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वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 12 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 12

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
द्वादशः सर्गः (सर्ग 12)

श्रीराम आदि का अगस्त्य के आश्रम में प्रवेश, अतिथि-सत्कार तथा मुनि की ओर से उन्हें दिव्य अस्त्र-शस्त्रों की प्राप्ति

 

स प्रविश्याश्रमपदं लक्ष्मणो राघवानुजः।
अगस्त्यशिष्यमासाद्य वाक्यमेतदुवाच ह॥१॥

श्रीरामचन्द्रजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने आश्रम प्रवेश करके अगस्त्यजी के शिष्य से भेंट की और उनसे यह बात कही— ॥१॥

राजा दशरथो नाम ज्येष्ठस्तस्य सुतो बली।
रामः प्राप्तो मुनिं द्रष्टं भार्यया सह सीतया॥२॥

‘मुने! अयोध्या में जो दशरथ नाम से प्रसिद्ध राजा थे, उन्हीं के ज्येष्ठ पुत्र महाबली श्रीरामचन्द्रजी अपनी पत्नी सीता के साथ महर्षिका दर्शन करने के लिये आये हैं॥

लक्ष्मणो नाम तस्याहं भ्राता त्ववरजो हितः।
अनुकूलश्च भक्तश्च यदि ते श्रोत्रमागतः॥३॥

‘मैं उनका छोटा भाई, हितैषी और अनुकूल चलने वाला भक्त हूँ। मेरा नाम लक्ष्मण है। सम्भव है यह नाम कभी आपके कानों में पड़ा हो ॥३॥

ते वयं वनमत्युग्रं प्रविष्टाः पितृशासनात्।
द्रष्टुमिच्छामहे सर्वे भगवन्तं निवेद्यताम्॥४॥

‘हम सब लोग पिता की आज्ञा से इस अत्यन्त भयंकर वन में आये हैं और भगवान् अगस्त्य मुनि का दर्शन करना चाहते हैं। आप उनसे यह समाचार निवेदन कीजिये’॥ ४॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा लक्ष्मणस्य तपोधनः।
तथेत्युक्त्वाग्निशरणं प्रविवेश निवेदितुम्॥५॥

लक्ष्मण की वह बात सुनकर उन तपोधन ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर महिर्ष को समाचार देने के लिये अग्निशाला में प्रवेश किया॥५॥

स प्रविश्य मुनिश्रेष्ठं तपसा दुष्प्रधर्षणम्।
कृताञ्जलिरुवाचेदं रामागमनमञ्जसा॥६॥
यथोक्तं लक्ष्मणेनैव शिष्योऽगस्त्यस्य सम्मतः।

अग्निशाला में प्रवेश करके अगस्त्य के उस प्रिय शिष्य ने जो अपनी तपस्या के प्रभाव से दूसरों के लिये दुर्जय थे, उन मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य के पास जा हाथ जोड़लक्ष्मण के कथनानुसार उन्हें श्रीरामचन्द्रजी के आगमन का समाचार शीघ्रतापूर्वक यों सुनाया— ॥ ६ १/२॥

पुत्रौ दशरथस्येमौ रामो लक्ष्मण एव च॥७॥
प्रविष्टावाश्रमपदं सीतया सह भार्यया।
द्रष्टुं भवन्तमायातौ शुश्रूषार्थमरिंदमौ॥८॥
यदत्रानन्तरं तत् त्वमाज्ञापयितुमर्हसि।

‘महामुने! राजा दशरथ के ये दो पुत्र श्रीराम और लक्ष्मण आश्रम में पधारे हैं। श्रीराम अपनी धर्मपत्नी सीता के साथ हैं। वे दोनों शत्रुदमन वीर आपकी सेवा के उद्देश्यसे आपका दर्शन करने के लिये आये हैं। अब इस विषय में जो कुछ कहना या करना हो, इसके लिये आप मुझे आज्ञा दें’। ७-८ १/२॥

ततः शिष्यादुपश्रुत्य प्राप्तं रामं सलक्ष्मणम्॥९॥
वैदेहीं च महाभागामिदं वचनमब्रवीत्।

शिष्य से लक्ष्मणसहित श्रीराम और महाभागा विदेहनन्दिनी सीता के शुभागमन का समाचार सुनकर महर्षि ने इस प्रकार कहा- ॥ ९ १/२ ।।

दिष्ट्या रामश्चिरस्याद्य द्रष्टुं मां समुपागतः ॥१०॥
मनसा कांक्षितं ह्यस्य मयाप्यागमनं प्रति।
गम्यतां सत्कृतो रामः सभार्यः सहलक्ष्मणः॥
प्रवेश्यतां समीपं मे किमसौ न प्रवेशितः।

‘सौभाग्य की बात है कि आज चिरकाल के बाद श्रीरामचन्द्रजी स्वयं ही मझसे मिलने के लिये आ गये। मेरे मन में भी बहुत दिनों से यह अभिलाषा थी कि वे एक बार मेरे आश्रम पर पधारते जाओ, पत्नीसहित श्रीराम और लक्ष्मण को सत्कारपूर्वक आश्रम के भीतर मेरे समीप ले आओ। तुम अब तक उन्हें ले क्यों नहीं आये?’॥

एवमुक्तस्तु मुनिना धर्मज्ञेन महात्मना॥१२॥
अभिवाद्याब्रवीच्छिष्यस्तथेति नियताञ्जलिः।

धर्मज्ञ महात्मा अगस्त्य मुनि के ऐसा कहने पर शिष्य ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और कहा —’बहुत अच्छा अभी ले आता हूँ’॥ १२ १/२॥

तदा निष्क्रम्य सम्भ्रान्तः शिष्यो लक्ष्मणमब्रवीत्॥ १३॥
कोऽसौ रामो मुनिं द्रष्टमेतु प्रविशतु स्वयम्।

इसके बाद वह शिष्य आश्रम से निकलकर शीघ्रतापूर्वक लक्ष्मण के पास गया और बोला’श्रीरामचन्द्रजी कौन हैं? वे स्वयं आश्रम में प्रवेश करें और मुनि का दर्शन करने के लिये चलें’॥ १३ १/२॥ ततो

गत्वाऽऽश्रमपदं शिष्येण सह लक्ष्मणः॥ १४॥
दर्शयामास काकुत्स्थं सीतां च जनकात्मजाम्।

तब लक्ष्मण ने शिष्य के साथ आश्रम के द्वार पर जाकर उसे श्रीरामचन्द्रजी तथा जनककिशोरी श्रीसीता का दर्शन कराया॥ १४ १/२॥

तं शिष्यः प्रश्रितं वाक्यमगस्त्यवचनं ब्रुवन्॥ १५॥
प्रावेशयद् यथान्यायं सत्कारार्ह सुसत्कृतम्।

शिष्य ने बड़ी विनय के साथ महर्षि अगस्त्य की कही हुई बात वहाँ दुहरायी और जो सत्कार के योग्य थे, उन श्रीराम का यथोचित रीति से भलीभाँति सत्कार करके वह उन्हें आश्रम में ले गया॥ १५ १/२॥

प्रविवेश ततो रामः सीतया सह लक्ष्मणः॥१६॥
प्रशान्तहरिणाकीर्णमाश्रमं ावलोकयन्।
स तत्र ब्रह्मणः स्थानमग्नेः स्थानं तथैव च॥ १७॥

उस समय श्रीराम ने लक्ष्मण और सीता के साथ आश्रम में प्रवेश किया। वह आश्रम शान्तभाव से रहने वाले हरिणों से भरा हुआ था। आश्रम की शोभा देखते हुए उन्होंने वहाँ ब्रह्माजी का स्थान और अग्निदेव का स्थान देखा॥ १६-१७॥

विष्णोः स्थानं महेन्द्रस्य स्थानं चैव विवस्वतः।
सोमस्थानं भगस्थानं स्थानं कौबेरमेव च ॥१८॥
धातुर्विधातुः स्थानं च वायोः स्थानं तथैव च।
स्थानं च पाशहस्तस्य वरुणस्य महात्मनः॥१९॥
स्थानं तथैव गायत्र्या वसूनां स्थानमेव च।
स्थानं च नागराजस्य गरुडस्थानमेव च ॥२०॥
कार्तिकेयस्य च स्थानं धर्मस्थानं च पश्यति।

फिर क्रमशः भगवान् विष्णु, महेन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, भग, कुबेर, धाता, विधाता, वायु, पाशधारी महात्मा वरुण, गायत्री, वसु, नागराज अनन्त, गरुड़, कार्तिकेय तथा धर्मराज के पृथक्-पृथक् स्थान का निरीक्षण किया॥ १८-२० १/२॥

ततः शिष्यैः परिवृतो मुनिरप्यभिनिष्पतत्॥२१॥
तं ददर्शाग्रतो रामो मुनीनां दीप्ततेजसाम्।
अब्रवीद् वचनं वीरो लक्ष्मणं लक्ष्मिवर्धनम्॥ २२॥

इतने ही में मुनिवर अगस्त्य भी शिष्यों से घिरे हुए अग्निशाला से बाहर निकले। वीर श्रीराम ने मुनियों के आगे-आगे आते हुए उद्दीप्त तेजस्वी अगस्त्यजी का दर्शन किया और अपनी शोभा का विस्तार करने वाले लक्ष्मण से इस प्रकार कहा- ॥ २१-२२॥

बहिर्लक्ष्मण निष्क्रामत्यगस्त्यो भगवानृषिः।
औदार्येणावगच्छामि निधानं तपसामिमम्॥२३॥

‘लक्ष्मण! भगवान् अगस्त्य मुनि आश्रम से बाहर निकल रहे हैं। ये तपस्या के निधि हैं। इनके विशिष्ट तेज के आधिक्य से ही मुझे पता चलता है कि ये अगस्त्यजी हैं’ ॥ २३॥

एवमुक्त्वा महाबाहुरगस्त्यं सूर्यवर्चसम्।
जग्राहापततस्तस्य पादौ च रघुनन्दनः॥२४॥

सूर्यतुल्य तेजस्वी महर्षि अगस्त्य के विषय में ऐसा कहकर महाबाहु रघुनन्दन ने सामने से आते हुए उन मुनीश्वर के दोनों चरण पकड़ लिये॥ २४॥

अभिवाद्य तु धर्मात्मा तस्थौ रामः कृताञ्जलिः।
सीतया सह वैदेह्या तदा रामः सलक्ष्मणः॥२५॥

जिनमें योगियों का मन रमण करता है अथवा जो भक्तों को आनन्द प्रदान करने वाले हैं, वे धर्मात्मा श्रीराम उस समय विदेहकुमारी सीता और लक्ष्मण के साथ महर्षि के चरणों में प्रणाम करके हाथ जोड़कर खडे हो गये॥ २५॥

प्रतिगृह्य च काकुत्स्थमर्चयित्वाऽऽसनोदकैः।
कुशलप्रश्नमुक्त्वा च आस्यतामिति सोऽब्रवीत्॥ २६॥

महर्षि ने भगवान् श्रीराम को हृदय से लगाया और आसन तथा जल (पाद्य, अर्घ्य आदि) देकर उनका आतिथ्य-सत्कार किया। फिर कुशल-समाचार पूछकर उन्हें बैठने को कहा॥ २६॥

अग्निं हुत्वा प्रदायार्घ्यमतिथीन् प्रतिपूज्य च।
वानप्रस्थेन धर्मेण स तेषां भोजनं ददौ ॥ २७॥

अगस्त्यजी ने पहले अग्नि में आहुति दी, फिर वानप्रस्थधर्म के अनुसार अर्घ्य दे अतिथियों का भलीभाँति पूजन करके उनके लिये भोजन दिया। २७॥

प्रथमं चोपविश्याथ धर्मज्ञो मुनिपुंगवः।
उवाच राममासीनं प्राञ्जलिं धर्मकोविदम्॥२८॥
अग्निं हुत्वा प्रदायार्घ्यमतिथिं प्रतिपूजयेत्।
अन्यथा खलु काकुत्स्थ तपस्वी समुदाचरन्।
दुःसाक्षीव परे लोके स्वानि मांसानि भक्षयेत्॥ २९॥

धर्म के ज्ञाता मुनिवर अगस्त्यजी पहले स्वयं बैठे, फिर धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजी हाथ जोड़कर आसन पर विराजमान हुए। इसके बाद महर्षि ने उनसे कहा —’काकुत्स्थ! वानप्रस्थ को चाहिये कि वह पहले अग्नि को आहुति दे। तदनन्तर अर्घ्य देकर अतिथि का पूजन करे। जो तपस्वी इसके विपरीत आचरण करता है, उसे झूठी गवाही देने वाले की भाँति परलोक में अपने ही शरीर का मांस खाना पड़ता है॥ २८-२९॥

राजा सर्वस्य लोकस्य धर्मचारी महारथः।
पूजनीयश्च मान्यश्च भवान् प्राप्तः प्रियातिथिः॥ ३०॥

‘आप सम्पूर्ण लोक के राजा, महारथी और धर्म का आचरण करने वाले हैं तथा मेरे प्रिय अतिथि के रूप में इस आश्रम पर पधारे हैं, अतएव आप हमलोगों के माननीय एवं पूजनीय हैं’॥ ३०॥

एवमुक्त्वा फलैर्मूलैः पुष्पैश्चान्यैश्च राघवम्।
पूजयित्वा यथाकामं ततोऽगस्त्यस्तमब्रवीत्॥ ३१॥

ऐसा कहकर महर्षि अगस्त्य ने फल, मूल, फूल तथा अन्य उपकरणों से इच्छानुसार भगवान् श्रीराम का पूजन किया। तत्पश्चात् अगस्त्यजी उनसे इस प्रकार बोले- ॥ ३१॥

इदं दिव्यं महच्चापं हेमवज्रविभूषितम्।
वैष्णवं पुरुषव्याघ्र निर्मितं विश्वकर्मणा॥३२॥
अमोघः सूर्यसंकाशो ब्रह्मदत्तः शरोत्तमः।
दत्तौ मम महेन्द्रेण तूणी चाक्षय्यसायकौ ॥३३॥
सम्पूर्णौ निशितैर्बाणैर्व्वलद्भिरिव पावकैः।
महाराजतकोशोऽयमसिर्हेमविभूषितः॥ ३४॥

‘पुरुषसिंह ! यह महान् दिव्य धनुष विश्वकर्माजी ने बनाया है। इसमें सुवर्ण और हीरे जड़े हैं। यह भगवान् विष्णु का दिया हुआ है तथा यह जो सूर्य के समान देदीप्यमान अमोघ उत्तम बाण है, ब्रह्माजी का दिया हुआ है। इनके सिवा इन्द्र ने ये दो तरकस दिये हैं, जो तीखे तथा प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी बाणों से सदा भरे रहते हैं। कभी खाली नहीं होते। साथ ही यह तलवार भी है जिसकी मूठ में सोना जड़ा हुआ है। इसकी म्यान भी सोने की ही बनी हुई है। ३२-३४॥

अनेन धनुषा राम हत्वा संख्ये महासुरान्।
आजहार श्रियं दीप्तां पुरा विष्णुर्दिवौकसाम्॥३५॥
तद्धनुस्तौ च तूणी च शरं खड्गं च मानद।
जयाय प्रतिगृह्णीष्व वज्र वज्रधरो यथा॥ ३६॥

‘श्रीराम! पूर्वकाल में भगवान् विष्णु ने इसी धनुष से युद्ध में बड़े-बड़े असुरों का संहार करके देवताओं की उद्दीप्त लक्ष्मी को उनके अधिकार से लौटाया था। मानद! आप यह धनुष, ये दोनों तरकस, ये बाण और यह तलवार (राक्षसों पर) विजय पाने के लिये ग्रहण कीजिये। ठीक उसी तरह, जैसे वज्रधारी इन्द्र वज्र ग्रहण करते हैं’।। ३५-३६॥

एवमुक्त्वा महातेजाः समस्तं तद्ररायुधम्।
दत्त्वा रामाय भगवानगस्त्यः पुनरब्रवीत्॥३७॥

ऐसा कहकर महान् तेजस्वी अगस्त्य ने वे सभी श्रेष्ठ आयुध श्रीरामचन्द्रजी को सौंप दिये। तत्पश्चात् वे फिर बोले॥३७॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे द्वादशः सर्गः॥१२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१२॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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