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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 20 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 20

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
विंशः सर्गः (सर्ग 20)

राजा दशरथ की अन्य रानियों का विलाप, श्रीराम का कौसल्याजी को अपने वनवास की बात बताना

 

तस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्र निष्क्रामति कृताञ्जलौ।
आर्तशब्दो महान् जज्ञे स्त्रीणामन्तःपुरे तदा॥१॥

उधर पुरुष सिंह श्रीराम हाथ जोड़े हुए ज्यों ही कैकेयी के महल से बाहर निकलने लगे, त्यों ही अन्तःपुर में रहने वाली राजमहिलाओं का महान् आर्तनाद प्रकट हुआ॥

कृत्येष्वचोदितः पित्रा सर्वस्यान्तःपुरस्य च।
गतिश्च शरणं चासीत् स रामोऽद्य प्रवत्स्यति॥ २॥

वे कह रही थीं—’हाय! जो पिता के आज्ञा न देने पर भी समस्त अन्तःपुर के आवश्यक कार्यों में स्वतः संलग्न रहते थे, जो हमलोगों के सहारे और रक्षक थे, वे श्रीराम आज वन को चले जायेंगे॥२॥

कौसल्यायां यथा युक्तो जनन्यां वर्तते सदा।
तथैव वर्ततेऽस्मासु जन्मप्रभृति राघवः ॥३॥

‘वे रघुनाथजी जन्मसे ही अपनी माता कौसल्याके प्रति सदा जैसा बर्ताव करते थे, वैसा ही हमारे साथ भी करते थे॥३॥

न क्रुध्यत्यभिशप्तोऽपि क्रोधनीयानि वर्जयन्।
क्रुद्धान् प्रसादयन् सर्वान् स इतोऽद्य प्रवत्स्यति॥ ४॥

‘जो कठोर बात कह देने पर भी कुपित नहीं होते थे, दूसरों के मन में क्रोध उत्पन्न करने वाली बातें नहीं बोलते थे तथा जो सभी रूठे हुए व्यक्तियों को मना लिया करते थे, वे ही श्रीराम आज यहाँ से वन को चले जायँगे॥

अबुद्धिर्बत नो राजा जीवलोकं चरत्ययम्।
यो गतिं सर्वभूतानां परित्यजति राघवम्॥५॥

‘बड़े खेद की बात है कि हमारे महाराज की बुद्धि मारी गयी। ये इस समय सम्पूर्ण जीव-जगत् का विनाश करने पर तुले हुए हैं, तभी तो ये समस्त प्राणियों के जीवनाधार श्रीराम का परित्याग कर रहे हैं’॥५॥

इति सर्वा महिष्यस्ता विवत्सा इव धेनवः।
पतिमाचुक्रुशुश्चापि सस्वनं चापि चुक्रुशुः॥६॥

इस प्रकार समस्त रानियाँ अपने पति को कोसने लगीं और बछड़ों से बिछुड़ी हुई गौओं की तरह उच्च स्वर से क्रन्दन करने लगीं ॥ ६॥

स हि चान्तःपुरे घोरमार्तशब्दं महीपतिः।
पुत्रशोकाभिसंतप्तः श्रुत्वा व्यालीयतासने॥७॥

अन्तःपुर का वह भयङ्कर आर्तनाद सुनकर महाराज दशरथ ने पुत्रशोक से संतप्त हो लज्जा के मारे बिछौने में ही अपने को छिपा लिया॥७॥

रामस्तु भृशमायस्तो निःश्वसन्निव कुञ्जरः।
जगाम सहितो भ्रात्रा मातुरन्तःपुरं वशी॥८॥

इधर जितेन्द्रिय श्रीरामचन्द्रजी स्वजनों के दुःख से अधिक खिन्न होकर हाथी के समान लंबी साँस खींचते हुए भाई लक्ष्मण के साथ माता के अन्तःपुरमें गये॥ ८॥

सोऽपश्यत् पुरुषं तत्र वृद्धं परमपूजितम्।
उपविष्टं गृहद्वारि तिष्ठतश्चापरान् बहून्॥९॥

वहाँ उन्होंने उस घर के दरवाजे पर एक परम पूजित वृद्ध पुरुष को बैठा हुआ देखा और दूसरे भी बहुत-से मनुष्य वहाँ खड़े दिखायी दिये॥९॥

दृष्ट्वैव तु तदा रामं ते सर्वे समुपस्थिताः।
जयेन जयतां श्रेष्ठं वर्धयन्ति स्म राघवम्॥१०॥

वे सब-के-सब विजयी वीरों में श्रेष्ठ रघुनन्दन श्रीराम को देखते ही जय-जयकार करते हुए उनकी सेवा में उपस्थित हुए और उन्हें बधाई देने लगे॥१०॥

प्रविश्य प्रथमां कक्ष्यां द्वितीयायां ददर्श सः।
ब्राह्मणान् वेदसम्पन्नान् वृद्धान् राज्ञाभिसत्कृतान्॥११॥

पहली ड्योढ़ी पार करके जब वे दूसरी में पहुँचे, तब वहाँ उन्हें राजा के द्वारा सम्मानित बहुत-से वेदज्ञ ब्राह्मण दिखायी दिये॥ ११॥

प्रणम्य रामस्तान् वृद्धांस्तृतीयायां ददर्श सः।
स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च द्वाररक्षणतत्पराः॥ १२॥

उन वृद्ध ब्राह्मणों को प्रणाम करके श्रीरामचन्द्रजी जब तीसरी ड्योढ़ी में पहुँचे, तब वहाँ उन्हें द्वाररक्षा के कार्य में लगी हुई बहुत-सी नववयस्का एवं वृद्ध अवस्था वाली स्त्रियाँ दिखायी दीं ॥ १२ ॥

वर्धयित्वा प्रहृष्टास्ताः प्रविश्य च गृहं स्त्रियः।
न्यवेदयन्त त्वरितं राममातुः प्रियं तदा ॥१३॥

उन्हें देखकर उन स्त्रियों को बड़ा हर्ष हुआ। श्रीराम को बधाई देकर उन स्त्रियों ने तत्काल महल के भीतर प्रवेश किया और तुरंत ही श्रीरामचन्द्रजी की माता को उनके आगमन का प्रिय समाचार सुनाया। १३॥

कौसल्यापि तदा देवी रात्रिं स्थित्वा समाहिता।
प्रभाते चाकरोत् पूजां विष्णोः पुत्रहितैषिणी॥ १४॥

उस समय देवी कौसल्या पुत्र की मङ्गलकामना से रातभर जागकर सबेरे एकाग्रचित्त हो भगवान् विष्णु की पूजा कर रही थीं॥ १४ ॥

सा क्षौमवसना हृष्टा नित्यं व्रतपरायणा।
अग्निं जुहोति स्म तदा मन्त्रवत् कृतमङ्गला॥ १५॥

वे रेशमी वस्त्र पहनकर बड़ी प्रसन्नता के साथ निरन्तर व्रतपरायण होकर मङ्गलकृत्य पूर्ण करने के पश्चात् मन्त्रोच्चारणपूर्वक उस समय अग्नि में आहुति दे रही थीं॥ १५ ॥

प्रविश्य तु तदा रामो मातुरन्तःपुरं शुभम्।
ददर्श मातरं तत्र हावयन्तीं हुताशनम्॥१६॥

उसी समय श्रीराम ने माता के शुभ अन्तःपुर में प्रवेश करके वहाँ माता को देखा। वे अग्नि में हवन करा रही थीं॥१६॥

देवकार्यनिमित्तं च तत्रापश्यत् समुद्यतम्।
दध्यक्षतघृतं चैव मोदकान् हविषस्तथा ॥१७॥
लाजान् माल्यानि शुक्लानि पायसं कृसरं तथा।
समिधः पूर्णकुम्भांश्च ददर्श रघुनन्दनः॥१८॥

रघुनन्दन ने देखा तो वहाँ देव-कार्य के लिये बहुत सी सामग्री संग्रह करके रखी हुई है। दही, अक्षत, घी, मोदक, हविष्य, धान का लावा, सफेद माला, खीर, खिचड़ी, समिधा और भरे हुए कलश ये सब वहाँ दृष्टिगोचर हुए॥ १७-१८॥

तां शुक्लक्षौमसंवीतां व्रतयोगेन कर्शिताम्।
तर्पयन्तीं ददर्शाद्भिर्देवतां वरवर्णिनीम्॥१९॥

उत्तम कान्तिवाली माता कौसल्या सफेद रंग की रेशमी साड़ी पहने हुए थीं। वे व्रत के अनुष्ठान से दुर्बल हो गयी थीं और इष्टदेवता का तर्पण कर रही थीं। इस अवस्थामें श्रीराम ने उन्हें देखा॥ १९॥

सा चिरस्यात्मजं दृष्ट्वा मातृनन्दनमागतम्।
अभिचक्राम संहृष्टा किशोरं वडवा यथा॥२०॥

माता का आनन्द बढ़ाने वाले प्रिय पुत्र को बहुत देर के बाद सामने उपस्थित देख कौसल्यादेवी बड़े हर्ष में भरकर उसकी ओर चलीं, मानो कोई घोड़ी अपने बछेड़े को देखकर बड़े हर्ष से उसके पास आयी हो॥२०॥

स मातरमुपक्रान्तामुपसंगृह्य राघवः।
परिष्वक्तश्च बाहुभ्यामवघ्रातश्च मूर्धनि॥२१॥

श्रीरघुनाथजी ने निकट आयी हुई माता के चरणों में प्रणाम किया और माता कौसल्या ने उन्हें दोनों भुजाओं से कसकर छाती से लगा लिया तथा बड़े प्यार से उनका मस्तक सूंघा ॥ २१ ॥

तमुवाच दुराधर्षं राघवं सुतमात्मनः।
कौसल्या पुत्रवात्सल्यादिदं प्रियहितं वचः॥ २२॥

उस समय कौसल्यादेवी ने अपने दुर्जय पुत्र श्रीरामचन्द्रजी से पुत्रस्नेहवश यह प्रिय एवं हितकर बात कही- ॥ २२॥

वृद्धानां धर्मशीलानां राजर्षीणां महात्मनाम्।
प्राप्नुह्यायुश्च कीर्तिं च धर्मं चाप्युचितं कुले॥ २३॥

‘बेटा ! तुम धर्मशील, वृद्ध एवं महात्मा राजर्षियों के समान आयु, कीर्ति और कुलोचित धर्म प्राप्त करो। २३॥

सत्यप्रतिज्ञं पितरं राजानं पश्य राघव।
अद्यैव त्वां स धर्मात्मा यौवराज्येऽभिषेक्ष्यति॥ २४॥

‘रघुनन्दन ! अब तुम जाकर अपने सत्यप्रतिज्ञ पिता राजा का दर्शन करो। वे धर्मात्मा नरेश आज ही तुम्हारा युवराज के पद पर अभिषेक करेंगे’॥ २४॥

दत्तमासनमालभ्य भोजनेन निमन्त्रितः।
मातरं राघवः किंचित् प्रसार्याञ्जलिमब्रवीत्॥ २५॥

यह कहकर माता ने उन्हें बैठने के लिये आसन दिया और भोजन करने को कहा। भोजन के लिये निमन्त्रित होकर श्रीराम ने उस आसन का स्पर्श मात्र कर लिया। फिर वे अञ्जलि फैलाकर माता से कुछ कहने को उद्यत हुए।

स स्वभावविनीतश्च गौरवाच्च तथानतः।
प्रस्थितो दण्डकारण्यमाप्रष्टमुपचक्रमे॥२६॥

वे स्वभाव से ही विनयशील थे तथा माता के गौरव से भी उनके सामने नतमस्तक हो गये थे। उन्हें दण्डकारण्य को प्रस्थान करना था, अतः वे उसके लिये आज्ञा लेने का उपक्रम करने लगे॥ २६॥

देवि नूनं न जानीषे महद् भयमुपस्थितम्।
इदं तव च दुःखाय वैदेह्या लक्ष्मणस्य च॥२७॥

उन्होंने कहा—’देवि! निश्चय ही तुम्हें मालूम नहीं है, तुम्हारे ऊपर महान् भय उपस्थित हो गया है। इस समय मैं जो बात कहने जा रहा हूँ, उसे सुनकर तुमको, सीता को और लक्ष्मण को भी दुःख होगा; तथापि कहूँगा॥

गमिष्ये दण्डकारण्यं किमनेनासनेन मे।
विष्टरासनयोग्यो हि कालोऽयं मामुपस्थितः॥ २८॥

‘अब तो मैं दण्डकारण्य में जाऊँगा, अतः ऐसे बहुमूल्य आसन की मुझे क्या आवश्यकता है? अब मेरे लिये यह कुश की चटाई पर बैठने का समय आया है।

चतर्दश हि वर्षाणि वत्स्याम विजने वने।
कन्दमूलफलैर्जीवन् हित्वा मुनिवदामिषम्॥२९॥

‘मैं राजभोग्य वस्तु का त्याग करके मुनि की भाँति कन्द, मूल और फलों से जीवन-निर्वाह करता हुआ चौदह वर्षों तक निर्जन वन में निवास करूँगा॥ २९॥

भरताय महाराजो यौवराज्यं प्रयच्छति।।
मां पुनर्दण्डकारण्यं विवासयति तापसम्॥३०॥

‘महाराज युवराज का पद भरत को दे रहे हैं और मुझे तपस्वी बनाकर दण्डकारण्य में भेज रहे हैं। ३०॥

स षट् चाष्टौ च वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने।
आसेवमानो वन्यानि फलमूलैश्च वर्तयन्॥ ३१॥

‘अतः चौदह वर्षों तक निर्जन वन में रहूँगा और जंगल में सुलभ होने वाले वल्कल आदि को धारण करके फल-मूल के आहार से ही जीवन-निर्वाह करता रहूँगा’।

सा निकृत्तेव सालस्य यष्टिः परशुना वने।
पपात सहसा देवी देवतेव दिवश्च्युता॥३२॥

यह अप्रिय बात सुनकर वन में फरसे से काटी हुई शालवृक्ष की शाखा के समान कौसल्या देवी सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ीं, मानो स्वर्ग से कोई देवाङ्गना भूतल पर आ गिरी हो॥ ३२॥

तामदुःखोचितां दृष्ट्वा पतितां कदलीमिव।
रामस्तूत्थापयामास मातरं गतचेतसम्॥३३॥

जिन्होंने जीवन में कभी दुःख नहीं देखा था—जो दुःख भोगने के योग्य थीं ही नहीं, उन्हीं माता कौसल्या को कटी हुई कदली की भाँति अचेतअवस्था में भूमिपर पड़ी देख श्रीराम ने हाथ का सहारा देकर उठाया॥ ३३॥

उपावृत्योत्थितां दीनां वडवामिव वाहिताम्।
पांसगण्ठितसर्वाङ्गी विममर्श च पाणिना॥३४॥

जैसे कोई घोड़ी पहले बड़ा भारी बोझ ढो चुकी हो और थकावट दूर करने के लिये धरती पर लोटपोटकर उठी हो, उसी तरह उठी हुई कौसल्याजी के समस्त अङ्गों में धूल लिपट गयी थी और वे अत्यन्त दीन दशा को पहुँच गयी थीं। उस अवस्था में श्रीराम ने अपने हाथ से उनके अङ्गों की धूल पोंछी॥ ३४ ॥

सा राघवमुपासीनमसुखार्ता सुखोचिता।
उवाच पुरुषव्याघ्रमुपशृण्वति लक्ष्मणे॥३५॥

कौसल्याजी ने जीवन में पहले सदा सुख ही देखा था और उसी के योग्य थीं, परंतु उस समय वे दुःख से कातर हो उठी थीं। उन्होंने लक्ष्मण के सुनते हुए अपने पास बैठे पुरुषसिंह श्रीराम से इस प्रकार कहा- ॥ ३५॥

यदि पुत्र न जायेथा मम शोकाय राघव।
न स्म दुःखमतो भूयः पश्येयमहमप्रजाः॥३६॥

‘बेटा रघुनन्दन! यदि तुम्हारा जन्म न हुआ होता तो मुझे इस एक ही बात का शोक रहता। आज जो मुझपर इतना भारी दुःख आ पड़ा है, इसे वन्ध्या होने पर मुझे नहीं देखना पड़ता॥ ३६॥

एक एव हि वन्ध्यायाः शोको भवति मानसः।
अप्रजास्मीति संतापो न ह्यन्यः पुत्र विद्यते॥ ३७॥

‘बेटा! वन्ध्या को एक मानसिक शोक होता है। उसके मन में यह संताप बना रहता है कि मुझे कोई संतान नहीं है, इसके सिवा दूसरा कोई दुःख उसे नहीं होता।

न दृष्टपूर्वं कल्याणं सुखं वा पतिपौरुषे।
अपि पुत्रे विपश्येयमिति रामास्थितं मया॥३८॥

‘बेटा राम! पति के प्रभुत्वकाल में एक ज्येष्ठ पत्नी को जो कल्याण या सुख प्राप्त होना चाहिये, वह मुझे पहले कभी नहीं देखने को मिला। सोचतीथी, पुत्र के राज्य में मैं सब सुख देख लूँगी और इसी आशा से मैं अब तक जीती रही॥ ३८॥

सा बहून्यमनोज्ञानि वाक्यानि हृदयच्छिदाम्।
अहं श्रोष्ये सपत्नीनामवराणां परा सती॥३९॥

‘बड़ी रानी होकर भी मुझे अपनी बातों से हृदय को विदीर्ण कर देने वाली छोटी सौतों के बहुत-से अप्रिय वचन सुनने पड़ेंगे॥ ३९॥

अतो दुःखतरं किं नु प्रमदानां भविष्यति।
मम शोको विलापश्च यादृशोऽयमनन्तकः॥ ४०॥

‘स्त्रियों के लिये इससे बढ़कर महान् दुःख और क्या होगा; अतः मेरा शोक और विलाप जैसा है, उसका कभी अन्त नहीं है॥ ४० ॥

त्वयि संनिहितेऽप्येवमहमासं निराकृता।
किं पुनः प्रोषिते तात ध्रुवं मरणमेव हि॥४१॥

‘तात! तुम्हारे निकट रहने पर भी मैं इस प्रकार सौतों से तिरस्कृत रही हूँ, फिर तुम्हारे परदेश चले जाने पर मेरी क्या दशा होगी? उस दशा में तो मेरा मरण ही निश्चित है॥ ४१॥

अत्यन्तं निगृहीतास्मि भर्तुर्नित्यमसम्मता।
परिवारेण कैकेय्याः समा वाप्यथवावरा॥४२॥

‘पति की ओर से मुझे सदा अत्यन्त तिरस्कार अथवा कड़ी फटकार ही मिली है, कभी प्यार और सम्मान नहीं प्राप्त हुआ है। मैं कैकेयी की दासियों के बराबर अथवा उनसे भी गयी-बीती समझी जाती हूँ।

यो हि मां सेवते कश्चिदपि वाप्यनुवर्तते।
कैकेय्याः पुत्रमन्वीक्ष्य स जनो नाभिभाषते॥ ४३॥

‘जो कोई मेरी सेवा में रहता या मेरा अनुसरण करता है, वह भी कैकेयी के बेटे को देखकर चुप होजाता है, मुझसे बात नहीं करता है। ४३॥

नित्यक्रोधतया तस्याः कथं नु खरवादि तत्।
कैकेय्या वदनं द्रष्टं पुत्र शक्ष्यामि दुर्गता॥४४॥

‘बेटा! इस दुर्गति में पड़कर मैं सदा क्रोधी स्वभाव के कारण कटुवचन बोलने वाले उस कैकेयी के मुख को कैसे देख सकूँगी॥४४॥

दश सप्त च वर्षाणि जातस्य तव राघव।
अतीतानि प्रकांक्षन्त्या मया दुःखपरिक्षयम्॥ ४५॥

‘रघुनन्दन ! तुम्हारे उपनयनरूप द्वितीय जन्म लिये सत्रह वर्ष बीत गये (अर्थात् तुम अब सत्ताईस वर्ष के हो गये)। अबतक मैं यही आशा लगाये चली आ रही थी कि अब मेरा दुःख दूर हो जायगा॥ ४५ ॥

तदक्षयं महद्दुःखं नोत्सहे सहितुं चिरात्।
विप्रकारं सपत्नीनामेवं जीर्णापि राघव॥४६॥

‘राघव! अब इस बुढ़ापे में इस तरह सौतों का तिरस्कार और उससे होने वाले महान् अक्षय दुःख को मैं अधिक काल तक नहीं सह सकती॥ ४६॥

अपश्यन्ती तव मुखं परिपूर्णशशिप्रभम्।
कृपणा वर्तयिष्यामि कथं कृपणजीविका॥४७॥

पूर्ण चन्द्रमा के समान तुम्हारे मनोहर मुख को देखे बिना मैं दुःखिनी दयनीय जीवनवृत्ति से रहकर कैसे निर्वाह करूँगी॥४७॥

उपवासैश्च योगैश्च बहभिश्च परिश्रमैः।
दुःखसंवर्धितो मोघं त्वं हि दुर्गतया मया॥४८॥

‘बेटा! (यदि तुझे इस देश से निकल ही जाना है तो) मुझ भाग्यहीना ने बारंबार उपवास, देवताओं का ध्यान तथा बहुत-से परिश्रमजनक उपाय करके व्यर्थ ही तुम्हारा इतने कष्ट से पालन-पोषण किया है॥४८॥

स्थिरं नु हृदयं मन्ये ममेदं यन्न दीर्यते।
प्रावृषीव महानद्याः स्पृष्टं कूलं नवाम्भसा॥४९॥

‘मैं समझती हूँ कि निश्चय ही यह मेरा हृदय बड़ा कठोर है, जो तुम्हारे बिछोह की बात सुनकर भी वर्षाकाल के नूतन जल के प्रवाह से टकराये हुए महानदी के कगार की भाँति फट नहीं जाता है॥ ४९॥

ममैव नूनं मरणं न विद्यते न चावकाशोऽस्ति यमक्षये मम।
यदन्तकोऽद्यैव न मां जिहीर्षति प्रसह्य सिंहो रुदतीं मृगीमिव॥५०॥

निश्चय ही मेरे लिये कहीं मौत नहीं है, यमराज के घर में भी मेरे लिये जगह नहीं है, तभी तो जैसे किसी रोती हुई मृगी को सिंह जबरदस्ती उठा ले जाता है, उसी प्रकार यमराज मुझे आज ही उठा ले जाना नहीं चाहता है॥ ५० ॥

स्थिरं हि नूनं हृदयं ममायसं न भिद्यते यद् भुवि नो विदीर्यते।
अनेन दुःखेन च देहमर्पितं ध्रुवं ह्यकाले मरणं न विद्यते॥५१॥

‘अवश्य ही मेरा कठोर हृदय लोहे का बना हुआ है, जो पृथिवी पर पड़ने पर भी न तो फटता है और न टूक-टूक हो जाता है। इसी दुःख से व्याप्त हुए इस शरीर के भी टुकड़े-टुकड़े नहीं हो जाते हैं। निश्चय ही, मृत्युकाल आये बिना किसी का मरण नहीं होता है॥

इदं तु दुःखं यदनर्थकानि मे व्रतानि दानानि च संयमाश्च हि।
तपश्च तप्तं यदपत्यकाम्यया सुनिष्फलं बीजमिवोप्तमूषरे॥५२॥

सबसे अधिक दुःख की बात तो यह है कि पुत्र के सुख के लिये मेरे द्वारा किये गये व्रत, दान और संयम सब व्यर्थ हो गये। मैंने संतान की हित-कामना से जो तप किया है, वह भी ऊसर में बोये हुए बीज की भाँति निष्फल हो गया। ५२॥

यदि ह्यकाले मरणं यदृच्छया लभेत कश्चिद् गुरुदुःखकर्शितः।
गताहमयैव परेतसंसदं विना त्वया धेनुरिवात्मजेन वै॥५३॥

‘यदि कोई मनुष्य भारी दुःखसे पीड़ित हो असमयमें भी अपनी इच्छाके अनुसार मृत्यु पा सके तो मैं तुम्हारे बिना अपने बछड़ेसे बिछुड़ी हुई गायकी भाँति आज ही यमराजकी सभामें चली जाऊँ॥ ५३॥

अथापि किं जीवितमद्य मे वृथा त्वया विना चन्द्रनिभाननप्रभ।
अनुव्रजिष्यामि वनं त्वयैव गौः सदुर्बला वत्समिवाभिकांक्षया॥५४॥

‘चन्द्रमा के समान मनोहर मुख-कान्ति वाले श्रीराम ! यदि मेरी मृत्यु नहीं होती है तो तुम्हारे बिना यहाँ व्यर्थ कुत्सित जीवन क्यों बिताऊँ ? बेटा ! जैसे गौ दुर्बल होने पर भी अपने बछडे के लोभ से उसके पीछे-पीछे चली जाती है, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे साथ ही वन को चली चलूँगी’॥

भृशमसुखममर्षिता तदा बहु विललाप समीक्ष्य राघवम्।
व्यसनमुपनिशाम्य सा महत् सुतमिव बद्धमवेक्ष्य किंनरी॥५५॥

आने वाले भारी दुःख को सहने में असमर्थ हो महान् संकट का विचार करके सत्य के ध्यान में बँधे हुए अपने पुत्र श्रीरघुनाथजी की ओर देखकर माता कौसल्या उस समय बहुत विलाप करने लगीं, मानो कोई किन्नरी अपने पुत्र को बन्धन में पड़ा हुआ देखकर बिलख रही हो॥५५॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे विंशः सर्गः ॥२०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। २०॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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