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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 54

Spread the Glory of Sri SitaRam!

54 CHAPTER

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ५४
अथ चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः 10.54

श्रीशुक उवाच
इति सर्वे सुसंरब्धा वाहानारुह्य दंशिताः
स्वैः स्वैर्बलैः परिक्रान्ता अन्वीयुर्धृतकार्मुकाः १

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! इस प्रकार कह-सुनकर सब-के-सब राजा क्रोधसे आगबबूला हो उठे और कवच पहनकर अपने-अपने वाहनोंपर सवार हो गये। अपनी-अपनी सेनाके साथ सब धनुष ले-लेकर भगवान् श्रीकृष्णके पीछे दौड़े ||१||

तानापतत आलोक्य यादवानीकयूथपाः
तस्थुस्तत्सम्मुखा राजन्विस्फूर्ज्य स्वधनूंषि ते २

राजन्! जबयदुवंशियोंके सेनापतियोंने देखा कि शत्रुदल हमपर चढ़ा आ रहा है, तब उन्होंने भी अपनेअपने धनुषका टंकार किया और घूमकर उनके सामने डट गये ।।२।।

अश्वपृष्ठे गजस्कन्धे रथोपस्थेऽस्त्र कोविदाः
मुमुचुः शरवर्षाणि मेघा अद्रिष्वपो यथा ३

जरासन्धकी सेनाके लोग कोई घोड़ेपर, कोई हाथीपर, तो कोई रथपर चढ़े हुए थे। वे सभी धनुर्वेदके बड़े मर्मज्ञ थे। वे यदुवंशियोंपर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगे, मानो दल-के-दल बादल पहाड़ोंपर मूसलधार पानी बरसा रहे हों ||३||

पत्युर्बलं शरासारैश्छन्नं वीक्ष्य सुमध्यमा
सव्रीडमैक्षत्तद्वक्त्रं भयविह्वललोचना ४

परमसुन्दरी रुक्मिणीजीने देखा कि उनके पति श्रीकृष्णकी सेना बाण-वर्षासे ढक गयी है। तब उन्होंने लज्जाके साथ भयभीत नेत्रोंसे भगवान् श्रीकृष्णके मुखकी ओर देखा ||४||

प्रहस्य भगवानाह मा स्म भैर्वामलोचने
विनङ्क्ष्यत्यधुनैवैतत्तावकैः शात्रवं बलम् ५

भगवान्ने हँसकर कहा—’सुन्दरी! डरो मत। तुम्हारी सेना अभी तुम्हारे शत्रुओंकी सेनाको नष्ट किये डालती है’ ||५||

तेषां तद्विक्रमं वीरा गदसङ्कर्षणादयः
अमृष्यमाणा नाराचैर्जघ्नुर्हयगजान्रथान् ६

इधर गद और संकर्षण आदि यदुवंशी वीर अपने शत्रुओंका पराक्रम और अधिक न सह सके। वे अपने बाणोंसे शत्रुओंके हाथी, घोड़े तथा रथोंको छिन्न-भिन्न करने लगे ||६||

पेतुः शिरांसि रथिनामश्विनां गजिनां भुवि
सकुण्डलकिरीटानि सोष्णीषाणि च कोटिशः ७

हस्ताः सासिगदेष्वासाः करभा ऊरवोऽङ्घ्रयः
अश्वाश्वतरनागोष्ट्र खरमर्त्यशिरांसि च ८

उनके बाणोंसे रथ, घोड़े और हाथियोंपर बैठे विपक्षी वीरोंके कुण्डल, किरीट और पगड़ियोंसे सुशोभित करोड़ों सिर, खड्ग, गदा और धनुषयुक्त हाथ, पहुँचे, जाँघे और पैर कट-कटकर पृथ्वीपर गिरने लगे। इसी प्रकार घोडे, खच्चर, हाथी, ऊँट, गधे और मनुष्योंके सिर भी कट-कटकर रण-भूमिमें लोटने लगे ।।७-८।।

हन्यमानबलानीका वृष्णिभिर्जयकाङ्क्षिभिः
राजानो विमुखा जग्मुर्जरासन्धपुरःसराः ९

अन्तमें विजयकी सच्ची आकांक्षावाले यदुवंशियोंने शत्रुओंकी सेना तहस-नहस कर डाली। जरासन्ध आदि सभी राजा युद्धसे पीठ दिखाकर भाग खडे हुए ।।९।।

शिशुपालं समभ्येत्य हृतदारमिवातुरम्
नष्टत्विषं गतोत्साहं शुष्यद्वदनमब्रुवन् १०

उधर शिशुपाल अपनी भावी पत्नीके छिन जानेके कारण मरणासन्न-सा हो रहा था। न तो उसके हृदयमें उत्साह रह गया था और न तो शरीरपर कान्ति। उसका मुँह सूख रहा था। उसके पास जाकर जरासन्ध कहने लगा- ||१०||

भो भोः पुरुषशार्दूल दौर्मनस्यमिदं त्यज
न प्रियाप्रिययो राजन्निष्ठा देहिषु दृश्यते ११

‘शिशुपालजी! आप तो एक श्रेष्ठ पुरुष हैं, यह उदासी छोड़ दीजिये। क्योंकि राजन्! कोई भी बात सर्वदा अपने मनके अनुकूल ही हो या प्रतिकूल, इस सम्बन्धमें कुछ स्थिरता किसी भी प्राणीके जीवन में नहीं देखी जाती ।।११।।

यथा दारुमयी योषित्नृत्यते कुहकेच्छया
एवमीश्वरतन्त्रोऽयमीहते सुखदुःखयोः १२

जैसे कठपुतली बाजीगरकी इच्छाके अनुसार नाचती है, वैसे ही यह जीव भी भगवदिच्छाके अधीन रहकर सख और दःखके सम्बन्धमें यथाशक्ति चेष्टा करता रहता है ||१२||

शौरेः सप्तदशाहं वै संयुगानि पराजितः
त्रयोविंशतिभिः सैन्यैर्जिग्ये एकमहं परम् १३

देखिये, श्रीकृष्णने मुझे तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेनाओंके साथ सत्रह बार हरा दिया, मैंने केवल एक बार-अठारहवीं बार उनपर विजय प्राप्त की ||१३||

तथाप्यहं न शोचामि न प्रहृष्यामि कर्हिचित्
कालेन दैवयुक्तेन जानन्विद्रावितं जगत् १४

फिर भी इस बातको लेकर मैं न तो कभी शोक करता हूँ और न तो कभी हर्ष; क्योंकि मैं जानता हूँ कि प्रारब्धके अनुसार काल भगवान् ही इस चराचर जगत्को झकझोरते रहते हैं ||१४||

अधुनापि वयं सर्वे वीरयूथपयूथपाः
पराजिताः फल्गुतन्त्रैर्यदुभिः कृष्णपालितैः १५

इसमें सन्देह नहीं कि हमलोग बड़े-बड़े वीर सेनापतियोंके भी नायक हैं। फिर भी, इस समय श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित यदुवंशियोंकी थोड़ी-सी सेनाने हमें हरा दिया है ।।१५।।

रिपवो जिग्युरधुना काल आत्मानुसारिणि
तदा वयं विजेष्यामो यदा कालः प्रदक्षिणः १६

इस बार हमारे शत्रुओंकी ही जीत हुई, क्योंकि काल उन्हींके अनुकूल था। जब काल हमारे दाहिने होगा, तब हम भी उन्हें जीत लेंगे’ ||१६||

श्रीशुक उवाच
एवं प्रबोधितो मित्रैश्चैद्योऽगात्सानुगः पुरम्
हतशेषाः पुनस्तेऽपि ययुः स्वं स्वं पुरं नृपाः १७

परीक्षित्! जब मित्रोंने इस प्रकार समझाया, तब चेदिराज शिशुपाल अपने अनुयायियोंके साथ अपनी राजधानीको लौट गया और उसके मित्र राजा भी, जो मरनेसे बचे थे, अपने-अपने नगरोंको चले गये ।।१७।।

रुक्मी तु राक्षसोद्वाहं कृष्णद्विडसहन्स्वसुः
पृष्ठतोऽन्वगमत्कृष्णमक्षौहिण्या वृतो बली १८

रुक्मिणीजीका बड़ा भाई रुक्मी भगवान् श्रीकृष्णसे बहुत द्वेष रखता था। उसको यह बात बिलकल सहन न हई कि मेरी बहिनको श्रीकष्ण हर ले जाय और राक्षसरीतिसे बलपूर्वक उसके साथ विवाह करें। रुक्मी बली तो था ही, उसने एक अक्षौहिणी सेना साथ ले ली और श्रीकृष्णका पीछा किया ।।१८।।

रुक्म्यमर्षी सुसंरब्धः शृण्वतां सर्वभूभुजाम्
प्रतिजज्ञे महाबाहुर्दंशितः सशरासनः १९

महाबाहु रुक्मी क्रोधके मारे जल रहा था। उसने कवच पहनकर और धनुष धारण करके समस्त नरपतियों के सामने यह प्रतिज्ञा की – ||१९||

अहत्वा समरे कृष्णमप्रत्यूह्य च रुक्मिणीम्
कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामि सत्यमेतद्ब्रवीमि वः २०

‘मैं आपलोगोंके बीचमें यह शपथ करता हूँ कि यदि मैं युद्धमें श्रीकृष्णको न मार सका और अपनी बहिन रुक्मिणीको न लौटा सका तो अपनी राजधानी कुण्डिनपुरमें प्रवेश नहीं करूँगा’ ||२०||

इत्युक्त्वा रथमारुह्य सारथिं प्राह सत्वरः
चोदयाश्वान्यतः कृष्णः तस्य मे संयुगं भवेत् २१

परीक्षित्! यह कहकर वह रथपर सवार हो गया और सारथिसे बोला —’जहाँ कृष्ण हो वहाँ शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ ले चलो। आज मेरा उसीके साथ युद्ध होगा ।।२१।।

अद्याहं निशितैर्बाणैर्गोपालस्य सुदुर्मतेः
नेष्ये वीर्यमदं येन स्वसा मे प्रसभं हृता २२

आज मैं अपने तीखे बाणोंसे उस खोटी बुद्धिवाले ग्वालेके बल-वीर्यका घमंड चूर-चूर कर दूंगा। देखो तो उसका साहस, वह हमारी बहिनको बलपूर्वक हर ले गयाहै’ ||२२||

विकत्थमानः कुमतिरीश्वरस्याप्रमाणवित्
रथेनैकेन गोविन्दं तिष्ठ तिष्ठेत्यथाह्वयत् २३

परीक्षित्! रुक्मीकी बुद्धि बिगड़ गयी थी। वह भगवान्के तेज-प्रभावको बिलकुल नहीं जानता था। इसीसे इस प्रकार बहक-बहककर बातें करता हुआ वह एक ही रथसे श्रीकृष्णके पास पहँचकर ललकारने लगा—’खड़ा रह! खड़ा रह!’ ||२३||

धनुर्विकृष्य सुदृढं जघ्ने कृष्णं त्रिभिः शरैः
आह चात्र क्षणं तिष्ठ यदूनां कुलपांसन २४

यत्र यासि स्वसारं मे मुषित्वा ध्वाङ्क्षवद्धविः
हरिष्येऽद्य मदं मन्द मायिनः कूटयोधिनः २५

उसने अपने धनुषको बलपूर्वक खींचकर भगवान् श्रीकृष्णको तीन बाण मारे और कहा—’एक क्षण मेरे सामने ठहर! यदवंशियोंके कलकलंक! जैसे कौआ होमकी सामग्री चुराकर उड़ जाय, वैसे ही तू मेरी बहिनको चुराकर कहाँ भागा जा रहा है? अरे मन्द! तू बड़ा मायावी और कपट-युद्ध में कुशल है। आज मैं तेरा सारा गर्व खर्व किये डालता हूँ ||२४-२५||

यावन्न मे हतो बाणैः शयीथा मुञ्च दारिकाम्
स्मयन्कृष्णो धनुश्छित्त्वा षड्भिर्विव्याध रुक्मिणम् २६

देख! जबतक मेरे बाण तुझे धरतीपर सुला नहीं देते, उसके पहले ही इस बच्चीको छोड़कर भाग जा।’ रुक्मीकी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने उसका धनुष काट डाला और उसपर छ: बाण छोड़े ||२६||

अष्टभिश्चतुरो वाहान्द्वाभ्यां सूतं ध्वजं त्रिभिः
स चान्यद्धनुराधाय कृष्णं विव्याध पञ्चभिः २७

साथ ही भगवान् श्रीकृष्णने आठ बाण उसके चार घोड़ोंपर और दो सारथिपर छोड़े और तीन बाणोंसे उसके रथकी ध्वजाको काट डाला। तब रुक्मीने दूसरा धनुष उठाया और भगवान् श्रीकृष्णको पाँच बाण मारे ।।२७।।

तैस्तादितः शरौघैस्तु चिच्छेद धनुरच्युतः
पुनरन्यदुपादत्त तदप्यच्छिनदव्ययः २८

उन बाणोंके लगनेपर उन्होंने उसका वह धनुष भी काट डाला। रुक्मीने इसके बाद एक और धनुष लिया, परन्तु हाथमें लेते-ही-लेते अविनाशी अच्युतने उसे भी काट डाला ।।२८।।

परिघं पट्टिशं शूलं चर्मासी शक्तितोमरौ
यद्यदायुधमादत्त तत्सर्वं सोऽच्छिनद्धरिः २९

इस प्रकार रुक्मीने परिघ, पट्टिश, शूल, ढाल, तलवार, शक्ति और तोमर—जितने अस्त्र-शस्त्र उठाये, उन सभीको भगवान्ने प्रहार करनेके पहले ही काट डाला ।।२९।।

ततो रथादवप्लुत्य खड्गपाणिर्जिघांसया
कृष्णमभ्यद्रवत्क्रुद्धः पतङ्ग इव पावकम् ३०

अब रुक्मी क्रोधवश हाथमें तलवार लेकर भगवान् श्रीकृष्णको मार डालनेकी इच्छासे रथसे कूद पड़ा और इस प्रकार उनकी ओर झपटा, जैसे पतिंगा आगकी ओर लपकता है ||३०||

तस्य चापततः खड्गं तिलशश्चर्म चेषुभिः
छित्त्वासिमाददे तिग्मं रुक्मिणं हन्तुमुद्यतः ३१

जब भगवान्ने देखा कि रुक्मी मुझपर चोट करना चाहता है, तब उन्होंने अपने बाणोंसे उसकी ढाल-तलवारको तिल-तिल करके काट दिया और उसको मार डालनेके लिये हाथमें तीखी तलवार निकाल ली ||३१||

दृष्ट्वा भ्रातृवधोद्योगं रुक्मिणी भयविह्वला
पतित्वा पादयोर्भर्तुरुवाच करुणं सती ३२

जब रुक्मिणीजीने देखा कि ये तो हमारे भाईको अब मार ही डालना चाहते हैं, तब वे भयसे विह्वल हो गयीं और अपने प्रियतम पति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंपर गिरकर करुण-स्वरमें बोलीं- ||३२||

श्रीरुक्मिण्युवाच
योगेश्वराप्रमेयात्मन्देवदेव जगत्पते
हन्तुं नार्हसि कल्याण भ्रातरं मे महाभुज ३३

‘देवताओंके भी आराध्यदेव! जगत्पते! आप योगेश्वर हैं। आपके स्वरूप और इच्छाओंको कोई जान नहीं सकता। आप परम बलवान् हैं, परन्तु कल्याणस्वरूप भी तो हैं। प्रभो! मेरे भैयाको मारना आपके योग्य काम नहीं है’ ||३३||

श्रीशुक उवाच
तया परित्रासविकम्पिताङ्गया शुचावशुष्यन्मुखरुद्धकण्ठया
कातर्यविस्रंसितहेममालया गृहीतपादः करुणो न्यवर्तत ३४

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-रुक्मिणीजीका एक-एक अंग भयके मारे थर-थर काँप रहा था। शोककी प्रबलतासे मुँह सूख गया था, गला रुंध गया था। आतुरतावश सोनेका हार गलेसे गिर पड़ा था और इसी अवस्थामें वे भगवान्के चरणकमल पकड़े हुए थीं। परमदयालु भगवान् उन्हें भयभीत देखकर करुणासे द्रवित हो गये। उन्होंने रुक्मीको मार डालनेका विचार छोड़ दिया ||३४।।

चैलेन बद्ध्वा तमसाधुकारिणं सश्मश्रुकेशं प्रवपन्व्यरूपयत्
तावन्ममर्दुः परसैन्यमद्भुतं यदुप्रवीरा नलिनीं यथा गजाः ३५

फिर भी रुक्मी उनके अनिष्टकी चेष्टासे विमुख न हुआ। तब भगवान् श्रीकृष्णने उसको उसीके दुपट्टेसे बाँध दिया और उसकी दाढ़ी-मूंछ तथा केश कई जगहसे मुंडकर उसे कुरूप बना दिया। तबतक यदुवंशी वीरोंने शत्रुकी अदभुत सेनाको तहस-नहस कर डाला-ठीक वैसे ही, जैसे हाथी कमलवनको रौंद डालता है ||३५||

कृष्णान्तिकमुपव्रज्य ददृशुस्तत्र रुक्मिणम्
तथाभूतं हतप्रायं दृष्ट्वा सङ्कर्षणो विभुः
विमुच्य बद्धं करुणो भगवान्कृष्णमब्रवीत् ३६

फिर वे लोग उधरसे लौटकर श्रीकृष्णके पास आये तो देखा कि रुक्मी दुपट्टेसे बँधा हुआ अधमरी अवस्थामें पड़ा हुआ है। उसे देखकर सर्वशक्तिमान् भगवान् बलरामजीको बड़ी दया आयी और उन्होंने उसके बन्धन खोलकर उसे छोड़ दिया तथा श्रीकृष्णसे कहा- ||३६||

असाध्विदं त्वया कृष्ण कृतमस्मज्जुगुप्सितम्
वपनं श्मश्रुकेशानां वैरूप्यं सुहृदो वधः ३७

‘कृष्ण! तुमने यह अच्छा नहीं किया। यह निन्दित कार्य हमलोगोंके योग्य नहीं है। अपने सम्बन्धीकी दाढ़ी-मूंछ मूंड़कर उसे कुरूप कर देना, यह तो एक प्रकारका वध ही है’ ||३७।।

मैवास्मान्साध्व्यसूयेथा भ्रातुर्वैरूप्यचिन्तया
सुखदुःखदो न चान्योऽस्ति यतः स्वकृतभुक्पुमान् ३८

इसके बाद बलरामजीने रुक्मिणीको सम्बोधन करके कहा—’साध्वी! तुम्हारे भाईका रूप विकृत कर दिया गया है, यह सोचकर हमलोगोंसे बुरा न मानना; क्योंकि जीवको सुख-दुःख देनेवाला कोई दूसरा नहीं है। उसे तो अपने ही कर्मका फल भोगना पड़ता है’ ||३८||

बन्धुर्वधार्हदोषोऽपि न बन्धोर्वधमर्हति
त्याज्यः स्वेनैव दोषेण हतः किं हन्यते पुनः ३९

अब श्रीकृष्णसे बोले—’कृष्ण! यदि अपना सगा-सम्बन्धी वध करनेयोग्य अपराध करे तो भी अपने ही सम्बन्धियोंके द्वारा उसका मारा जाना उचित नहीं है। उसे छोड़ देना चाहिये। वह तो अपने अपराधसे ही मर चुका है, मरे हुएको फिर क्या मारना?’ ||३९।।

क्षत्रियाणामयं धर्मः प्रजापतिविनिर्मितः
भ्रातापि भ्रातरं हन्याद्येन घोरतमस्ततः ४०

फिर रुक्मिणीजीसे बोले —’साध्वी! ब्रह्माजीने क्षत्रियोंका धर्म ही ऐसा बना दिया है कि सगा भाई भी अपने भाईको मार डालता है। इसलिये यह क्षात्रधर्म अत्यन्त घोर है’ ||४०।।

राज्यस्य भूमेर्वित्तस्य स्त्रियो मानस्य तेजसः
मानिनोऽन्यस्य वा हेतोः श्रीमदान्धाः क्षिपन्ति हि ४१

इसके बाद श्रीकृष्णसे बोले -‘भाई कृष्ण! यह ठीक है कि जो लोग धनके नशेमें अंधे हो रहे हैं और अभिमानी हैं, वे राज्य, पृथ्वी, पैसा, स्त्री, मान, तेज अथवा किसी और कारणसे अपने बन्धुओंका भी तिरस्कार कर दिया करते हैं’ ||४१।।

तवेयं विषमा बुद्धिः सर्वभूतेषु दुर्हृदाम्
यन्मन्यसे सदाभद्रं सुहृदां भद्रमज्ञवत् ४२

अब वे रुक्मिणीजीसे बोले-‘साध्वी! तुम्हारे भाई-बन्धु समस्त प्राणियोंके प्रति दुर्भाव रखते हैं। हमने उनके मंगलके लिये ही उनके प्रति दण्डविधान किया है। उसे तुम अज्ञानियोंकी भाँति अमंगल मान रही हो, यह तुम्हारी बुद्धिकी विषमता है ।।४२।।

आत्ममोहो नृणामेव कल्पते देवमायया
सुहृद्दुर्हृदुदासीन इति देहात्ममानिनाम् ४३

देवि! जो लोग भगवान्की मायासे मोहित होकर देहको ही आत्मा मान बैठते हैं, उन्हींको ऐसा आत्ममोह होता है कि यह मित्र है, यह शत्रु है और यह उदासीन है ।।४३।।

एक एव परो ह्यात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्
नानेव गृह्यते मूढैर्यथा ज्योतिर्यथा नभः ४४

समस्त देहधारियोंकी आत्मा एक ही है और कार्य-कारणसे, मायासे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। जल और घड़ा आदि उपाधियोंके भेदसे जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि प्रकाशयुक्त पदार्थ और आकाश भिन्न-भिन्न मालूम पड़ते हैं; परन्तु हैं एक ही, वैसे ही मूर्ख लोग शरीरके भेदसे आत्माका भेद मानते हैं ।।४४।।

देह आद्यन्तवानेष द्रव्यप्राणगुणात्मकः
आत्मन्यविद्यया कॢप्तः संसारयति देहिनम् ४५

यह शरीर आदि और अन्तवाला है। पञ्चभूत, पञ्चप्राण, तन्मात्रा और त्रिगुण ही इसका स्वरूप है। आत्मामें उसके अज्ञानसे ही इसकी कल्पना हुई है और वह कल्पित शरीर ही, जो उसे ‘मैं समझता है’, उसको जन्म-मृत्युके चक्करमें ले जाता है ।।४५।।

नात्मनोऽन्येन संयोगो वियोगश्च सतः सति
तद्धेतुत्वात्तत्प्रसिद्धेर्दृग्रूपाभ्यां यथा रवेः ४६

साध्वी! नेत्र और रूप दोनों ही सूर्यके द्वारा प्रकाशित होते हैं। सूर्य ही उनकाकारण है। इसलिये सूर्यके साथ नेत्र और रूपका न तो कभी वियोग होता है और न संयोग। इसी प्रकार समस्त संसारकी सत्ता आत्मसत्ताके कारण जान पड़ती है, समस्त संसारका प्रकाशक आत्मा ही है। फिर आत्माके साथ दूसरे असत् पदार्थों का संयोग या वियोग हो ही कैसे सकता है? ||४६||

जन्मादयस्तु देहस्य विक्रिया नात्मनः क्वचित्
कलानामिव नैवेन्दोर्मृतिर्ह्यस्य कुहूरिव ४७

जन्म लेना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और मरना ये सारे विकार शरीरके ही होते हैं, आत्माके नहीं। जैसे कृष्णपक्षमें कलाओंका ही क्षय होता है, चन्द्रमाका नहीं, परन्तु अमावस्याके दिन व्यवहारमें लोग चन्द्रमाका ही क्षय हुआ कहते-सुनते हैं; वैसे ही जन्म-मृत्यु आदि सारे विकार शरीरके ही होते हैं, परन्तु लोग उसे भ्रमवश अपना-अपने आत्माका मान लेते हैं ।।४७।।

यथा शयान आत्मानं विषयान्फलमेव च
अनुभुङ्क्तेऽप्यसत्यर्थे तथाप्नोत्यबुधो भवम् ४८

जैसे सोया हुआ पुरुष किसी पदार्थके न होनेपर भी स्वप्नमें भोक्ता, भोग्य और भोगरूप फलोंका अनुभव करता है, उसी प्रकार अज्ञानी लोग झूठमूठ संसार-चक्रका अनुभव करते हैं ||४८।।

तस्मादज्ञानजं शोकमात्मशोषविमोहनम्
तत्त्वज्ञानेन निर्हृत्य स्वस्था भव शुचिस्मिते ४९

इसलिये साध्वी! अज्ञानके कारण होनेवाले इस शोकको त्याग दो। यह शोक अन्तःकरणको मुरझा देता है, मोहित कर देता है। इसलिये इसे छोड़कर तुम अपने स्वरूपमें स्थित हो जाओ’ ||४९।।

श्रीशुक उवाच
एवं भगवता तन्वी रामेण प्रतिबोधिता
वैमनस्यं परित्यज्य मनो बुद्ध्या समादधे ५०

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब बलरामजीने इस प्रकार समझाया, तबपरमसुन्दरी रुक्मिणीजीने अपने मनका मैल मिटाकर विवेक-बुद्धिसे उसका समाधान किया ।।५०||

प्राणावशेष उत्सृष्टो द्विड्भिर्हतबलप्रभः
स्मरन्विरूपकरणं वितथात्ममनोरथः ५१

रुक्मीकी सेना और उसके तेजका नाश हो चुका था। केवल प्राण बच रहे थे। उसके चित्तकी सारी आशा-अभिलाषाएँ व्यर्थ हो चुकी थीं और शत्रुओंने अपमानित करके उसे छोड़ दिया था। उसे अपने विरूप किये जानेकी कष्टदायक स्मृति भूल नहीं पाती थी ।।५१||

चक्रे भोजकटं नाम निवासाय महत्पुरम्
अहत्वा दुर्मतिं कृष्णमप्रत्यूह्य यवीयसीम् ५२

अतः उसने अपने रहनेके लिये भोजकट नामकी एक बहुत बड़ी नगरी बसायी। उसने पहले ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि ‘दर्बद्धि कृष्णको मारे बिना और अपनी छोटी बहिनको लौटाये बिना मैं कुण्डिनपुरमें प्रवेश नहीं करूँगा।’ इसलिये क्रोध करके वह वहीं रहने लगा ।।५२।।

कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामीत्युक्त्वा तत्रावसद्रुषा
भगवान्भीष्मकसुतामेवं निर्जित्य भूमिपान् ५३

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्णने इस प्रकार सब राजाओंको जीत लिया और विदर्भराजकमारी रुक्मिणीजीको द्वारकामें लाकर उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।।५३।।

पुरमानीय विधिवदुपयेमे कुरूद्वह
तदा महोत्सवो नॄणां यदुपुर्यां गृहे गृहे
अभूदनन्यभावानां कृष्णे यदुपतौ नृप ५४

हे राजन! उस समय द्वारकापुरीमें घर-घर बड़ा ही उत्सव मनाया जाने लगा। क्यों न हो, वहाँके सभी लोगोंका यदुपति श्रीकृष्णके प्रति अनन्य प्रेम जो था ।।५४।।

नरा नार्यश्च मुदिताः प्रमृष्टमणिकुण्डलाः
पारिबर्हमुपाजह्रुर्वरयोश्चित्रवाससोः ५५

वहाँके सभी नर-नारी मणियोंके चमकीले कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्होंने आनन्दसे भरकर चित्र-विचित्र वस्त्र पहने दूल्हा और दुलहिनको अनेकों भेंटकी सामग्रियाँ उपहारमें दीं ।।५५।।

सा वृष्णिपुर्युत्तम्भितेन्द्र केतुभिर्
विचित्रमाल्याम्बररत्नतोरणैः
बभौ प्रतिद्वार्युपकॢप्तमङ्गलैर्
आपूर्णकुम्भागुरुधूपदीपकैः ५६

उस समय द्वारकाकी अपूर्व शोभा हो रही थी। कहीं बड़ी-बड़ी पताकाएँ बहत ऊँचेतक फहरा रही थीं। चित्र-विचित्र मालाएँ, वस्त्र और रत्नोंके तोरन बँधे हुए थे। द्वार-द्वारपर दूब, खील आदि मंगलकी वस्तुएँ सजायी हुई थीं। जलभरे कलश, अरगजा और धूपकी सुगन्ध तथा दीपावलीसे बड़ी ही विलक्षण शोभा हो रही थी ।।५६।।

सिक्तमार्गा मदच्युद्भिराहूतप्रेष्ठभूभुजाम्
गजैर्द्वाःसु परामृष्ट रम्भापूगोपशोभिता ५७

मित्र नरपति आमन्त्रित किये गये थे। उनके मतवाले हाथियोंके मदसे द्वारकाकी सड़क और गलियोंका छिड़काव हो गया था। प्रत्येक दरवाजेपर केलोंके खंभे और सुपारीके पेड़ रोपे हुए बहुत ही भले मालूम होते थे ।।५७।।

कुरुसृञ्जयकैकेय विदर्भयदुकुन्तयः
मिथो मुमुदिरे तस्मिन्सम्भ्रमात्परिधावताम् ५८

उस उत्सवमें कुतूहलवश इधर-उधर दौड़-धूप करते हुए बन्धु-वर्गों में कुरु, सृञ्जय, कैकय, विदर्भ, यदु और कुन्ति आदि वंशोंके लोग परस्पर आनन्द मना रहे थे ।।५८।।

रुक्मिण्या हरणं श्रुत्वा गीयमानं ततस्ततः
राजानो राजकन्याश्च बभूवुर्भृशविस्मिताः ५९

जहाँतहाँ रुक्मिणी-हरणकी ही गाथा गायी जाने लगी। उसे सुनकर राजा और राजकन्याएँ अत्यन्त विस्मित हो गयीं ||५९||

द्वारकायामभूद्राजन्महामोदः पुरौकसाम्
रुक्मिण्या रमयोपेतं दृष्ट्वा कृष्णं श्रियः पतिम् ६०

महाराज! भगवती लक्ष्मीजीको रुक्मिणीके रूपमें साक्षात लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णके साथ देखकर द्वारकावासी नर-नारियोंको परम आनन्द हुआ ।।६०||

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिण्युद्वाहे चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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