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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 72

Spread the Glory of Sri SitaRam!

72 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ७२
राजसूयोपक्रमे पाण्डवानां दिग्विजयः; भीमेन जरासंध वधश्च –

श्रीशुक उवाच –
( अनुष्टुप् )
एकदा तु सभामध्य आस्थितो मुनिभिर्वृतः ।
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः भ्रातृभिश्च युधिष्ठिरः ॥ १ ॥

आचार्यैः कुलवृद्धैश्च ज्ञातिसंबन्धिबान्धवैः ।
श्रृण्वतामेव चैतेषां आभाष्येदमुवाच ह ॥ २ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! एक दिन महाराज युधिष्ठिर बहुत-से मुनियों, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, भीमसेन आदि भाइयों, आचार्यों, कुलके बड़े-बूढ़ों, जाति-बन्धुओं, सम्बन्धियों एवं कुटुम्बियोंके साथ राजसभामें बैठे हुए थे। उन्होंने सबके सामने ही भगवान् श्रीकृष्णको सम्बोधित करके यह बात कही ।।१-२।।

श्रीयुधिष्ठिर उवाच –
( वसंततिलका )
क्रतुराजेन गोविन्द राजसूयेन पावनीः ।
यक्ष्ये विभूतीर्भवतः तत्संपादय नः प्रभो ॥ ३ ॥

धर्मराज यधिष्ठिरने कहा-गोविन्द! मैं सर्वश्रेष्ठ राजसूय-यज्ञके द्वारा आपका और आपके परम पावन विभूतिस्वरूप देवताओंका यजन करना चाहता हूँ। प्रभो! आप कृपा करके मेरा यह संकल्प पूरा कीजिये ||३||

त्वत्पादुके अविरतं परि ये चरन्ति
ध्यायन्त्यभद्रनशने शुचयो गृणन्ति ।
विन्दन्ति ते कमलनाभ भवापवर्गम्
आशासते यदि त आशिष ईश नान्ये ॥ ४ ॥

कमलनाभ! आपके चरणकमलोंकी पादुकाएँ समस्त अमंगलोंको नष्ट करनेवाली हैं। जो लोग निरन्तर उनकी सेवा करते हैं, ध्यान और स्तुति करते हैं, वास्तवमें वे ही पवित्रात्मा हैं। वे जन्म-मृत्युके चक्करसे छुटकारा पा जाते हैं। और यदि वे सांसारिक विषयोंकी अभिलाषा करें तो उन्हें उनकी भी प्राप्ति हो जाती है। परन्तु जो आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण नहीं करते, उन्हें मुक्ति तो मिलती ही नहीं, सांसारिक भोग भी नहीं मिलते ।।४।।

तद्देवदेव भवतश्चरणारविन्द
सेवानुभावमिह पश्यतु लोक एषः ।
ये त्वां भजन्ति न भजन्त्युत वोभयेषां
निष्ठां प्रदर्शय विभो कुरुसृञ्जयानाम् ॥ ५ ॥

देवताओंके भी आराध्यदेव! मैं चाहता हूँ कि संसारी लोग आपके चरणकमलोंकी सेवाका प्रभाव देखें। प्रभो! कुरुवंशी और संजयवंशी नरपतियोंमें जो लोग आपका भजन करते हैं और जो नहीं करते, उनका अन्तर आप जनताको दिखला दीजिये ||५||

न ब्रह्मणः स्वपरभेदमतिस्तव स्यात्
सर्वात्मनः समदृशः स्वसुखानुभूतेः ।
संसेवतां सुरतरोरिव ते प्रसादः
सेवानुरूपमुदयो न विपर्ययोऽत्र ॥ ६ ॥

प्रभो! आप सबके आत्मा, समदर्शी और स्वयं आत्मानन्दके साक्षात्कार हैं, स्वयं ब्रह्म हैं। आपमें ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा, यह अपना है और यह पराया’-इस प्रकारका भेदभाव नहीं है। फिर भी जो आपकी सेवा करते हैं, उन्हें उनकी भावनाके अनुसार फल मिलता ही है—ठीक वैसे ही, जैसे कल्पवक्षकी सेवा करनेवालेको। उस फलमें जो न्यूनाधिकता होती है वह तो न्यूनाधिक सेवाके अनुरूप ही होती है। इससे आपमें विषमता या निर्दयता आदि दोष नहीं आते ।।६।।

श्रीभगवानुवाच –

( अनुष्टुप् )
सम्यग् व्यवसितं राजन् भवता शत्रुकर्शन ।
कल्याणी येन ते कीर्तिः लोकान् अनुभविष्यति ॥ ७ ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-शत्रु विजयी धर्मराज! आपका निश्चय बहुत ही उत्तम है। राजसूय-यज्ञ करनेसे समस्त लोकोंमें आपकी मंगलमयी कीर्तिका विस्तार होगा ।।७।।

ऋषीणां पितृदेवानां सुहृदामपि नः प्रभो ।
सर्वेषामपि भूतानां ईप्सितः क्रतुराडयम् ॥ ८ ॥

राजन्! आपका यह महायज्ञ ऋषियों, पितरों, देवताओं, सगे-सम्बन्धियों, हमें और कहाँतक कहें, समस्त प्राणियोंको अभीष्ट है ।।८।।

विजित्य नृपतीन् सर्वान् कृत्वा च जगतीं वशे ।
सम्भृत्य सर्वसम्भारान् आहरस्व महाक्रतुम् ॥ ९ ॥

महाराज! पृथ्वीके समस्त नरपतियोंको जीतकर, सारी पृथ्वीको अपने वशमें करके और यज्ञोचित सम्पूर्ण सामग्री एकत्रित करके फिर इस महायज्ञका अनुष्ठान कीजिये ।।९।।

एते ते भ्रातरो राजन् लोकपालांशसंभवाः ।
जितोऽस्म्यात्मवता तेऽहं दुर्जयो योऽकृतात्मभिः ॥ १० ॥

महाराज! आपके चारों भाई वायु, इन्द्र आदि लोकपालोंके अंशसे पैदा हए हैं। वे सब-के-सब बड़े वीर हैं। आप तो परम मनस्वी और संयमी हैं ही। आपलोगोंने अपने सदगुणोंसे मुझे अपने वशमें कर लिया है। जिन लोगोंने अपनी इन्द्रियों और मनको वशमें नहीं किया है, वे मुझे अपने वशमें नहीं कर सकते ।।१०।।

न कश्चिन्मत्परं लोके तेजसा यशसा श्रिया ।
विभूतिभिर्वाभिभवेद् देवोऽपि किमु पार्थिवः ॥ ११ ॥

संसारमें कोई बड़े-से-बड़ा देवता भी तेज, यश, लक्ष्मी, सौन्दर्य और ऐश्वर्य आदिके द्वारा मेरे भक्तका तिरस्कार नहीं कर सकता। फिर कोई राजा उसका तिरस्कार कर दे, इसकी तो सम्भावना ही क्या है? ||११||

श्रीशुक उवाच –
निशम्य भगवद्‌गीतं प्रीतः फुल्लमुखाम्बुजः ।
भ्रातॄन् दिग्विजयेऽयुङ्क्त विष्णुतेजोपबृंहितान् ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान्की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिरका हृदय आनन्दसे भर गया। उनका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। अब उन्होंने अपने भाइयोंको दिग्विजय करनेका आदेश दिया। भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवोंमें अपनी शक्तिका संचार करके उनको अत्यन्त प्रभावशाली बना दिया था ।।१२।।

सहदेवं दक्षिणस्यां आदिशत् सह सृञ्जयैः ।
दिशि प्रतीच्यां नकुलं उदीच्यां सव्यसाचिनम् ।
प्राच्यां वृकोदरं मत्स्यैः केकयैः सह मद्रकैः ॥ १३ ॥

धर्मराज युधिष्ठिरने संजयवंशी वीरों के साथ सहदेवको दक्षिण दिशामें दिग्विजय करनेके लिये भेजा। नकुलको मत्स्यदेशीय वीरोंके साथ पश्चिममें, अर्जुनको केकयदेशीय वीरोंके साथ उत्तरमें और भीमसेनको मद्रदेशीय वीरोंके साथ पूर्व दिशामें दिग्विजय करनेका आदेश दिया ।।१३।।

ते विजित्य नृपान् वीरा आजह्रुर्दिग्भ्य ओजसा ।
अजातशत्रवे भूरि द्रविणं नृप यक्ष्यते ॥ १४ ॥

परीक्षित्! उन भीमसेन आदि वीरोंनेअपने बल-पौरुषसे सब ओरके नरपतियोंको जीत लिया और यज्ञ करनेके लिये उद्यत महाराज यधिष्ठिरको बहत-सा धन लाकर दिया ।।१४।।

श्रुत्वाजितं जरासन्धं नृपतेर्ध्यायतो हरिः ।
आहोपायं तमेवाद्य उद्धवो यमुवाच ह ॥ १५ ॥

जब महाराज युधिष्ठिरने यह सुना कि अबतक जरासन्धपर विजय नहीं प्राप्त की जा सकी, तब वे चिन्तामें पड़ गये। उस समय भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें वही उपाय कह सुनाया, जो उद्धवजीने बतलाया था ||१५||

भीमसेनोऽर्जुनः कृष्णो ब्रह्मलिङ्‌गधरास्त्रयः ।
जग्मुर्गिरिव्रजं तात बृहद्रथसुतो यतः ॥ १६ ॥

परीक्षित! इसके बाद भीमसेन, अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण-ये तीनों ही ब्राह्मणका वेष धारण करके गिरिव्रज गये। वही जरासन्धकी राजधानी थी ।।१६।।

ते गत्वाऽऽतिथ्यवेलायां गृहेषु गृहमेधिनम् ।
ब्रह्मण्यं समयाचेरन् राजन्या ब्रह्मलिङ्‌गिनः ॥ १७ ॥

राजा जरासन्ध ब्राह्मणोंका भक्त और गृहस्थोचित धर्मोंका पालन करनेवाला था। उपर्युक्त तीनों क्षत्रिय ब्राह्मणका वेष धारण करके अतिथि-अभ्यागतोंके सत्कारके समय जरासन्धके पास गये और उससे इस प्रकार याचना की- ||१७||

राजन् विद्ध्यतिथीन् प्राप्तान् अर्थिनो दूरमागतान् ।
तन्नः प्रयच्छ भद्रं ते यद्‌ वयं कामयामहे ॥ १८ ॥

‘राजन्! आपका कल्याण हो। हम तीनों आपके अतिथि हैं और बहुत दूरसे आ रहे हैं। अवश्य ही हम यहाँ किसी विशेष प्रयोजनसे ही आये हैं। इसलिये हम आपसे जो कुछ चाहते हैं, वह आप हमें अवश्य दीजिये ।।१८।।

किं दुर्मर्षं तितिक्षूणां किं अकार्यं असाधुभिः ।
किं न देयं वदान्यानां कः परः समदर्शिनाम् ॥ १९ ॥

तितिक्षु पुरुष क्या नहीं सह सकते। दुष्ट पुरुष बुरासे-बुरा क्या नहीं कर सकते। उदार पुरुष क्या नहीं दे सकते और समदर्शीके लिये पराया कौन है? ||१९||

योऽनित्येन शरीरेण सतां गेयं यशो ध्रुवम् ।
नाचिनोति स्वयं कल्पः स वाच्यः शोच्य एव सः ॥ २० ॥

जो पुरुष स्वयं समर्थ होकर भी इस नाशवान शरीरसे ऐसे अविनाशी यशका संग्रह नहीं करता, जिसका बड़े-बड़े सत्पुरुष भी गान करें; सच पूछिये तो उसकी जितनी निन्दा की जाय, थोड़ी है। उसका जीवन शोक करनेयोग्य है ।।२०।।

हरिश्चन्द्रो रन्तिदेव उञ्छवृत्तिः शिबिर्बलिः ।
व्याधः कपोतो बहवो ह्यध्रुवेण ध्रुवं गताः ॥ २१ ॥

राजन्! आप तो जानते ही होंगे राजा हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव, केवल अन्नके दाने बीन-चुनकर निर्वाह करनेवाले महात्मा मुद्गल, शिबि, बलि, व्याध और कपोत आदि बहुत-से व्यक्ति अतिथिको अपना सर्वस्व देकर इस नाशवान् शरीरके द्वारा अविनाशी पदको प्राप्त हो चुके हैं। इसलिये आप भी हमलोगोंको निराश मत कीजिये ।।२१।।

श्रीशुक उवाच –
स्वरैराकृतिभिस्तांस्तु प्रकोष्ठैर्ज्याहतैरपि ।
राजन्यबन्धून् विज्ञाय दृष्टपूर्वानचिन्तयत् ॥ २२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! जरासन्धने उन लोगोंकी आवाज, सुरत-शकल और कलाइयोंपर पड़े हुए धनुषकी प्रत्यंचाकी रगड़के चिह्नोंको देखकर पहचान लिया कि ये तो ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय हैं। अब वह सोचने लगा कि मैंने कहीं-न-कहीं इन्हें देखा भी अवश्य है ।।२२।।

राजन्यबन्धवो ह्येते ब्रह्मलिङ्‌गानि बिभ्रति ।
ददानि भिक्षितं तेभ्य आत्मानमपि दुस्त्यजम् ॥ २३ ॥

फिर उसने मन-ही-मन यह विचार किया कि ‘ये क्षत्रिय होनेपर भी मेरे भयसे ब्राह्मणका वेष बनाकर आये हैं। जब ये भिक्षा माँगनेपर ही उतारू हो गये हैं, तब चाहे जो कुछ माँग लें, मैं इन्हें दूंगा। याचना करनेपर अपना अत्यन्त प्यारा और दुस्त्यज शरीर देनेमें भी मुझे हिचकिचाहट न होगी ।।२३।।

बलेर्नु श्रूयते कीर्तिः वितता दिक्ष्वकल्मषा ।
ऐश्वर्याद्‌ भ्रंशितस्यापि विप्रव्याजेन विष्णुना ॥ २४ ॥

विष्णुभगवान्ने ब्राह्मणका वेष धारण करके बलिका धन, ऐश्वर्यसब कुछ छीन लिया; फिर भी बलिकी पवित्र कीर्ति सब ओर फैली हुई है और आज भी लोग बड़े आदरसे उसका गान करते हैं ।।२४।।

श्रियं जिहीर्षतेन्द्रस्य विष्णवे द्विजरूपिणे ।
जानन्नपि महीं प्रादाद्‌ वार्यमाणोऽपि दैत्यराट् ॥ २५ ॥

इसमें सन्देह नहीं कि विष्णुभगवान्ने देवराज इन्द्रकी राज्यलक्ष्मी बलिसे छीनकर उन्हें लौटानेके लिये ही ब्राह्मणरूप धारण किया था। दैत्यराज बलिको यह बात मालूम हो गयी थी और शुक्राचार्यने उन्हें रोका भी; परन्तु उन्होंने पृथ्वीका दान कर ही दिया ।।२५।।

जीवता ब्राह्मणार्थाय को न्वर्थः क्षत्रबन्धुना ।
देहेन पतमानेन नेहता विपुलं यशः ॥ २६ ॥

मेरा तो यह पक्का निश्चय है कि यह शरीर नाशवान है। इस शरीरसे जो विपुल यश नहीं कमाता और जो क्षत्रिय ब्राह्मणके लिये ही जीवन नहीं धारण करता, उसका जीना व्यर्थ है’ ||२६||

इत्युदारमतिः प्राह कृष्णार्जुनवृकोदरान् ।
हे विप्रा व्रियतां कामो ददाम्यात्मशिरोऽपि वः ॥ २७ ॥

परीक्षित्! सचमुच जरासन्धकी बुद्धि बड़ी उदार थी। उपर्युक्त विचार करके उसने ब्राह्मण-वेषधारी श्रीकष्ण, अर्जुन और भीमसेनसे कहा—’ब्राह्मणो! आपलोग मनचाही वस्तु माँग लें, आप चाहें तो मैं आपलोगोंको अपना सिर भी दे सकता हूँ’ ।।२७।।

श्रीभगवानुवाच –
युद्धं नो देहि राजेन्द्र द्वन्द्वशो यदि मन्यसे ।
युद्धार्थिनो वयं प्राप्ता राजन्या नान्यकाङ्‌क्षिणः ॥ २८ ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-‘राजेन्द्र! हमलोग अन्नके इच्छुक ब्राह्मण नहीं हैं, क्षत्रिय हैं; हम आपके पास युद्धके लिये आये हैं। यदि आपकी इच्छा हो तो हमें द्वन्द्वयुद्धकी भिक्षा दीजिये ||२८||

असौ वृकोदरः पार्थः तस्य भ्रातार्जुनो ह्ययम् ।
अनयोर्मातुलेयं मां कृष्णं जानीहि ते रिपुम् ॥ २९ ॥

देखो, ये पाण्डपत्र भीमसेन हैं और यह इनका भाई अर्जन है और मैं इन दोनोंका ममेरा भाई तथा आपका पुराना शत्रु कृष्ण हूँ’ ||२९||

एवमावेदितो राजा जहासोच्चैः स्म मागधः ।
आह चामर्षितो मन्दा युद्धं तर्हि ददामि वः ॥ ३० ॥

जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब राजा जरासन्ध ठठाकर हँसने लगा। और चिढ़कर बोला —’अरे मूर्यो! यदि तुम्हें युद्धकी ही इच्छा है तो लो मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ ।।३०।।

न त्वया भीरुणा योत्स्ये युधि विक्लवतेजसा ।
मथुरां स्वपुरीं त्यक्त्वा समुद्रं शरणं गतः ॥ ३१ ॥

परन्तु कृष्ण! तुम तो बड़े डरपोक हो। युद्ध में तुम घबरा जाते हो। यहाँतक कि मेरे डरसे तुमने अपनी नगरी मथुरा भी छोड़ दी तथा समुद्रकी शरण ली है। इसलिये मैं तुम्हारे साथ नहीं लडूंगा ।।३१।।

अयं तु वयसा तुल्यो नातिसत्त्वो न मे समः ।
अर्जुनो न भवेद् योद्धा भीमस्तुल्यबलो मम ॥ ३२ ॥

यह अर्जुन भी कोई योद्धा नहीं है। एक तो अवस्थामें मुझसे छोटा, दूसरे कोई विशेष बलवान् भी नहीं है। इसलिये यह भी मेरे जोड़का वीर नहीं है। मैं इसके साथ भी नहीं लडूंगा। रहे भीमसेन, ये अवश्य ही मेरे समान बलवान् और मेरे जोड़के हैं’ ||३२||

इत्युक्त्वा भीमसेनाय प्रादाय महतीं गदाम् ।
द्वितीयां स्वयमादाय निर्जगाम पुराद् बहिः ॥ ३३ ॥

जरासन्धने यह कहकर भीमसेनको एक बहुत बड़ी गदा दे दी और स्वयं दूसरी गदा लेकर नगरसे बाहर निकल आया ।।३३।।

ततः समे खले वीरौ संयुक्तावितरेतरौ ।
जघ्नतुर्वज्रकल्पाभ्यां गदाभ्यां रणदुर्मदौ ॥ ३४ ॥
अब दोनों रणोन्मत्त वीर अखाड़ेमें आकर एक-दूसरेसे भिड़ गये और अपनी वज्रके समान कठोर गदाओंसे एक-दूसरेपर चोट करने लगे ||३४।।

मण्डलानि विचित्राणि सव्यं दक्षिणमेव च ।
चरतोः शुशुभे युद्धं नटयोरिव रङ्‌गिणोः ॥ ३५ ॥

वे दायें-बायें तरह-तरहके पैंतरे बदलते हुए ऐसे शोभायमान हो रहे थे—मानो दो श्रेष्ठ नट रंगमंचपर युद्धका अभिनय कर रहे हों ||३५||

ततश्चटचटाशब्दो वज्रनिष्पेषसन्निभः ।
गदयोः क्षिप्तयो राजन् दन्तयोरिव दन्तिनोः ॥ ३६ ॥

परीक्षित्! जब एककी गदा दूसरेकी गदासे टकराती, तब ऐसा मालूम होता मानो युद्ध करनेवाले दो हाथियोंके दाँत आपसमें भिड़कर चटचटा रहे हों या बड़े जोरसे बिजली तड़क रही हो ।।३६।।

( वसंततिलका )
ते वै गदे भुजजवेन निपात्यमाने
अन्योन्यतोंऽसकटिपादकरोरुजत्रून् ।
चूर्णीबभूवतुरुपेत्य यथार्कशाखे
संयुध्यतोर्द्विरदयोरिव दीप्तमन्व्योः ॥ ३७ ॥

जब दो हाथी क्रोधमें भरकर लड़ने लगते हैं और आककी डालियाँ तोड़-तोड़कर एकदूसरेपर प्रहार करते हैं, उस समय एक-दूसरेकी चोटसे वे डालियाँ चूर-चूर हो जाती हैं; वैसे ही जब जरासन्ध और भीमसेन बड़े वेगसे गदा चला-चलाकर एक-दूसरेके कंधों, कमरों, पैरों, हाथों, जाँघों और हँसलियोंपर चोट करने लगे; तब उनकी गदाएँ उनके अंगोंसे टकराटकराकर चकनाचूर होने लगीं ।।३७।।

इत्थं तयोः प्रहतयोर्गदयोर्नृवीरौ
क्रुद्धौ स्वमुष्टिभिरयःस्परशैरपिष्टाम् ।
शब्दस्तयोः प्रहरतोरिभयोरिवासीन्
निर्घातवज्रपरुषस्तलताडनोत्थः ॥ ३८ ॥

इस प्रकार जब गदाएँ चूर-चूर हो गयीं, तब दोनों वीर क्रोधमें भरकर अपने घूसोंसे एक-दूसरेको कुचल डालनेकी चेष्टा करने लगे। उनके घूसे ऐसी चोट करते, मानो लोहेका घन गिर रहा हो। एक-दूसरेपर खुलकर चोट करते हुए दो हाथियोंकी तरह उनके थप्पड़ों और जूंसोंका कठोर शब्द बिजलीकी कड़-कड़ाहटके समान जान पड़ता था ।।३८||

( अनुष्टुप् )
तयोरेवं प्रहरतोः समशिक्षाबलौजसोः ।
निर्विशेषमभूद् युद्धं अक्षीणजवयोर्नृप ॥ ३९ ॥

परीक्षित्! जरासन्ध और भीमसेन दोनोंकी गदा-युद्धमें कुशलता, बल और उत्साह समान थे। दोनोंकी शक्ति तनिक भी क्षीण नहीं हो रही थी। इस प्रकार लगातार प्रहार करते रहनेपर भी दोनोंमेंसे किसीकी जीत या हार न हुई ।।३९।।

एवं तयोर्महाराज युध्यतोः सप्तविंशतिः ।
दिनानि निरगंस्तत्र सुहृद्‌वन् निशि तिष्ठतोः ॥ ४० ॥

दोनों वीर रातके समयमित्रके समान रहते और दिनमें छूटकर एक-दूसरेपर प्रहार करते और लड़ते। महाराज! इस प्रकार उनके लड़ते-लड़ते सत्ताईस दिन बीत गये ।।४०।।

एकदा मातुलेयं वै प्राह राजन् वृकोदरः ।
न शक्तोऽहं जरासन्धं निर्जेतुं युधि माधव ॥ ४१ ॥

प्रिय परीक्षित्! अट्ठाईसवें दिन भीमसेनने अपने ममेरे भाई श्रीकृष्णसे कहा-‘श्रीकृष्ण! मैं युद्ध में जरासन्धको जीत नहीं सकता ||४१।।

शत्रोर्जन्ममृती विद्वान् जीवितं च जराकृतम् ।
पार्थमाप्याययन् स्वेन तेजसाचिन्तयद्धरिः ॥ ४२ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण जरासन्धके जन्म और मृत्युका रहस्य जानते थे और यह भी जानते थे कि जरा राक्षसीने जरासन्धके शरीरके दो टुकड़ोंको जोड़कर इसे जीवन-दान दिया है। इसलिये उन्होंने भीमसेनके शरीरमें अपनी शक्तिका संचार किया और जरासन्धके वधका उपाय सोचा ||४२||

सञ्चिन्त्यारिवधोपायं भीमस्यामोघदर्शनः ।
दर्शयामास विटपं पाटयन्निव संज्ञया ॥ ४३ ॥

परीक्षित्! भगवान्का ज्ञान अबाध है। अब उन्होंने उसकी मृत्युका उपाय जानकर एक वृक्षकी डालीको बीचोबीचसे चीर दिया और इशारेसे भीमसेनको दिखाया ।।४३।।

तद्‌विज्ञाय महासत्त्वो भीमः प्रहरतां वरः ।
गृहीत्वा पादयोः शत्रुं पातयामास भूतले ॥ ४४ ॥

वीरशिरोमणि एवं परम शक्तिशाली भीमसेनने भगवान् श्रीकृष्णका अभिप्राय समझ लिया और जरासन्धके पैर पकड़कर उसे धरतीपर दे मारा ।।४४।।

एकं पादं पदाक्रम्य दोर्भ्यामन्यं प्रगृह्य सः ।
गुदतः पाटयामास शाखमिव महागजः ॥ ४५ ॥

फिर उसके एक पैरको अपने पैरके नीचे दबाया और दूसरेको अपने दोनों हाथोंसे पकड़ लिया। इसके बाद भीमसेनने उसे गुदाकी ओरसे इस प्रकार चीर डाला, जैसे गजराज वृक्षकी डाली चीर डाले ।।४५।।

एकपादोरुवृषण कटिपृष्ठस्तनांसके ।
एकबाह्वक्षिभ्रूकर्णे शकले ददृशुः प्रजाः ॥ ४६ ॥

लोगोंने देखा कि जरासन्धके शरीरके दो टुकड़े हो गये हैं, और इस प्रकार उनके एक-एक पैर, जाँघ, अण्डकोश, कमर, पीठ, स्तन, कंधा, भुजा, नेत्र, भौंह और कान अलग-अलग हो गये हैं ।।४६।।

हाहाकारो महानासीत् निहते मगधेश्वरे ।
पूजयामासतुर्भीमं परिरभ्य जयाच्यतौ ॥ ४७ ॥

मगधराज जरासन्धकी मृत्यु हो जानेपर वहाँकी प्रजा बड़े जोरसे ‘हाय-हाय!’ पुकारने लगी। भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने भीमसेनका आलिंगन करके उनका सत्कारकिया ।।४७||

सहदेवं तत्तनयं भगवान्भूतभावनः ।
अभ्यषिञ्चदमेयात्मा मगधानां पतिं प्रभुः ।
मोचयामास राजन्यान् संरुद्धा मागधेन ये ॥ ४८ ॥

सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्णके स्वरूप और विचारोंको कोई समझ नहीं सकता। वास्तवमें वे ही समस्त प्राणियोंके जीवनदाता हैं। उन्होंने जरासन्धके राजसिंहासनपर उसके पुत्र सहदेवका अभिषेक कर दिया और जरासन्धने जिन राजाओंको कैदी बना रखा था, उन्हें कारागारसे मुक्त कर दिया ।।४८।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे
जरासन्ध वधो नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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