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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 47 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 47

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
सप्तचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 47)

सीता का रावण को अपना और पति का परिचय देकर वन में आने का कारण बताना, रावण का उन्हें अपनी पटरानी बनाने की इच्छा प्रकट करना और सीता का उसे फटकारना

 

रावणेन तु वैदेही तदा पृष्टा जिहीर्षुणा।
परिव्राजकरूपेण शशंसात्मानमात्मना॥१॥

सीता को हरने की इच्छा से परिव्राजक (संन्यासी)का रूप धारण करके आये हुए रावण ने उस समय जब विदेहराजकुमारी से इस प्रकार पूछा, तब उन्होंने स्वयं ही अपना परिचय दिया॥१॥

ब्राह्मणश्चातिथिश्चैष अनुक्तो हि शपेत माम्।
इति ध्यात्वा मुहूर्तं तु सीता वचनमब्रवीत्॥२॥

वे दो घड़ी तक इस विचार में पड़ी रहीं कि ये ब्राह्मण और अतिथि हैं, यदि इनकी बात का उत्तर न दिया जाय तो ये मुझे शाप दे देंगे। यह सोचकर सीता ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया— ॥२॥

दुहिता जनकस्याहं मैथिलस्य महात्मनः।
सीता नाम्नास्मि भद्रं ते रामस्य महिषी प्रिया॥

‘ब्रह्मन्! आपका भला हो। मैं मिथिलानरेश महात्मा जनक की पुत्री और अवधनरेश श्रीरामचन्द्रजी की प्यारी रानी हूँ। मेरा नाम सीता है। ३॥

उषित्वा द्वादश समा इक्ष्वाकूणां निवेशने।
भुजाना मानुषान् भोगान् सर्वकामसमृद्धिनी॥ ४॥

‘विवाह के बाद बारह वर्षों तक इक्ष्वाकुवंशी महाराज दशरथ के महल में रहकर मैंने अपने पति के साथ सभी मानवोचित भोग भोगे हैं। मैं वहाँ सदा मनोवाञ्छित सुख-सुविधाओं से सम्पन्न रही हूँ॥ ४॥

तत्र त्रयोदशे वर्षे राजाऽमन्त्रयत प्रभुः।।
अभिषेचयितं रामं समेतो राजमन्त्रिभिः॥५॥

‘तेरहवें वर्ष के प्रारम्भ में सामर्थ्यशाली महाराज दशरथ ने राजमन्त्रियों से मिलकर सलाह की और श्रीरामचन्द्रजी का युवराजपद पर अभिषेक करने का निश्चय किया॥५॥

तस्मिन् सम्भ्रियमाणे तु राघवस्याभिषेचने।
कैकेयी नाम भर्तारं ममार्या याचते वरम्॥६॥

‘जब श्रीरघुनाथजी के राज्याभिषेक की सामग्री जुटायी जाने लगी, उस समय मेरी सास कैकेयी ने अपने पति से वर माँगा॥ ६॥

परिगृह्य तु कैकेयी श्वशुरं सुकृतेन मे।
मम प्रव्राजनं भर्तुर्भरतस्याभिषेचनम्॥७॥
द्वावयाचत भर्तारं सत्यसंधं नृपोत्तमम्।

‘कैकेयी ने मेरे श्वशुर को पुण्य की शपथ दिलाकर वचनबद्ध कर लिया, फिर अपने सत्यप्रतिज्ञ पति उन राजशिरोमणि से दो वर माँगे—मेरे पति के लिये वनवास और भरत के लिये राज्याभिषेक॥ ७ १/२॥

नाद्य भोक्ष्ये न च स्वप्स्ये न पास्ये न कदाचन॥ ८॥
एष मे जीवितस्यान्तो रामो यदभिषिच्यते।

‘कैकेयी हठपूर्वक कहने लगीं यदि आज श्रीराम का अभिषेक किया गया तो मैं न तो खाऊँगी, न पीऊँगी और न कभी सोऊँगी ही। यही मेरे जीवन का अन्त होगा। ८ १/२॥

इति ब्रुवाणां कैकेयीं श्वशुरो मे स पार्थिवः॥
अयाचतार्थैरन्वथैर्न च याच्यां चकार सा।

‘ऐसी बात कहती हुई कैकेयी से मेरे श्वशुर महाराज दशरथ ने यह याचना की कि ‘तुम सब प्रकार की उत्तम वस्तुएँ ले लो; किंतु श्रीराम के अभिषेक में विघ्न न डालो।’ किंतु कैकेयी ने  उनकी वह याचना सफल नहीं की।

मम भर्ता महातेजा वयसा पञ्चविंशकः॥१०॥
अष्टादश हि वर्षाणि मम जन्मनि गण्यते।।

‘उस समय मेरे महातेजस्वी पति की अवस्था पचीस साल से ऊपर की थी और मेरे जन्मकाल से लेकर वनगमन काल तक मेरी अवस्था वर्षगणना के अनुसार अठारह साल की हो गयी थी॥ १० ॥

रामेति प्रथितो लोके सत्यवान् शीलवान् शुचिः॥ ११॥
विशालाक्षो महाबाहुः सर्वभूतहिते रतः।

‘श्रीराम जगत् में सत्यवादी, सुशील और पवित्र रूप से विख्यात हैं। उनके नेत्र बड़े-बड़े और भुजाएँ विशाल हैं। वे समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहते हैं।

कामार्तश्च महाराजः पिता दशरथः स्वयम्॥ १२॥
कैकेय्याः प्रियकामार्थं तं रामं नाभ्यषेचयत्।

“उनके पिता महाराज दशरथ ने स्वयं काम पीड़ित होने के कारण कैकेयी का प्रिय करने की इच्छा से श्रीराम का अभिषेक नहीं किया॥१२ १/२॥

अभिषेकाय तु पितुः समीपं राममागतम्॥१३॥
कैकेयी मम भर्तारमित्युवाच द्रुतं वचः।

‘श्रीरामचन्द्रजी जब अभिषेक के लिये पिता के समीप आये, तब कैकेयी ने मेरे उन पतिदेव से तुरंत यह बात कही॥ १३ १/२॥

तव पित्रा समाज्ञप्तं ममेदं शृणु राघव॥१४॥
भरताय प्रदातव्यमिदं राज्यमकण्टकम्।
त्वया तु खलु वस्तव्यं नव वर्षाणि पञ्च च॥ १५॥
वने प्रव्रज काकुत्स्थ पितरं मोचयानृतात् ।

‘रघुनन्दन! तुम्हारे पिता ने जो आज्ञा दी है, इसे मेरे मुँह से सुनो। यह निष्कण्टक राज्य भरत को दिया जायगा, तुम्हें तो चौदह वर्षों तक वन में ही निवास करना होगा। काकुत्स्थ! तुम वन को जाओ और पिता को असत्य के बन्धन से छुड़ाओ॥१४-१५ १/२॥

तथेत्युवाच तां रामः कैकेयीमकुतोभयः॥१६॥
चकार तद्वचः श्रुत्वा भर्ता मम दृढव्रतः।

‘किसी से भी भय न मानने वाले श्रीराम ने कैकेयी की वह बात सुनकर कहा—’बहुत अच्छा’। उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया। मेरे स्वामी दृढ़तापूर्वक अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने वाले हैं॥ १६ १/२॥

दद्यान्न प्रतिगृह्णीयात् सत्यं ब्रूयान्न चानृतम्॥ १७॥
एतद् ब्राह्मण रामस्य व्रतं धृतमनुत्तमम्।

‘श्रीराम केवल देते हैं, किसी से कुछ लेते नहीं। वे सदा सत्य बोलते हैं, झूठ नहीं। ब्राह्मण! यह श्रीरामचन्द्रजी का सर्वोत्तम व्रत है, जिसे उन्होंने धारण कर रखा है॥ १७ १/२॥

तस्य भ्राता तु वैमात्रो लक्ष्मणो नाम वीर्यवान्॥ १८॥
रामस्य पुरुषव्याघ्रः सहायः समरेऽरिहा ।
स भ्राता लक्ष्मणो नाम ब्रह्मचारी दृढव्रतः॥१९॥

‘श्रीराम के सौतेले भाई लक्ष्मण बड़े पराक्रमी हैं। समरभूमि में शत्रुओं का संहार करने वाले पुरुषसिंह लक्ष्मण श्रीराम के सहायक हैं, बन्धु हैं, ब्रह्मचारी और उत्तम व्रत का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाले हैं। १८-१९॥

अन्वगच्छद् धनुष्पाणिः प्रव्रजन्तं मया सह।
जटी तापसरूपेण मया सह सहानुजः॥२०॥
प्रविष्टो दण्डकारण्यं धर्मनित्यो दृढव्रतः।

‘श्रीरघुनाथजी मेरे साथ जब वन में आने लगे, तब लक्ष्मण भी हाथ में धनुष लेकर उनके पीछे हो लिये। इस प्रकार मेरे और अपने छोटे भाई के साथ श्रीराम इस दण्डकारण्य में आये हैं। वे दृढ़प्रतिज्ञ तथा नित्यनिरन्तर धर्म में तत्पर रहने वाले हैं और सिरपर जटा धारण किये तपस्वी के वेश में यहाँ रहते हैं॥ २० १/२ ॥

ते वयं प्रच्युता राज्यात् कैकेय्यास्तु कृते त्रयः॥ २१॥
विचराम द्विजश्रेष्ठ वनं गम्भीरमोजसा।
समाश्वस मुहूर्तं तु शक्यं वस्तुमिह त्वया॥ २२॥
आगमिष्यति मे भर्ता वन्यमादाय पुष्कलम्।

‘द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार हम तीनों कैकेयी के कारण राज्य से वञ्चित हो इस गम्भीर वन में अपने ही बल के भरोसे विचरते हैं। आप यहाँ ठहर सकें तो दो घड़ी विश्राम करें। अभी मेरे स्वामी प्रचुरमात्रा में जंगली फल-मूल लेकर आते होंगे॥ २१-२२ १/२॥

रुरून् गोधान् वराहांश्च हत्वाऽऽदायामिषं बहु॥ २३॥
स त्वं नाम च गोत्रं च कुलमाचक्ष्व तत्त्वतः।
एकश्च दण्डकारण्ये किमर्थं चरसि द्विज॥ २४॥

‘रुरु, गोह और जंगली सूअर आदि हिंसक पशुओं का वध करके तपस्वी जनों के उपभोग में आने योग्य बहुत-सा फल-मूल लेकर वे अभी आयँगे (उस समय आपका विशेष सत्कार होगा)। ब्रह्मन् ! । अब आप भी अपने नाम-गोत्र और कुल का ठीक ठीक परिचय दीजिये। आप अकेले इस दण्डकारण्य में किसलिये विचरते हैं!’ ॥ २३-२४ ॥

एवं ब्रुवत्यां सीतायां रामपत्न्यां महाबलः।
प्रत्युवाचोत्तरं तीव्र रावणो राक्षसाधिपः॥ २५॥

श्रीरामपत्नी सीता के इस प्रकार पूछने पर महाबली राक्षसराज रावण ने अत्यन्त कठोर शब्दों में उत्तर दिया

येन वित्रासिता लोकाः सदेवासुरमानुषाः।
अहं स रावणो नाम सीते रक्षोगणेश्वरः॥२६॥

‘सीते! जिसके नाम से देवता, असुर और मनुष्योंसहित तीनों लोक थर्रा उठते हैं, मैं वही राक्षसों का राजा रावण हूँ॥ २६॥

त्वां तु काञ्चनवर्णाभां दृष्ट्वा कौशेयवासिनीम्।
रतिं स्वकेषु दारेषु नाधिगच्छाम्यनिन्दिते॥ २७॥

‘अनिन्द्यसुन्दरि ! तुम्हारे अङ्गों की कान्ति सुवर्ण के समान है, जिनपर रेशमी साड़ी शोभा पा रही है। तुम्हें देखकर अब मेरा मन अपनी स्त्रियों की ओर नहीं जाता है।॥ २७॥

बह्वीनामुत्तमस्त्रीणामाहृतानामितस्ततः।
सर्वासामेव भद्रं ते ममाग्रमहिषी भव॥२८॥

‘मैं इधर-उधर से बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियों को हर लाया हूँ। उन सबमें तुम मेरी पटरानी बनो। तुम्हारा भला हो॥ २८॥

लङ्का नाम समुद्रस्य मध्ये मम महापुरी।
सागरेण परिक्षिप्ता निविष्टा गिरिमूर्धनि॥२९॥

‘मेरी राजधानी का नाम लङ्का है। वह महापुरी समुद्र के बीच में एक पर्वत के शिखर पर बसी हुई है। समुद्र ने उसे चारों ओर से घेर रखा है॥२९॥

तत्र सीते मया सार्धं वनेषु विचरिष्यसि।
न चास्य वनवासस्य स्पृहयिष्यसि भामिनि॥ ३०॥

‘सीते! वहाँ रहकर तुम मेरे साथ नाना प्रकार के वनों में विचरण करोगी। भामिनि ! फिर तुम्हारे मन में इस वनवास की इच्छा कभी नहीं होगी॥ ३० ॥

पञ्च दास्यः सहस्राणि सर्वाभरणभूषिताः।
सीते परिचरिष्यन्ति भार्या भवसि मे यदि॥३१॥

‘सीते! यदि तुम मेरी भार्या हो जाओगी तो सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित पाँच हजार दासियाँ सदा तुम्हारी सेवा किया करेंगी’ ॥ ३१ ॥

रावणेनैवमुक्ता तु कुपिता जनकात्मजा।
प्रत्युवाचानवद्याङ्गी तमनादृत्य राक्षसम्॥३२॥

रावण के ऐसा कहने पर निर्दोष अङ्गोंवाली जनकनन्दिनी सीता कुपित हो उठीं और राक्षस का तिरस्कार करके उसे यों उत्तर देने लगीं- ॥३२॥

महागिरिमिवाकम्प्यं महेन्द्रसदृशं पतिम्।
महोदधिमिवाक्षोभ्यमहं राममनुव्रता॥३३॥

‘मेरे पतिदेव भगवान् श्रीराम महान् पर्वत के समान अविचल हैं, इन्द्र के तुल्य पराक्रमी हैं और महासागर के समान प्रशान्त हैं, उन्हें कोई क्षुब्ध नहीं कर सकता। मैं तन-मन-प्राण से उन्हीं का अनुसरण करने वाली तथा उन्हीं की अनुरागिणी हूँ॥ ३३॥

सर्वलक्षणसम्पन्नं न्यग्रोधपरिमण्डलम्।
सत्यसंधं महाभागमहं राममनूव्रता॥३४॥

‘श्रीरामचन्द्रजी समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न, वटवृक्ष की भाँति सबको अपनी छाया में आश्रय देने वाले, सत्यप्रतिज्ञ और महान् सौभाग्यशाली हैं। मैं उन्हीं की अनन्य अनुरागिणी हूँ॥ ३४॥

महाबाहुं महोरस्कं सिंहविक्रान्तगामिनम्।
नृसिंहं सिंहसंकाशमहं राममनुव्रता॥ ३५॥

‘उनकी भुजाएँ बड़ी-बड़ी और छाती चौड़ी है। वे सिंह के समान पाँव बढ़ाते हुए बड़े गर्व के साथ चलते हैं और सिंह के ही समान पराक्रमी हैं। मैं उन पुरुषसिंह श्रीराम में ही अनन्य भक्ति रखने वाली हूँ। ३५॥

पूर्णचन्द्राननं रामं राजवत्सं जितेन्द्रियम्।
पृथुकीर्तिं महाबाहुमहं राममनुव्रता॥३६॥

‘राजकुमार श्रीराम का मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर है। वे जितेन्द्रिय हैं और उनका यश महान् है। उन महाबाहु श्रीराम में ही दृढ़तापूर्वक मेरा मन लगा हुआ है॥ ३६॥

त्वं पुनर्जम्बुकः सिंहीं मामिहेच्छसि दुर्लभाम्।
नाहं शक्या त्वया स्प्रष्टमादित्यस्य प्रभा यथा॥ ३७॥

‘पापी निशाचर ! तू सियार है और मैं सिंहिनी हूँ। मैं तेरे लिये सर्वथा दुर्लभ हूँ। क्या तू यहाँ मुझे प्राप्त करने की इच्छा रखता है। अरे! जैसे सूर्य की प्रभा पर कोई हाथ नहीं लगा सकता, उसी प्रकार तू मुझे छू भी नहीं सकता॥ ३७॥

पादपान् काञ्चनान् नूनं बहून् पश्यसि मन्दभाक्।
राघवस्य प्रियां भार्यां यस्त्वमिच्छसि राक्षस॥ ३८॥

‘अभागे राक्षस! तेरा इतना साहस! तू श्रीरघुनाथजी की प्यारी पत्नी का अपहरण करना चाहता है! निश्चय ही तुझे बहुत-से सोने के वृक्ष दिखायी देने लगे हैं—अब तू मौत के निकट जा पहुँचा है॥ ३८॥

क्षुधितस्य च सिंहस्य मृगशत्रोस्तरस्विनः।
आशीविषस्य वदनाद् दंष्ट्रामादातुमिच्छसि॥ ३९॥
मन्दरं पर्वतश्रेष्ठं पाणिना हर्तुमिच्छसि।
कालकूटं विषं पीत्वा स्वस्तिमान् गन्तुमिच्छसि॥ ४०॥
अक्षि सूच्या प्रमृजसि जिह्वया लेढि च क्षुरम्।
राघवस्य प्रियां भार्यामधिगन्तुं त्वमिच्छसि॥ ४१॥

‘तू श्रीराम की प्यारी पत्नी को हस्तगत करना चाहता है। जान पड़ता है, अत्यन्त वेगशाली मृगवैरी भूखे सिंह और विषधर सर्प के मुख से उनके दाँत तोड़ लेना चाहता है, पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचल को हाथ से उठाकर ले जाने की इच्छा करता है, कालकूट विष को पीकर कुशलपूर्वक लौट जाने की अभिलाषा रखता है तथा आँख को सूई से पोंछता और छुरे को जीभसे चाटता है।

अवसज्य शिलां कण्ठे समुद्रं तर्तुमिच्छसि।
सूर्याचन्द्रमसौ चोभौ पाणिभ्यां हर्तुमिच्छसि॥ ४२॥
यो रामस्य प्रियां भार्यां प्रधर्षयितुमिच्छसि।

‘क्या तू अपने गले में पत्थर बाँधकर समुद्र को पार करना चाहता है? सूर्य और चन्द्रमा दोनों को अपने दोनों हाथों से हर लाने की इच्छा करता है? जो श्रीरामचन्द्रजी की प्यारी पत्नी पर बलात् करने को उतारू हुआ है॥ ४२ १/२॥

अग्निं प्रज्वलितं दृष्ट्वा वस्त्रेणाहर्तुमिच्छसि॥ ४३॥
कल्याणवृत्तां यो भार्यां रामस्याहर्तुमिच्छसि।

‘यदि तू कल्याणमय आचार का पालन करने वाली श्रीराम की भार्या का अपहरण करना चाहता है तो अवश्य ही जलती हुई आग को देखकर भी तू उसे कपड़े में बाँधकर ले जाने की इच्छा करता है॥ ४३ १/२॥

अयोमुखानां शूलानामग्रे चरितुमिच्छसि।
रामस्य सदृशीं भार्यां योऽधिगन्तुं त्वमिच्छसि॥ ४४॥

‘अरे तू श्रीराम की भार्या को, जो सर्वथा उन्हीं के योग्य है, हस्तगत करना चाहता है, तो निश्चय ही लोहमय मुखवाले शूलों की नोक पर चलने की अभिलाषा करता है॥४४॥

यदन्तरं सिंहसृगालयोर्वने यदन्तरं स्यन्दनिकासमुद्रयोः।
सुराग्रयसौवीरकयोर्यदन्तरं तदन्तरं दाशरथेस्तवैव च ॥ ४५ ॥

‘वन में रहने वाले सिंह और सियार में, समुद्र और छोटी नदी में तथा अमृत और काँजी में जो अन्तर है, वही अन्तर दशरथनन्दन श्रीराम में और तुझमें है॥ । ४५॥

यदन्तरं काञ्चनसीसलोहयोर्यदन्तरं चन्दनवारिपङ्कयोः।
यदन्तरं हस्तिबिडालयोर्वने तदन्तरं दाशरथेस्तवैव च॥४६॥

‘सोने और सीसे में, चन्दनमिश्रित जल और कीचड़ में तथा वन में रहने वाले हाथी और बिलाव में जो अन्तर है, वही अन्तर दशरथनन्दन श्रीराम और तुझमें है॥ ४६॥

यदन्तरं वायसवैनतेययोर्यदन्तरं मद्गुमयूरयोरपि।
यदन्तरं हंसकगृध्रयोर्वने तदन्तरं दाशरथेस्तवैव च॥४७॥

‘गरुड़ और कौए में, मोर और जलकाक में तथा वनवासी हंस और गीध में जो अन्तर है, वही अन्तर दशरथनन्दन श्रीराम और तुझमें है॥ ४७॥

तस्मिन् सहस्राक्षसमप्रभावे रामे स्थिते कार्मुकबाणपाणौ।
हृतापि तेऽहं न जरां गमिष्ये आज्यं यथा मक्षिकयावगीर्णम्॥४८॥

‘जिस समय सहस्र नेत्रधारी इन्द्र के समान प्रभावशाली श्रीरामचन्द्रजी हाथ में धनुष और बाण लेकर खड़े हो जायँगे, उस समय तू मेरा अपहरण करके भी मुझे पचा नहीं सकेगा, ठीक उसी तरह जैसे मक्खी घी पीकर उसे पचा नहीं सकती’ ॥ ४८॥

इतीव तद्वाक्यमदुष्टभावा सुदुष्टमुक्त्वा रजनीचरं तम्।
गात्रप्रकम्पाद् व्यथिता बभूव वातोद्धता सा कदलीव तन्वी॥४९॥

सीता के मन में कोई दुर्भाव नहीं था तो भी उस राक्षस से यह अत्यन्त दुःखजनक बात कहकर सीता रोष से काँपने लगीं। शरीर के कम्पन से कृशाङ्गी सीता हवा से हिलायी गयी कदली के समान व्यथित हो उठीं॥ ४९॥

तां वेपमानामुपलक्ष्य सीतां स रावणो मृत्युसमप्रभावः।
कुलं बलं नाम च कर्म चात्मनः समाचचक्षे भयकारणार्थम् ॥५०॥

सीता को काँपती देख मौत के समान प्रभाव रखने वाला रावण उनके मन में भय उत्पन्न करने के लिये अपने कुल, बल, नाम और कर्म का परिचय देने लगा॥५०॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे सप्तचत्वारिंशः सर्गः॥ ४७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में सैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ४७॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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