थीं। उन्हें देखकर और उनकी खुली मुसकान तथा लजीली चितवनपर अपना चित्त लुटाकर वे बड़े-बड़े नरपति एवं वीर इतने मोहित और बेहोश हो गये कि उनके हाथोंसे अस्त्र-शस्त्र छुटकर गिर पड़े और वे स्वयं भी रथ, हाथी तथा घोड़ोंसे धरतीपर आ गिरे ।।५३।।

पेतुः क्षितौ गजरथाश्वगता विमूढा यात्राच्छलेन हरयेऽर्पयतीं स्वशोभाम्
सैवं शनैश्चलयती चलपद्मकोशौ प्राप्तिं तदा भगवतः प्रसमीक्षमाणा ५४

इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा करती हुई अपने कमलकी कलीके समान सुकुमार चरणोंको बहुत ही धीरे-धीरे आगे बढ़ा रही थीं। उन्होंने अपने बायें हाथकी अंगुलियोंसे मुखकी ओर लटकती हुई अलकें हटायीं और वहाँ आये हुए नरपतियोंकी ओर लजीली चितवनसे देखा। असी समय उन्हें श्यामसुन्दर भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन हुए ||५४||

उत्सार्य वामकरजैरलकानपङ्गैः प्राप्तान्ह्रियैक्षत नृपान्ददृशेऽच्युतं च
तां राजकन्यां रथमारुरक्षतीं जहार कृष्णो द्विषतां समीक्षताम् ५५

राजकुमारी रुक्मिणीजी रथपर चढ़ना ही चाहती थीं कि भगवान् श्रीकृष्णने समस्त शत्रुओंके देखते-देखते उनकी भीड़मेंसे रुक्मिणीजीको उठा लिया और उन सैकड़ों राजाओंके सिरपर पाँव रखकर उन्हें अपने उस रथपर बैठा लिया, जिसकी ध्वजापर गरुड़का चिह्न लगा हुआ था ।।५५।।

रथं समारोप्य सुपर्णलक्षणं राजन्यचक्रं परिभूय माधवः
ततो ययौ रामपुरोगमः शनैः शृगालमध्यादिव भागहृद्धरिः ५६

इसके बाद जैसे सिंह सियारों के बीचमेंसे अपना भाग ले जाय, वैसे ही रुक्मिणीजीको लेकर भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी आदि यदुवंशियों के साथ वहाँसे चल पड़े ||५६||

तं मानिनः स्वाभिभवं यशःक्षयं
परे जरासन्धमुखा न सेहिरे
अहो धिगस्मान्यश आत्तधन्वनां
गोपैर्हृतं केशरिणां मृगैरिव ५७

उस समय जरासन्धके वशवी अभिमानी राजाओंको अपना यह बड़ा भारी तिरस्कार और यशकीर्तिका नाश सहन न हुआ। वे सब-के-सब चिढ़कर कहने लगे-‘अहो, हमें धिक्कार है। आज हमलोग धनुष धारण करके खड़े ही रहे और ये ग्वाले, जैसे सिंहके भागको हरिन ले जाय उसी प्रकार हमारा सारा यश छीन ले गये’ ||५७।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिणीहरणं नाम त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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