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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 71

Spread the Glory of Sri SitaRam!

71 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ७१
उद्धवमंत्रणया श्रीकृष्णस्येन्द्रप्रस्थगमनम् –

श्रीशुक उवाच –
( अनुष्टुप् )
इत्युदीरितमाकर्ण्य देवऋषेरुद्धवोऽब्रवीत् ।
सभ्यानां मतमाज्ञाय कृष्णस्य च महामतिः ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके वचन सुनकर महामति उद्धवजीने देवर्षि नारद, सभासद् और भगवान् श्रीकृष्णके मतपर विचार किया और फिर वे कहने लगे ।।१।।

श्रीउद्धव उवाच –
यदुक्तं ऋषिणा देव साचिव्यं यक्ष्यतस्त्वया ।
कार्यं पैतृष्वसेयस्य रक्षा च शरणैषिणाम् ॥ २ ॥

उद्धवजीने कहा-भगवन! देवर्षि नारदजीने आपको यह सलाह दी है कि फफेरे भाई पाण्डवोंके राजसूय-यज्ञमें सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिये। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतोंकी रक्षा अवश्यकर्तव्य है ।।२।।

यष्टव्यम्राजसूयेन दिक् चक्रजयिना विभो ।
अतो जरासुतजय उभयार्थो मतो मम ॥ ३ ॥

प्रभो! जब हम इस दृष्टिसे विचार करते हैं कि राजसूय-यज्ञ वही कर सकता है, जो दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त कर ले, तब हम इस निर्णयपर बिना किसी दुविधाके पहुँच जाते हैं कि पाण्डवोंके यज्ञ और शरणागतोंकी रक्षा दोनों कामोंके लिये जरासन्धको जीतना आवश्यकहै ।।३।।

अस्माकं च महानर्थो ह्येतेनैव भविष्यति ।
यशश्च तव गोविन्द राज्ञो बद्धान् विमुञ्चतः ॥ ४ ॥

प्रभो! केवल जरासन्धको जीत लेनेसे ही हमारा महान् उद्देश्य सफल हो जायगा, साथ ही उससे बंदी राजाओंकी मुक्ति और उसके कारण आपको सुयशकी भी प्राप्ति हो जायगी ||४||

स वै दुर्विषहो राजा नागायुतसमो बले ।
बलिनामपि चान्येषां भीमं समबलं विना ॥ ५ ॥

राजा जरासन्ध बड़े-बड़े लोगोंके भी दाँत खट्टे कर देता है; क्योंकि दस हजार हाथियोंका बल उसे प्राप्त है। उसे यदि हरा सकते हैं तो केवल भीमसेन, क्योंकि वे भी वैसे ही बली हैं ||५||

द्‌वैरथे स तु जेतव्यो मा शताक्षौहिणीयुतः ।
ब्रह्मण्योऽभ्यर्थितो विप्रैः न प्रत्याख्याति कर्हिचित् ॥ ६ ॥

उसे आमने-सामनेके युद्धमें एक वीर जीत ले, यही सबसे अच्छा है। सौ अक्षौहिणी सेना लेकर जब वह युद्धके लिये खड़ा होगा, उस समय उसे जीतना आसान न होगा। जरासन्ध बहुत बड़ा ब्राह्मणभक्त है। यदि ब्राह्मण उससे किसी बातकी याचना करते हैं, तो वह कभी कोरा जवाब नहीं देता ।।६।।

ब्रह्मवेषधरो गत्वा तं भिक्षेत वृकोदरः ।
हनिष्यति न सन्देहो द्‌वैरथे तव सन्निधौ ॥ ७ ॥

इसलिये भीमसेन ब्राह्मणके वेषमें जायँ और उससे युद्धकी भिक्षा माँगें। भगवन्! इसमें सन्देह नहीं कि यदि आपकी उपस्थितिमें भीमसेन और जरासन्धका द्वन्द्वयुद्ध हो, तो भीमसेन उसे मार डालेंगे ।।७।।

निमित्तं परमीशस्य विश्वसर्गनिरोधयोः ।
हिरण्यगर्भः शर्वश्च कालस्यारूपिणस्तव ॥ ८ ॥

प्रभो! आप सर्वशक्तिमान्, रूपरहित कालस्वरूप हैं। विश्वकी सृष्टि और प्रलय आपकी ही शक्तिसे होता है। ब्रह्मा और शंकर तो उसमें निमित्तमात्र हैं। (इसी प्रकार जरासन्धका वध तो होगा आपकी शक्तिसे, भीमसेन केवल उसमें निमित्तमात्र बनेंगे) ||८||

( वसंततिलका )
गायन्ति ते विशदकर्म गृहेषु देव्यो
राज्ञां स्वशत्रुवधमात्मविमोक्षणं च ।
गोप्यश्च कुञ्जरपतेर्जनकात्मजायाः
पित्रोश्च लब्धशरणा मुनयो वयं च ॥ ९ ॥

जब इस प्रकार आप जरासन्धका वध कर डालेंगे, तब कैदमें पड़े हुए राजाओंकी रानियाँ अपने महलोंमें आपकी इस विशुद्ध लीलाका गान करेंगी कि आपने उनके शत्रुका नाश कर दिया और उनके प्राणपतियोंको छुड़ा दिया। ठीक वैसे ही, जैसे गोपियाँ शंखचूडसे छुड़ानेकी लीलाका, आपके शरणागत मुनिगण गजेन्द्र और जानकीजीके उद्धारकी लीलाका तथा हमलोग आपके मातापिताको कंसके कारागारसे छुड़ानेकी लीलाका गान करते हैं ||९||

( अनुष्टुप् )
जरासन्धवधः कृष्ण भूर्यर्थायोपकल्पते ।
प्रायः पाकविपाकेन तव चाभिमतः क्रतुः ॥ १० ॥

इसलिये प्रभो! जरासन्धका वध स्वयं ही बहुत-से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियोंके पुण्य-परिणामसे अथवा जरासन्धके पाप-परिणामसे सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप भी तो इस समय राजसूय-अज्ञका होना ही पसंद करते हैं (इसलिये पहले आप वहीं पधारिये ।।१०।।

श्रीशुक उवाच –
इत्युद्धव वचो राजन् सर्वतोभद्रमच्युतम् ।
देवर्षिर्यदुवृद्धाश्च कृष्णश्च प्रत्यपूजयन् ॥ ११ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! उद्धवजीकी यह सलाह सब प्रकारसे हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंशके बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने भी उनकी बातका समर्थन किया ||११||

अथादिशत् प्रयाणाय भगवान् देवकीसुतः ।
भृत्यान् दारुकजैत्रादीन् अनुज्ञाप्य गुरून् विभुः ॥ १२ ॥

अब अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने वसुदेव आदि गुरुजनोंसे अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकोंको इन्द्रप्रस्थ जानेकी तैयारी करनेके लिये आज्ञा दी ।।१२।।

निर्गमय्यावरोधान् स्वान् ससुतान् सपरिच्छदान् ।
सङ्कर्षणमनुज्ञाप्य यदुराजं च शत्रुहन् ।
सूतोपनीतं स्वरथं आरुहद् गरुडध्वजम् ॥ १३ ॥

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने यदुराज उग्रसेन और बलरामजीसे आज्ञा लेकर बाल-बच्चोंके साथ रानियों और उनके सब सामानोंको आगे चला दिया और फिर दारुकके लाये हुए गरुड़ध्वज रथपर स्वयं सवार हुए ।।१३।।

( प्रभावती )
ततो रथद्‌विपभटसादिनायकैः
करालया परिवृत आत्मसेनया ।
मृदङ्‌ग भेर्यानक शङ्खगोमुखैः
प्रघोषघोषितककुभो निराक्रमत् ॥ १४ ॥

इसके बाद रथों, हाथियों, घुड़सवारों और पैदलोंकी बड़ी भारी सेनाके साथ उन्होंने प्रस्थान किया। उस समय मृदंग, नगारे, ढोल, शंख और नरसिंगोंकी ऊँची ध्वनिसे दसों दिशाएँ गूंज उठीं ।।१४।।

नृवाजिकाञ्चन शिबिकाभिरच्युतं
सहात्मजाः पतिमनु सुव्रता ययुः ।
वरांबराभरणविलेपनस्रजः
सुसंवृता नृभिरसिचर्मपाणिभिः ॥ १५ ॥

सतीशिरोमणि रुक्मिणीजी आदि सहस्रों श्रीकृष्णपत्नियाँ अपनी सन्तानोंके साथ सुन्दरसुन्दर वस्त्राभूषण, चन्दन, अंगराग और पुष्पोंके हार आदिसे सज-धजकर डोलियों, रथों और सोनेकी बनी हुई पालकियोंमें चढ़कर अपने पतिदेव भगवान् श्रीकृष्णके पीछे-पीछे चलीं। पैदल सिपाही हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर उनकी रक्षा करते हुए चल रहे थे ।।१५।।

नरोष्ट्रगोमहिषखराश्वतर्यनः
करेणुभिः परिजनवारयोषितः ।
स्वलङ्कृताः कटकुटिकम्बलाम्बराद्
उपस्करा ययुरधियुज्य सर्वतः ॥ १६ ॥

इसी प्रकार अनुचरोंकी स्त्रियाँ और वारांगनाएँ भलीभाँति शृंगार करके खस आदिकी झोपड़ियों, भाँति-भाँतिके तंबुओं, कनातों, कम्बलों और ओढ़ने-बिछाने आदिकी सामग्रियोंको बैलों, भैंसों, गधों और खच्चरोंपर लादकर तथा स्वयं पालकी, ऊँट, छकड़ों और हथिनियोंपर सवार होकर चलीं ।।१६।।

बलं बृहद्ध्वजपटछत्रचामरैः
वरायुधाभरणकिरीटवर्मभिः ।
दिवांशुभिस्तुमुलरवं बभौ रवेः
यथार्णवः क्षुभिततिमिङ्‌गिलोर्मिभिः ॥ १७ ॥

जैसे मगरमच्छों और लहरोंकी उछल-कूदसे क्षुब्ध समुद्रकी शोभा होती है, ठीक वैसे ही अत्यन्त कोलाहलसे परिपूर्ण, फहराती हुई बड़ी-बड़ी पताकाओं, छत्रों, चवरों, श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्रों, वस्त्राभूषणों, मुकुटों, कवचों और दिनके समय उनपर पड़ती हुई सूर्यकी किरणोंसे भगवान् श्रीकृष्णकी सेना अत्यन्त शोभायमान हुई ।।१७।।

अथो मुनिर्यदुपतिना सभाजितः
प्रणम्य तं हृदि विदधद् विहायसा ।
निशम्य तद्‌व्यवसितमाहृतार्हणो
मुकुन्दसन्दर्शननिर्वृतेन्द्रियः ॥ १८ ॥

देवर्षि नारदजी भगवान् श्रीकृष्णसे सम्मानित होकर और उनके निश्चयको सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। भगवान्के दर्शनसे उनका हृदय और समस्त इन्द्रियाँ परमानन्दमें मग्न हो गयीं। विदा होनेके समय भगवान् श्रीकृष्णने उनका नाना प्रकारकी सामग्रियोंसे पूजन किया। अब देवर्षि नारदने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनकी दिव्य मूर्तिको हृदयमें धारण करके आकाश-मार्गसे प्रस्थान किया ।।१८।।

( अनुष्टुप् )
राजदूतमुवाचेदं भगवान् प्रीणयन् गिरा ।
मा भैष्ट दूत भद्रं वो घातयिष्यामि मागधम् ॥ १९ ॥

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने जरासन्धके बंदी नरपतियोंके दूतको अपनी मधुर वाणीसे आश्वासन देते हुए कहा—’दूत! तुम अपने राजाओंसे जाकर कहनाडरो मत! तुमलोगोंका कल्याण हो। मैं जरासन्धको मरवा डालूँगा’ ||१९||

इत्युक्तः प्रस्थितो दूतो यथावद् अवदन् नृपान् ।
तेऽपि सन्दर्शनं शौरेः प्रत्यैक्षन् यन्मुमुक्षवः ॥ २० ॥

भगवान्की ऐसी आज्ञा पाकर वह दूत गिरिव्रज चला गया और नरपतियोंको भगवान् श्रीकृष्णका सन्देश ज्योंका-त्यों सुना दिया। वे राजा भी कारागारसे छूटनेके लिये शीघ्र-से-शीघ्र भगवान्के शुभ दर्शनकी बाट जोहने लगे ।।२०।।

आनर्तसौवीरमरून् तीर्त्वा विनशनं हरिः ।
गिरीन् नदीरतीयाय पुरग्रामव्रजाकरान् ॥ २१ ॥

परीक्षित्! अब भगवान् श्रीकृष्ण आनर्त, सौवीर, मरु, कुरुक्षेत्र और उनके बीचमें पड़नेवाले पर्वत, नदी, नगर, गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ तथा खानोंको पार करते हुए आगे बढ़ने लगे ||२१||

ततो दृषद्‌वतीं तीर्त्वा मुकुन्दोऽथ सरस्वतीम् ।
पञ्चालानथ मत्स्यांश्च शक्रप्रस्थमथागमत् ॥ २२ ॥

भगवान् मुकुन्द मार्गमें दृषद्वती एवं सरस्वती नदी पार करके पांचाल और मत्स्य देशोंमें होते हुए इन्द्रप्रस्थ जा पहुँचे ।।२२।।

तमुपागतमाकर्ण्य प्रीतो दुर्दर्शनं नृणाम् ।
अजातशत्रुर्निरगात् सोपाध्यायः सुहृद्‌वृतः ॥ २३ ॥

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। जब अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरको यह समाचार मिला कि भगवान् श्रीकृष्ण पधार गये हैं, तब उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठा। वे अपने आचार्यों और स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ भगवानकी अगवानी करनेके लिये नगरसे बाहर आये ।।२३।।

गीतवादित्रघोषेण ब्रह्मघोषेण भूयसा ।
अभ्ययात् स हृषीकेशं प्राणाः प्राणमिवादृतः ॥ २४ ॥

मंगल-गीत गाये जाने लगे, बाजे बजने लगे, बहुत-से ब्राह्मण मिलकर ऊँचे स्वरसे वेदमन्त्रोंका उच्चारण करने लगे। इस प्रकार वे बड़े आदरसे हृषीकेशभगवानका स्वागत करनेके लिये चले, जैसे इन्द्रियाँ मुख्य प्राणसे मिलने जा रही हों ||२४||

दृष्ट्वा विक्लिन्नहृदयः कृष्णं स्नेहेन पाण्डवः ।
चिराद् दृष्टं प्रियतमं सस्वजेऽथ पुनः पुनः ॥ २५ ॥

भगवान् श्रीकृष्णको देखकर राजा युधिष्ठिरका हृदय स्नेहातिरेकसे गद्गद हो गया। उन्हें बहुत दिनोंपर अपने प्रियतम भगवान् श्रीकृष्णको देखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अतः वे उन्हें बार-बार अपने हृदयसे लगाने लगे ||२५||

( मिश्र )
दोर्भ्यां परिष्वज्य रमामलालयं
मुकुन्दगात्रं नृपतिर्हताशुभः ।
लेभे परां निर्वृतिमश्रुलोचनो
हृष्यत्तनुर्विस्मृत लोकविभ्रमः ॥ २६ ॥

भगवान् श्रीकृष्णका श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मीजीका पवित्र और एकमात्र निवास-स्थान है। राजा युधिष्ठिर अपनी दोनों भुजाओंसे उसका आलिंगन करके समस्त पाप-तापोंसे छुटकारापा गये। वे सर्वतोभावेन परमानन्दके समुद्रमें मग्न हो गये। नेत्रोंमें आँसू छलक आये, अंग-अंग पुलकित हो गया, उन्हें इस विश्व-प्रपंचके भ्रमका तनिक भी स्मरण न रहा ।।२६।।

तं मातुलेयं परिरभ्य निर्वृतो
भीमः स्मयन् प्रेमजलाकुलेन्द्रियः ।
यमौ किरीटी च सुहृत्तमं मुदा
प्रवृद्धबाष्पाः परिरेभिरेऽच्युतम् ॥ २७ ॥

तदनन्तर भीमसेनने मुसकराकर अपने ममेरे भाई श्रीकृष्णका आलिंगन किया। इससे उन्हें बड़ा आनन्द मिला। उस समय उनके हृदयमें इतना प्रेम उमड़ा कि उन्हें बाह्य विस्मृति-सी हो गयी। नकुल, सहदेव और अर्जुनने भी अपने परम प्रियतम और हितैषी भगवान् श्रीकृष्णका बड़े आनन्दसे आलिंगन प्राप्त किया। उस समय उनके नेत्रोंमें आँसओंकी बाढ-सी आ गयी थी ।।२७।।

( अनुष्टुप् )
अर्जुनेन परिष्वक्तो यमाभ्यामभिवादितः ।
ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य वृद्धेभ्यश्च यथार्हतः ॥ २८ ॥

अर्जुनने पुनः भगवान् श्रीकृष्णका आलिंगन किया, नकुल और सहदेवने अभिवादन किया
और स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने ब्राह्मणों और कुरुवंशी वृद्धोंको यथायोग्य नमस्कार किया ।।२८।।

मानिनो मानयामास कुरुसृञ्जयकैकयान् ।
सूतमागधगन्धर्वा वन्दिनश्चोपमंत्रिणः ॥ २९ ॥

मृदङ्‌गशङ्खपटह वीणापणवगोमुखैः ।
ब्राह्मणाश्चारविन्दाक्षं तुष्टुवुर्ननृतुर्जगुः ॥ ३० ॥

कुरु, संजय और केकय देशके नरपतियोंने भगवान् श्रीकृष्णका सम्मान किया और भगवान् श्रीकृष्णने भी उनका यथोचित सत्कार किया। सूत, मागध, वंदीजन और ब्राह्मण भगवान्की स्तुति करने लगे तथा गन्धर्व, नट, विदूषक आदि मदंग, शंख, नगारे, वीणा, ढोल और नरसिंगे बजा-बजाकर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णको प्रसन्न करनेके लिये नाचने-गाने लगे ।।२९-३०।।

एवं सुहृद्‌भिः पर्यस्तः पुण्यश्लोकशिखामणिः ।
संस्तूयमानो भगवान् विवेशालङ्कृतं पुरम् ॥ ३१ ॥

इस प्रकार परमयशस्वी भगवान् श्रीकृष्णने अपने सुहृद्स्वजनोंके साथ सब प्रकारसे सुसज्जित इन्द्रप्रस्थ नगरमें प्रवेश किया। उस समय लोग आपसमें भगवान् श्रीकृष्णकी प्रशंसा करते चल रहे थे ।।३१।।

( वसंततिलका )
संसिक्तवर्त्म करिणां मदगन्धतोयैः
चित्रध्वजैः कनकतोरणपूर्णकुम्भैः ।
मृष्टात्मभिर्नवदुकूलविभूषणस्रग्
गन्धैर्नृभिर्युवतिभिश्च विराजमानम् ॥ ३२ ॥

इन्द्रप्रस्थ नगरकी सड़कें और गलियाँ मतवाले हाथियोंके मदसे तथा सुगन्धित जलसे सींच दी गयी थीं। जगह-जगह रंग-बिरंगी झंडियाँ लगा दी गयी थीं। सुनहले तोरन बाँधे हुए थे और सोनेके जलभरे कलश स्थान-स्थानपर शोभा पा रहे थे। नगरके नर-नारी नहा-धोकर तथा नये वस्त्र, आभूषण, पुष्पोंके हार, इत्र-फुलेल आदिसे सज-धजकर घूम रहे थे ||३२||

उद्दीप्तदीपबलिभिः प्रतिसद्म जाल
निर्यातधूपरुचिरं विलसत्पताकम् ।
मूर्धन्यहेमकलशै रजतोरुशृङ्‌गैः
जुष्टं ददर्श भवनैः कुरुराजधाम ॥ ३३ ॥

घर-घरमें ठौर-ठौरपर दीपक जलाये गये थे, जिनसे दीपावलीकी-सी छटा हो रही थी। प्रत्येक घरके झरोखोंसे धूपका धूआँ निकलता हुआ बहुत ही भला मालूम होता था। सभी घरोंके ऊपर पताकाएँ फहरा रही थीं तथा सोनेके कलश और चाँदीके शिखर जगमगा रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकारके महलोंसे परिपूर्ण पाण्डवोंकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ नगरको देखते हुए आगे बढ़ रहे थे ।।३३।।

प्राप्तं निशम्य नरलोचनपानपात्रम्
औत्सुक्यविश्लथितकेश दुकूलबन्धाः ।
सद्यो विसृज्य गृहकर्म पतींश्च तल्पे
द्रष्टुं ययुर्युवतयः स्म नरेन्द्रमार्गे ॥ ३४ ॥

जब युवतियोंने सुना कि मानव-नेत्रोंके पानपात्र अर्थात् अत्यन्त दर्शनीय भगवान् श्रीकृष्ण राजपथपर आ रहे हैं, तब उनके दर्शनकी उत्सुकताके आवेगसे उनकी चोटियों और साड़ियोंकी गाँठे ढीली पड़ गयीं। उन्होंने घरका काम-काज तो छोड़ ही दिया, सेजपर सोये हुए अपने पतियोंको भी छोड़ दिया और भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये राजपथपर दौड़ आयीं ||३४||

तस्मिन् सुसङ्कुल इभाश्वरथद्‌विपद्‌भिः
कृष्णंसभार्यमुपलभ्य गृहाधिरूढाः ।
नार्यो विकीर्य कुसुमैर्मनसोपगुह्य
सुस्वागतं विदधुरुत्स्मयवीक्षितेन ॥ ३५ ॥

सड़कपर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेनाकी भीड़ लग रही थी। उन स्त्रियोंने अटारियोंपर चढ़कर रानियोंके सहित भगवान श्रीकृष्णका दर्शन किया, उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा की और मन-ही-मन आलिंगन किया तथा प्रेमभरी मुसकान एवं चितवनसे उनका सुस्वागत किया ।।३५।।

ऊचुः स्त्रियः पथि निरीक्ष्य मुकुन्दपत्‍नीः
तारा यथोडुपसहाः किमकार्यमूभिः ।
यच्चक्षुषां पुरुषमौलिरुदारहास
लीलावलोककलयोत्सवमातनोति ॥ ३६ ॥

नगरकी स्त्रियाँ राजपथपर चन्द्रमाके साथ विराजमान ताराओंके समान श्रीकृष्णकी पत्नियोंको देखकर आपसमें कहने लगीं-‘सखी! इन बड़भागिनी रानियोंने न जाने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिसके कारण पुरुषशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण अपने उन्मुक्त हास्य और विलासपूर्ण कटाक्षसे उनकी ओर देखकर उनके नेत्रोंको परम आनन्द प्रदान करते हैं ||३६||

तत्र तत्रोपसङ्‌गम्य पौरा मङ्‌गलपाणयः ।
( अनुष्टुप् )
चक्रुः सपर्यां कृष्णाय श्रेणीमुख्या हतैनसः ॥ ३७ ॥

इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण राजपथसे चल रहे थे। स्थान-स्थानपर बहुत-से निष्पाप धनी-मानी और शिल्पजीवी नागरिकोंने अनेकों मांगलिक वस्तुएँ ला-लाकर उनकी पूजा-अर्चा और स्वागत-सत्कार किया ।।३७।।

अन्तःपुरजनैः प्रीत्या मुकुन्दः फुल्ललोचनैः ।
ससम्भ्रमैरभ्युपेतः प्राविशद् राजमन्दिरम् ॥ ३८ ॥

अन्तःपुरकी स्त्रियाँ भगवान् श्रीकृष्णको देखकर प्रेम और आनन्दसे भर गयीं। उन्होंने अपने प्रेमविह्वल और आनन्दसे खिले नेत्रोंके द्वारा भगवान्का स्वागत किया और श्रीकृष्ण उनका स्वागत-सत्कार स्वीकार करते हुए राजमहलमें पधारे ||३८।।

पृथा विलोक्य भ्रात्रेयं कृष्णं त्रिभुवनेश्वरम् ।
प्रीतात्मोत्थाय पर्यङ्कात् सस्नुषा परिषस्वजे ॥ ३९ ॥

जब कुन्तीने अपने त्रिभुवनपति भतीजे श्रीकृष्णको देखा, तब उनका हृदय प्रेमसे भर आया। वे पलंगसे उठकर अपनी पुत्रवधू द्रौपदीके साथ आगे गयीं और भगवान् श्रीकृष्णको हृदयसे लगा लिया ।।३९।।

गोविन्दं गृहमानीय देवदेवेशमादृतः ।
पूजायां नाविदत् कृत्यं प्रमोदोपहतो नृपः ॥ ४० ॥

देवदेवेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको राजमहलके अंदर लाकर राजा युधिष्ठिर आदरभाव और आनन्दके उद्रेकसे आत्म-विस्मत हो गये; उन्हें इस बातकी भी सुधि न रही कि किस क्रमसे भगवान्की पूजा करनी चाहिये ।।४०।।

पितृस्वसुर्गुरुस्त्रीणां कृष्णश्चक्रेऽभिवादनम् ।
स्वयं च कृष्णया राजन् भगिन्या चाभिवन्दितः ॥ ४१ ॥

भगवान् श्रीकृष्णने अपनी फआ कुन्ती और गुरुजनोंकी पत्नियोंका अभिवादन किया। उनकी बहिन सुभद्रा और द्रौपदीने भगवान्को नमस्कार किया ।।४१।।

श्वश्र्वा सञ्चोदिता कृष्णा कृष्णपत्‍नीश्च सर्वशः ।
आनर्च रुक्मिणीं सत्यां भद्रां जाम्बवतीं तथा ॥ ४२ ॥

कालिन्दीं मित्रविन्दां च शैब्यां नाग्नजितीं सतीम् ।
अन्याश्चाभ्यागता यास्तु वासःस्रङ्‌मण्डनादिभिः ॥ ४३ ॥

अपनी सास कुन्तीकी प्रेरणासे द्रौपदीने वस्त्र, आभूषण, माला आदिके द्वारा रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रविन्दा, लक्ष्मणा और परम साध्वी सत्याभगवान् श्रीकृष्णकी इन पटरानियोंका तथा वहाँ आयी हुई श्रीकृष्णकी अन्यान्य रानियोंका भी यथायोग्य सत्कार किया ।।४२-४३||

सुखं निवासयामास धर्मराजो जनार्दनम् ।
ससैन्यं सानुगामत्यं सभार्यं च नवं नवम् ॥ ४४ ॥

धर्मराज युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णको उनकी सेना, सेवक, मन्त्री और पत्नियोंके साथ ऐसे स्थानमें ठहराया जहाँ उन्हें नित्य नयी-नयी सुखकी सामग्रियाँ प्राप्त हों ।।४४||

तर्पयित्वा खाण्डवेन वह्निं फाल्गुनसंयुतः ।
मोचयित्वा मयं येन राज्ञे दिव्या सभा कृता ॥ ४५ ॥

अर्जुनके साथ रहकर भगवान् श्रीकृष्णने खाण्डव वनका दाह करवाकर अग्नेिको तृप्त किया था और मयासुरको उससे बचाया था। परीक्षित्! उस मयासुरने ही धर्मराज युधिष्ठिरके लिये भगवानकी आज्ञासे एक दिव्य सभा तैयार कर दी ।।४५।।

उवास कतिचिन् मासान् राज्ञः प्रियचिकीर्षया ।
विहरन् रथमारुह्य फाल्गुनेन भटैर्वृतः ॥ ४६ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण राजा युधिष्ठिरको आनन्दित करनेके लिये कई महीनोंतक इन्द्रप्रस्थमें ही रहे। वे समय-समयपर अर्जुनके साथ रथपर सवार होकर विहार करनेके लिये इधर-उधर चले जाया करते थे। उस समय बड़े-बड़े वीर सैनिक भी उनकी सेवाके लिये साथसाथ जाते ।।४६।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे
कृष्णस्य इंद्रप्रस्थगमनं नाम एकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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