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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 19 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 19

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकोनविंशः सर्गः (सर्ग 19)

श्रीराम का वन में जाना स्वीकार करके उनका माता कौसल्या के पास आज्ञा लेने के लिये जाना

 

तदप्रियममित्रघ्नो वचनं मरणोपमम।
श्रुत्वा न विव्यथे रामः कैकेयीं चेदमब्रवीत्॥१॥

वह अप्रिय तथा मृत्यु के समान कष्टदायक वचन सुनकर भी शत्रुसूदन श्रीराम व्यथित नहीं हुए उन्होंने कैकेयी से इस प्रकार कहा- ॥१॥

एवमस्तु गमिष्यामि वनं वस्तुमहं त्वितः।
जटाचीरधरो राज्ञः प्रतिज्ञामनुपालयन्॥२॥

‘मा! बहुत अच्छा! ऐसा ही हो। मैं महाराज की प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये जटा और चीर धारण करके वन में रहने के निमित्त अवश्य यहाँ से चला जाऊँगा॥२॥

इदं तु ज्ञातुमिच्छामि किमर्थं मां महीपतिः।
नाभिनन्दति दर्धर्षो यथापूर्वमरिंदमः॥३॥

‘परंतु मैं यह जानना चाहता हूँ कि आज दुर्जय तथा शत्रुओं का दमन करने वाले महाराज मुझसे पहले की तरह प्रसन्नतापूर्वक बोलते क्यों नहीं हैं? ॥

मन्युर्न च त्वया कार्यो देवि ब्रूमि तवाग्रतः।
यास्यामि भव सुप्रीता वनं चीरजटाधरः॥४॥

‘देवि! मैं तुम्हारे सामने ऐसी बात पूछ रहा हूँ, इसलिये तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये। निश्चय चीर और जटा धारण करके मैं वन को चला जाऊँगा, तुम प्रसन्न रहो॥४॥

हितेन गुरुणा पित्रा कृतज्ञेन नृपेण च।
नियुज्यमानो विस्रब्धः किं न कुर्यामहं प्रियम्॥

‘राजा मेरे हितैषी, गुरु, पिता और कृतज्ञ हैं। इनकी आज्ञा होने पर मैं इनका कौन-सा ऐसा प्रिय कार्य है, जिसे निःशङ्क होकर न कर सकूँ? ॥ ५॥

अलीकं मानसं त्वेकं हृदयं दहते मम।
स्वयं यन्नाह मां राजा भरतस्याभिषेचनम्॥६॥

‘किंतु मेरे मन को एक ही हार्दिक दुःख अधिक जला रहा है कि स्वयं महाराज ने मुझसे भरत के अभिषेक की बात नहीं कही॥६॥

अहं हि सीतां राज्यं च प्राणानिष्टान् धनानि च।
हृष्टो भ्रात्रे स्वयं दद्यां भरतायाप्रचोदितः॥७॥

‘मैं केवल तुम्हारे कहने से भी अपने भाई भरत के लिये इस राज्य को, सीता को, प्यारे प्राणों को तथा सारी सम्पत्ति को भी प्रसन्नतापूर्वक स्वयं ही दे सकता

किं पुनर्मनुजेन्द्रेण स्वयं पित्रा प्रचोदितः।
तव च प्रियकामार्थं प्रतिज्ञामनुपालयन्॥८॥

‘फिर यदि स्वयं महाराज—मेरे पिताजी आज्ञा दें और वह भी तुम्हारा प्रिय कार्य करने के लिये, तो मैं प्रतिज्ञा का पालन करते हुए उस कार्य को क्यों नहीं करूँगा? ॥ ८॥

तथाश्वासय ह्रीमन्तं किं त्विदं यन्महीपतिः।
वसुधासक्तनयनो मन्दमश्रूणि मुञ्चति॥९॥

‘तुम मेरी ओर से विश्वास दिलाकर इन लज्जाशील महाराज को आश्वासन दो। ये पृथ्वीनाथ पृथ्वी की ओर दृष्टि किये धीरे-धीरे आँसू क्यों बहा रहे हैं? ॥

गच्छन्तु चैवानयितुं दूताः शीघ्रजवैर्हयैः।
भरतं मातुलकुलादद्यैव नृपशासनात्॥१०॥

‘आज ही महाराज की आज्ञा से दूत शीघ्रगामी घोड़ों पर सवार होकर भरत को मामा के यहाँ से बुलाने के लिये चले जायँ॥ १०॥

दण्डकारण्यमेषोऽहं गच्छाम्येव हि सत्वरः।
अविचार्य पितुर्वाक्यं समा वस्तुं चतुर्दश॥११॥

‘मैं अभी पिता की बात पर कोई विचार न करके चौदह वर्षों तक वन में रहने के लिये तुरंत दण्डकारण्य को चला ही जाता हूँ॥ ११॥

सा हृष्टा तस्य तद् वाक्यं श्रुत्वा रामस्य कैकयी।
प्रस्थानं श्रद्दधाना सा त्वरयामास राघवम्॥१२॥

श्रीराम की वह बात सुनकर कैकेयी बहुत प्रसन्न हुई। उसे विश्वास हो गया कि ये वन को चले जायेंगे। अतः श्रीराम को जल्दी जाने की प्रेरणा देती हुई वह बोली- ॥ १२॥

एवं भवतु यास्यन्ति दूताः शीघ्रजवैर्हयैः।
भरतं मातुलकुलादिहावर्तयितुं नराः॥१३॥

‘तुम ठीक कहते हो, ऐसा ही होना चाहिये। भरतको मामाके यहाँसे बुला लानेके लिये दूतलोग शीघ्रगामी घोड़ोंपर सवार होकर अवश्य जायँगे॥ १३॥

तव त्वहं क्षमं मन्ये नोत्सुकस्य विलम्बनम्।
राम तस्मादितः शीघ्रं वनं त्वं गन्तुमर्हसि ॥१४॥

‘परंतु राम! तुम वन में जाने के लिये स्वयं ही उत्सुक जान पड़ते हो; अतः तुम्हारा विलम्ब करना मैं ठीक नहीं समझती। जितना शीघ्र सम्भव हो, तुम्हें यहाँ से वन को चल देना चाहिये॥ १४ ॥

व्रीडान्वितः स्वयं यच्च नृपस्त्वां नाभिभाषते।
नैतत् किंचिन्नरश्रेष्ठ मन्युरेषोऽपनीयताम्॥१५॥

‘नरश्रेष्ठ! राजा लज्जित होने के कारण जो स्वयं तुमसे नहीं कहते हैं, यह कोई विचारणीय बात नहीं है। अतः इसका दुःख तुम अपने मन से निकाल दो॥ १५॥

यावत्त्वं न वनं यातः पुरादस्मादतित्वरम्।
पिता तावन्न ते राम स्नास्यते भोक्ष्यतेऽपि वा। १६॥

‘श्रीराम! तुम जब तक अत्यन्त उतावली के साथ इस नगर से वन को नहीं चले जाते, तबतक तुम्हारे पिता स्नान अथवा भोजन नहीं करेंगे’॥ १६ ॥

धिक्कष्टमिति निःश्वस्य राजा शोकपरिप्लुतः।
मूर्च्छितो न्यपतत् तस्मिन् पर्यङ्के हेमभूषिते॥ १७॥

कैकेयी की यह बात सुनकर शोक में डूबे हुए राजा दशरथ लंबी साँस खींचकर बोले—’धिक्कार है! हाय ! बड़ा कष्ट हुआ!’ इतना कहकर वे मूर्च्छित हो उस सुवर्णभूषित पलंग पर गिर पड़े॥ १७ ॥

रामोऽप्युत्थाप्य राजानं कैकेय्याभिप्रचोदितः।
कशयेव हतो वाजी वनं गन्तुं कृतत्वरः॥१८॥

उस समय श्रीराम ने राजा को उठाकर बैठा दिया और कैकेयी से प्रेरित हो कोड़े की चोट खाये हुए घोड़े की भाँति वे शीघ्रतापूर्वक वन को जाने के लिये उतावले हो उठे॥ १८॥

तदप्रियमनार्याया वचनं दारुणोदयम्।
श्रुत्वा गतव्यथो रामः कैकेयीं वाक्यमब्रवीत्॥ १९॥

अनार्या कैकेयी के उस अप्रिय एवं दारुण वचन को सुनकर भी श्रीराम के मनमें व्यथा नहीं हुई। वे कैकेयी से बोले- ॥ १९॥

नाहमर्थपरो देवि लोकमावस्तुमुत्सहे।
विद्धि मामृषिभिस्तुल्यं विमलं धर्ममास्थितम्॥ २०॥

‘देवि! मैं धन का उपासक होकर संसार में नहीं रहना चाहता। तुम विश्वास रखो! मैंने भी ऋषियों की ही भाँति निर्मल धर्म का आश्रय ले रखा है।॥ २० ॥

यत् तत्रभवतः किंचिच्छक्यं कर्तुं प्रियं मया।
प्राणानपि परित्यज्य सर्वथा कृतमेव तत्॥२१॥

‘पूज्य पिताजी का जो भी प्रिय कार्य मैं कर सकता हूँ, उसे प्राण देकर भी करूँगा। तुम उसे सर्वथा मेरे द्वारा हुआ ही समझो॥२१॥

न ह्यतो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया॥२२॥

‘पिता की सेवा अथवा उनकी आज्ञा का पालन करना, जैसा महत्त्वपूर्ण धर्म है, उससे बढ़कर संसार में दूसरा कोई धर्माचरण नहीं है।॥ २२ ॥

अनुक्तोऽप्यत्रभवता भवत्या वचनादहम्।
वने वत्स्यामि विजने वर्षाणीह चतुर्दश॥ २३॥

‘यद्यपि पूज्य पिताजी ने स्वयं मुझसे नहीं कहा है, तथापि मैं तुम्हारे ही कहने से चौदह वर्षों तक इस भूतल पर निर्जन वन में निवास करूँगा॥ २३॥

न नूनं मयि कैकेयि किंचिदाशंससे गुणान्।
यद् राजानमवोचस्त्वं ममेश्वरतरा सती॥२४॥

‘कैकेयि! तुम्हारा मुझ पर पूरा अधिकार है। मैं तुम्हारी प्रत्येक आज्ञा का पालन कर सकता हूँ; फिर भी तुमने स्वयं मुझसे न कहकर इस कार्य के लिये महाराज से कहा—इनको कष्ट दिया। इससे जान पड़ता है कि तुम मुझमें कोई गुण नहीं देखती हो॥ २४॥

यावन्मातरमापृच्छे सीतां चानुनयाम्यहम्।
ततोऽद्यैव गमिष्यामि दण्डकानां महद् वनम्॥ २५॥

‘अच्छा! अब मैं माता कौसल्या से आज्ञा ले लूँ और सीता को भी समझा-बुझा लूँ, इसके बाद आज ही विशाल दण्डकवन की यात्रा करूँगा॥ २५ ॥

भरतः पालयेद् राज्यं शुश्रूषेच्च पितुर्यथा।
तथा भवत्या कर्तव्यं स हि धर्मः सनातनः॥ २६॥

‘तुम ऐसा प्रयत्न करना, जिससे भरत इस राज्य का पालन और पिताजी की सेवा करते रहें; क्योंकि यही सनातन धर्म है’ ॥ २६॥

रामस्य तु वचः श्रुत्वा भृशं दुःखगतः पिता।
शोकादशक्नुवन् वक्तुं प्ररुरोद महास्वनम्॥२७॥

श्रीराम का यह वचन सुनकर पिता को बहुत दुःख हुआ। वे शोक के आवेग से कुछ बोल न सके, केवल फूट-फूटकर रोने लगे॥२७॥

वन्दित्वा चरणौ राज्ञो विसंज्ञस्य पितुस्तदा।
कैकेय्याश्चाप्यनार्याया निष्पपात महाद्युतिः॥ २८॥

महातेजस्वी श्रीराम उस समय अचेत पड़े हुए पिता महाराज दशरथ तथा अनार्या कैकेयी के भी चरणों में प्रणाम करके उस भवन से निकले॥ २८॥

स रामः पितरं कृत्वा कैकेयीं च प्रदक्षिणम्।
निष्क्रम्यान्तःपुरात् तस्मात् स्वं ददर्श सुहृज्जनम्॥ २९॥

पिता दशरथ और माता कैकेयी की परिक्रमा करके उस अन्तःपुर से बाहर निकलकर श्रीराम अपने सुहृदों से मिले॥ २९॥

तं बाष्पपरिपूर्णाक्षः पृष्ठतोऽनुजगाम ह।
लक्ष्मणः परमक्रुद्धः सुमित्रानन्दवर्धनः॥३०॥

सुमित्रा का आनन्द बढ़ाने वाले लक्ष्मण उस अन्याय को देखकर अत्यन्त कुपित हो उठे थे, तथापि दोनों नेत्रों में आँसू भरकर वे चुपचाप श्रीरामचन्द्रजी के पीछे-पीछे चले गये॥ ३०॥

आभिषेचनिकं भाण्डं कृत्वा रामः प्रदक्षिणम्।
शनैर्जगाम सापेक्षो दृष्टिं तत्राविचालयन्॥३१॥

श्रीरामचन्द्रजी के मन में अब वन जाने की आकांक्षा का उदय हो गया था, अतः अभिषेक के लिये एकत्र की हुई सामग्रियों की प्रदक्षिणा करते हुए वे धीरे-धीरे आगे बढ़ गये। उनकी ओर उन्होंने दृष्टिपात नहीं किया॥३१॥

न चास्य महतीं लक्ष्मी राज्यनाशोऽपकर्षति।
लोककान्तस्य कान्तत्वाच्छीतरश्मेरिव क्षयः॥ ३२॥

श्रीराम अविनाशी कान्ति से युक्त थे, इसलिये उस समय राज्य का न मिलना उन लोककमनीय श्रीराम की महती शोभा में कोई अन्तर न डाल सका; जैसे चन्द्रमा का क्षीण होना उसकी सहज शोभा का अपकर्ष नहीं कर पाता है।॥ ३२॥

न वनं गन्तुकामस्य त्यजतश्च वसुंधराम्।
सर्वलोकातिगस्येव लक्ष्यते चित्तविक्रिया॥३३॥

वे वन में जाने को उत्सुक थे और सारी पृथ्वी का राज्य छोड़ रहे थे; फिर भी उनके चित्त में सर्वलोकातीत जीवन्मुक्त महात्मा की भाँति कोई विकार नहीं देखा गया॥ ३३॥

प्रतिषिध्य शुभं छत्रं व्यजने च स्वलंकृते।
विसर्जयित्वा स्वजनं रथं पौरांस्तथा जनान्॥ ३४॥
धारयन् मनसा दुःखमिन्द्रियाणि निगृह्य च।
प्रविवेशात्मवान् वेश्म मातुरप्रियशंसिवान्॥ ३५॥

श्रीराम ने अपने ऊपर सुन्दर छत्र लगाने की मनाही कर दी। डुलाये जाने वाले सुसज्जित चँवर भी रोक दिये। वे रथ को लौटाकर स्वजनों तथा पुरवासी मनुष्यों को भी बिदा करके (आत्मीय जनों के दुःख से
होने वाले) दुःख को मन में ही दबाकर इन्द्रियों को काबू में करके यह अप्रिय समाचार सुनाने के लिये माता कौसल्या के महल में गये। उस समय उन्होंने मन को पूर्णतः वश में कर रखा था॥ ३४-३५ ॥

सर्वोऽप्यभिजनः श्रीमान् श्रीमतः सत्यवादिनः।
नालक्षयत रामस्य कंचिदाकारमानने॥३६॥

जो शोभाशाली मनुष्य सदा सत्यवादी श्रीमान् राम के निकट रहा करते थे, उन्होंने भी उनके मुखपर कोई विकार नहीं देखा ॥ ३६॥

उचितं च महाबाहुर्न जहौ हर्षमात्मवान्।
शारदः समुदीर्णांशुश्चन्द्रस्तेज इवात्मजम्॥३७॥

मन को वश में रखने वाले महाबाहु श्रीराम ने अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता उसी तरह नहीं छोड़ी थी, जैसे शरद्-काल का उद्दीप्त किरणों वाला चन्द्रमा अपने सहज तेज का परित्याग नहीं करता है॥ ३७॥

वाचा मधुरया रामः सर्वं सम्मानयञ्जनम्।
मातुः समीपं धर्मात्मा प्रविवेश महायशाः॥३८॥

महायशस्वी धर्मात्मा श्रीराम मधुर वाणी से सबलोगों का सम्मान करते हुए अपनी माता के समीप गये॥ ३८॥

तं गुणैः समतां प्राप्तो भ्राता विपुलविक्रमः।
सौमित्रिरनुवव्राज धारयन् दुःखमात्मजम्॥३९॥

उस समय गुणों में श्रीराम की ही समानता करने वाले महापराक्रमी भ्राता सुमित्रा कुमार लक्ष्मण भी अपने मानसिक दुःख को मन में ही धारण किये हुए श्रीराम के पीछे-पीछे गये॥३९॥

प्रविश्य वेश्मातिभृशं मुदा युतं समीक्ष्य तां चार्थविपत्तिमागताम्।
न चैव रामोऽत्र जगाम विक्रियां सुहृज्जनस्यात्मविपत्तिशङ्कया॥४०॥

अत्यन्त आनन्द से भरे हुए उस भवन में प्रवेश करके लौकिक दृष्टि से अपने अभीष्ट अर्थ का विनाश हुआ देखकर भी हितैषी सुहृदों के प्राणों पर संकट आ जाने की आशङ्का से श्रीराम ने यहाँ अपने मुखपर कोई विकार नहीं प्रकट होने दिया॥ ४०॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकोनविंशः सर्गः॥१९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१९॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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