RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 12 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 12

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
द्वादशः सर्गः (12)

(सीता के मरण की आशंका से हनुमान्जी का शिथिल होना, फिर उत्साह का आश्रय ले उनकी खोज करना और कहीं भी पता न लगने से पुनः उनका चिन्तित होना)

स तस्य मध्ये भवनस्य संस्थितो लतागृहांश्चित्रगृहान् निशागृहान्।
जगाम सीतां प्रतिदर्शनोत्सुको न चैव तां पश्यति चारुदर्शनाम्॥१॥

उस राजभवन के भीतर स्थित हुए हनुमान् जी सीताजी के दर्शन के लिये उत्सुक हो क्रमशः लतामण्डपों में, चित्रशालाओं में तथा रात्रिकालिक विश्रामगृहों में गये; परंतु वहाँ भी उन्हें परम सुन्दरी सीता का दर्शन नहीं हुआ॥१॥

स चिन्तयामास ततो महाकपिः प्रियामपश्यन् रघुनन्दनस्य ताम्।
ध्रुवं न सीता ध्रियते यथा न मे विचिन्वतो दर्शनमेति मैथिली॥२॥

रघुनन्दन श्रीराम की प्रियतमा सीता जब वहाँ भी दिखायी न दी, तब वे महाकपि हनुमान् इस प्रकार चिन्ता करने लगे- ‘निश्चय ही अब मिथिलेशकुमारी सीता जीवित नहीं हैं; इसीलिये बहुत खोजने पर भी वे मेरे दृष्टिपथ में नहीं आ रही हैं॥२॥

सा राक्षसानां प्रवरेण जानकी स्वशीलसंरक्षणतत्परा सती।
अनेन नूनं प्रति दुष्टकर्मणा हता भवेदार्यपथे परे स्थिता॥३॥

‘सती-साध्वी सीता उत्तम आर्यमार्ग पर स्थित रहने वाली थीं। वे अपने शील और सदाचार की रक्षा में तत्पर रही हैं; इसलिये निश्चय ही इस दुराचारी राक्षसराज ने उन्हें मार डाला होगा॥३॥

विरूपरूपा विकृता विवर्चसो महानना दीर्घविरूपदर्शनाः।
समीक्ष्य ता राक्षसराजयोषितो भयाद् विनष्टा जनकेश्वरात्मजा॥४॥

‘राक्षसराज रावण के यहाँ जो दास्यकर्म करने वाली राक्षसियाँ हैं, उनके रूप बड़े बेडौल हैं। वे बड़ी विकट  और विकराल हैं। उनकी कान्ति भी भयंकर है। उनके मुँह विशाल और आँखें भी बड़ी-बड़ी एवं भयानक हैं। उन सबको देखकर जनकराजनन्दिनी ने भय के मारे प्राण त्याग दिये होंगे॥ ४॥

सीतामदृष्ट्वा ह्यनवाप्य पौरुषं विहृत्य कालं सह वानरैश्चिरम्।
न मेऽस्ति सुग्रीवसमीपगा गतिः सुतीक्ष्णदण्डो बलवांश्च वानरः॥५॥

‘सीता का दर्शन न होने से मुझे अपने पुरुषार्थ का फल नहीं प्राप्त हो सका। इधर वानरों के साथ सुदीर्घ काल तक इधर-उधर भ्रमण करके मैंने लौटने की अवधि भी बिता दी है; अतः अब मेरा सुग्रीव के पास जाने का भी मार्ग बंद हो गया; क्योंकि वह वानर बड़ा बलवान् और अत्यन्त कठोर दण्ड देने वाला है॥ ५॥

दृष्टमन्तःपुरं सर्वं दृष्टा रावणयोषितः।
न सीता दृश्यते साध्वी वृथा जातो मम श्रमः॥

‘मैंने रावण का सारा अन्तःपुर छान डाला, एक एक करके रावण की समस्त स्त्रियों को भी देख लिया; किंतु अभी तक साध्वी सीता का दर्शन नहीं हुआ; अतः मेरा समुद्रलङ्घन का सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया॥६॥

किं नु मां वानराः सर्वे गतं वक्ष्यन्ति संगताः।
गत्वा तत्र त्वया वीर किं कृतं तद् वदस्व नः॥७॥

‘जब मैं लौटकर जाऊँगा, तब सारे वानर मिलकर मुझसे क्या कहेंगे; वे पूछेगे, वीर! वहाँ जाकर तुमने क्या किया है—यह मुझे बताओ॥७॥

अदृष्ट्वा किं प्रवक्ष्यामि तामहं जनकात्मजाम्।
ध्रुवं प्रायमुपासिष्ये कालस्य व्यतिवर्तने॥८॥

‘किंतु जनकनन्दिनी सीता को न देखकर मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगा। सुग्रीव के निश्चित किये हुए समय का उल्लङ्घन कर देने पर अब मैं निश्चय ही आमरण उपवास करूँगा॥ ८॥

किं वा वक्ष्यति वृद्धश्च जाम्बवानंगदश्च सः।
गतं पारं समुद्रस्य वानराश्च समागताः॥९॥

बड़े-बूढ़े जाम्बवान् और युवराज अंगद मुझसे क्या कहेंगे? समुद्र के पार जाने पर अन्य वानर भी जब मुझसे मिलेंगे, तब वे क्या कहेंगे?’॥९॥

अनिर्वेदः श्रियो मूलमनिर्वेदः परं सुखम्।
भूयस्तत्र विचेष्यामि न यत्र विचयः कृतः॥१०॥

(इस प्रकार थोड़ी देर तक हताश-से होकर वे फिर सोचने लगे-) ‘हताश न होकर उत्साह को बनाये रखना ही सम्पत्ति का मूल कारण है। उत्साह ही परम सुख का हेतु है; अतः मैं पुनः उन स्थानों में सीता की खोज करूँगा, जहाँ अबतक अनुसन्धान नहीं किया गया था॥ १०॥

अनिर्वेदो हि सततं सर्वार्थेषु प्रवर्तकः।
करोति सफलं जन्तोः कर्म यच्च करोति सः॥११॥

‘उत्साह ही प्राणियों को सर्वदा सब प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त करता है और वही उन्हें वे जो कुछ करते हैं उस कार्य में सफलता प्रदान करता है॥ ११॥

तस्मादनिर्वेदकरं यत्नं चेष्टेऽहमुत्तमम्।
अदृष्टांश्च विचेष्यामि देशान् रावणपालितान्॥१२॥

‘इसलिये अब मैं और भी उत्तम एवं उत्साहपूर्वक प्रयत्न के लिये चेष्टा करूँगा। रावण के द्वारा सुरक्षित जिन स्थानों को अब तक नहीं देखा था, उनमें भी पता लगाऊँगा॥ १२॥

आपानशाला विचितास्तथा पुष्पगृहाणि च।
चित्रशालाश्च विचिता भूयः क्रीडागृहाणि च॥१३॥
निष्कुटान्तररथ्याश्च विमानानि च सर्वशः।
इति संचिन्त्य भूयोऽपि विचेतुमुपचक्रमे ॥१४॥

‘आपानशाला, पुष्पगृह, चित्रशाला, क्रीड़ागृह, गृहोद्यान की गलियाँ और पुष्पक आदि विमान-इन सबका तो मैंने चप्पा-चप्पा देख डाला (अब अन्यत्र खोज करूँगा)।’ यह सोचकर उन्होंने पुनः खोजना आरम्भ किया॥ १३-१४॥

भूमीगृहांश्चैत्यगृहान् गृहातिगृहकानपि।
उत्पतन् निपतंश्चापि तिष्ठन् गच्छन् पुनः क्वचित्॥१५॥

वे भूमि के भीतर बने हुए घरों (तहखानों)-में, चौराहों पर बने हुए मण्डपों में तथा घरों को लाँघकर उनसे थोड़ी ही दूर पर बने हुए विलास-भवनों में सीता की खोज करने लगे। वे किसी घर के ऊपर चढ़ जाते, किसी से नीचे कूद पड़ते, कहीं ठहर जाते और किसी को चलते-चलते ही देख लेते थे॥ १५ ॥

अपवृण्वंश्च द्वाराणि कपाटान्यवघट्टयन्।
प्रविशन् निष्पतंश्चापि प्रपतन्नुत्पतन्निव॥१६॥

घरों के दरवाजों को खोल देते, कहीं किंवाड़ बंदकर देते, किसी के भीतर घुसकर देखते और फिर निकल आते थे। वे नीचे-कूदते और ऊपर उछलते हुए-से सर्वत्र खोज करने लगे॥ १६ ॥

सर्वमप्यवकाशं स विचचार महाकपिः।
चतुरंगुलमात्रोऽपि नावकाशः स विद्यते।
रावणान्तःपुरे तस्मिन् यं कपिर्न जगाम सः॥१७॥

उन महाकपि ने वहाँ के सभी स्थानों में विचरण किया। रावण के अन्तःपुर में कोई चार अंगुल का भी ऐसा स्थान नहीं रह गया, जहाँ कपिवर हनुमान जी न पहुँचे हों॥

प्राकारान्तरवीथ्यश्च वेदिकाश्चैत्यसंश्रयाः।
श्वभ्राश्च पुष्करिण्यश्च सर्वं तेनावलोकितम्॥१८॥

उन्होंने परकोटे के भीतर की गलियाँ, चौराहे के वृक्षों के नीचे बनी हुई वेदियाँ, गड्डे और पोखरियाँ सबको छान डाला॥ १८ ॥

राक्षस्यो विविधाकारा विरूपा विकृतास्तथा।
दृष्टा हनुमता तत्र न तु सा जनकात्मजा॥१९॥

हनुमान् जी ने जगह-जगह नाना प्रकार के आकार वाली, कुरूप और विकट राक्षसियाँ देखीं; किंतु वहाँ उन्हें जानकीजी का दर्शन नहीं हुआ॥ १९ ॥

रूपेणाप्रतिमा लोके परा विद्याधरस्त्रियः।
दृष्टा हनुमता तत्र न तु राघवनन्दिनी॥२०॥

संसार में जिनके रूप-सौन्दर्य की कहीं तुलना नहीं थी ऐसी बहुत-सी विद्याधरियाँ भी हनुमान जी की दृष्टिमें आयीं; परंतु वहाँ उन्हें श्रीरघुनाथजी को आनन्द प्रदान करने वाली सीता नहीं दिखायी दीं॥ २० ॥

नागकन्या वरारोहाः पूर्णचन्द्रनिभाननाः।
दृष्टा हनुमता तत्र न तु सा जनकात्मजा॥२१॥

हनुमान जी ने सुन्दर नितम्ब और पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाली बहुत-सी नागकन्याएँ भी वहाँ देखीं; किंतु जनककिशोरी का उन्हें दर्शन नहीं हुआ॥ २१॥

प्रमथ्य राक्षसेन्द्रेण नागकन्या बलाद्धृताः।
दृष्टा हनुमता तत्र न सा जनकनन्दिनी॥२२॥

राक्षसराज के द्वारा नागसेना को मथकर बलात् हरकर लायी हुई नागकन्याओं को तो पवनकुमार ने वहाँ देखा; किंतु जानकीजी उन्हें दृष्टिगोचर नहीं हुईं। २२॥

सोऽपश्यंस्तां महाबाहुः पश्यंश्चान्या वरस्त्रियः।
विषसाद महाबाहुर्हनूमान् मारुतात्मजः॥ २३॥

महाबाहु पवनकुमार हनुमान् को दूसरी बहुत-सी सुन्दरियाँ दिखायी दी; परंतु सीताजी उनके देखने में नहीं आयीं। इसलिये वे बहुत दुःखी हो गये॥ २३॥

उद्योगं वानरेन्द्राणां प्लवनं सागरस्य च।
व्यर्थं वीक्ष्यानिलसुतश्चिन्तां पुनरुपागतः॥२४॥

उन वानरशिरोमणि वीरों के उद्योग और अपने द्वारा किये गये समुद्रलंघन को व्यर्थ हुआ देखकर पवनपुत्र हनुमान् वहाँ पुनः बड़ी भारी चिन्ता में पड़ गये।

अवतीर्य विमानाच्च हनूमान् मारुतात्मजः।
चिन्तामुपजगामाथ शोकोपहतचेतनः॥२५॥

उस समय वायुनन्दन हनुमान् विमान से नीचे उतर आये और बड़ी चिन्ता करने लगे। शोक से उनकी चेतनाशक्ति शिथिल हो गयी॥ २५॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे द्वादशः सर्गः॥१२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ। १२॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 12 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 12

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

उत्कृष्ट व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! आपका आर्थिक सहयोग हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण में सहयोगी होगा। RamCharit.in व SatyaSanatan.com धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: