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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 35 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 35

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
पञ्चत्रिंशः सर्गः (सर्ग 35)

सुमन्त्र के समझाने और फटकारने पर भी कैकेयी का टस-से-मस न होना

 

ततो निधूय सहसा शिरो निःश्वस्य चासकृत्।
पाणिं पाणौ विनिष्पिष्य दन्तान् कटकटाय्य च॥
लोचने कोपसंरक्ते वर्णं पूर्वोचितं जहत्।
कोपाभिभूतः सहसा संतापमशुभं गतः॥२॥
मनः समीक्षमाणश्च सूतो दशरथस्य च।
कम्पयन्निव कैकेय्या हृदयं वाक्शरैः शितैः॥३॥

तदनन्तर होश में आने पर सारथि सुमन्त्र सहसा उठकर खड़े हो गये। उनके मन में बड़ा संताप हुआ, जो अमङ्गलकारी था। वे क्रोध के मारे काँपने लगे। उनके शरीर और मुख की पहली स्वाभाविक कान्ति बदल गयी। वे क्रोध से आँखें लाल करके दोनों हाथों से सिर पीटने लगे और बारम्बार लम्बी साँस खींचकर, हाथ-से-हाथ मलकर, दाँत कटकटाकर राजा दशरथ के मन की वास्तविक अवस्था देखते हुए
अपने वचनरूपी तीखे बाणों से कैकेयी के हृदय को कम्पित-सा करने लगे॥१-३॥

वाक्यवज्ररनुपमैर्निर्भिन्दन्निव चाशुभैः।
कैकेय्याः सर्वमर्माणि सुमन्त्रः प्रत्यभाषत॥४॥

अपने अशुभ एवं अनुपम वचनरूपी वज्र से कैकेयी के सारे मर्मस्थानों को विदीर्ण-से करते हुए सुमन्त्र ने उससे इस प्रकार कहना आरम्भ किया— ॥ ४॥

यस्यास्तव पतिस्त्यक्तो राजा दशरथः स्वयम्।
भर्ता सर्वस्य जगतः स्थावरस्य चरस्य च॥५॥
नह्यकार्यतमं किंचित्तव देवीह विद्यते।
पतिघ्नीं त्वामहं मन्ये कुलनीमपि चान्ततः॥६॥

‘देवि! जब तुमने सम्पूर्ण चराचर जगत् के स्वामी स्वयं अपने पति महाराज दशरथ का ही त्याग कर दिया, तब इस जगत् में कोई ऐसा कुकर्म नहीं है, जिसे तुम न कर सको; मैं तो समझता हूँ कि तुम पति की हत्या करने वाली तो हो ही; अन्ततः कुलघातिनी भी हो॥५-६॥

यन्महेन्द्रमिवाजय्यं दुष्प्रकम्प्यमिवाचलम्।
महोदधिमिवाक्षोभ्यं संतापयसि कर्मभिः॥७॥

‘ओह! जो देवराज इन्द्र के समान अजेय, पर्वत के समान अकम्पनीय और महासागर के समान क्षोभरहित हैं, उन महाराज दशरथ को भी तुम अपने कर्मों से संतप्त कर रही हो॥७॥

मावमंस्था दशरथं भर्तारं वरदं पतिम्।
भर्तुरिच्छा हि नारीणां पुत्रकोट्या विशिष्यते॥ ८॥

राजा दशरथ तुम्हारे पति, पालक और वरदाता हैं। तुम इनका अपमान न करो। नारियों के लिये पति की इच्छा का महत्त्व करोड़ों पुत्रों से भी अधिक है।॥ ८॥

यथावयो हि राज्यानि प्राप्नुवन्ति नृपक्षये।
इक्ष्वाकुकुलनाथेऽस्मिंस्तं लोपयितुमिच्छसि॥९॥

‘इस कुल में राजा का परलोकवास हो जाने पर उसके पुत्रों की अवस्था का विचार करके जो ज्येष्ठ पुत्र होते हैं, वे ही राज्य पाते हैं। राजकुल के इस परम्परागत आचार को तुम इन इक्ष्वाकुवंश के स्वामी महाराज दशरथ के जीते-जी ही मिटा देना चाहती हो। ९॥

राजा भवतु ते पुत्रो भरतः शास्तु मेदिनीम्।
वयं तत्र गमिष्यामो यत्र रामो गमिष्यति॥१०॥

‘तुम्हारे पुत्र भरत राजा हो जायँ और इस पृथ्वी का शासन करें; किंतु हमलोग तो वहीं चले जायँगे जहाँ श्रीराम जायँगे॥ १० ॥

न च ते विषये कश्चिद् ब्राह्मणो वस्तुमर्हति।
तादृशं त्वममर्यादमद्य कर्म करिष्यसि॥११॥
नूनं सर्वे गमिष्यामो मार्गं रामनिषेवितम्।

‘तुम्हारे राज्य में कोई भी ब्राह्मण निवास नहीं करेगा; यदि तुम आज वैसा मर्यादाहीन कर्म करोगी तो निश्चय ही हम सब लोग उसी मार्ग पर चले जायेंगे, जिसका श्रीराम ने सेवन किया है॥ ११ १/२ ।।

त्यक्ता या बान्धवैः सर्वैाह्मणैः साधुभिः सदा॥ १२॥
का प्रीती राज्यलाभेन तव देवि भविष्यति।
तादृशं त्वममर्यादं कर्म कर्तुं चिकीर्षसि॥१३॥

‘सम्पूर्ण बन्धु-बान्धव और सदाचारी ब्राह्मण भी तुम्हारा त्याग कर देंगे। देवि! फिर इस राज्य को पाकर तुम्हें क्या आनन्द मिलेगा। ओह! तुम ऐसा मर्यादाहीन कर्म करना चाहती हो॥ १२-१३ ॥

आश्चर्यमिव पश्यामि यस्यास्ते वृत्तमीदृशम्।
आचरन्त्या न विवृता सद्यो भवति मेदिनी॥ १४॥

‘मुझे तो यह देखकर आश्चर्य-सा हो रहा है कि तुम्हारे इतने बड़े अत्याचार करने पर भी पृथ्वी तुरंत फट क्यों नहीं जाती? ॥ १४ ॥

महाब्रह्मर्षिसृष्टा वा ज्वलन्तो भीमदर्शनाः।
धिग्वाग्दण्डा न हिंसन्ति रामप्रव्राजने स्थिताम्॥ १५॥

‘अथवा बड़े-बड़े ब्रह्मर्षियों के धिक्कारपूर्ण वाग्दण्ड (शाप) जो देखने में भयंकर और जलाकर भस्म कर देने वाले होते हैं, श्रीराम को घर से निकालने के लिये तैयार खड़ी हुई तुम-जैसी पाषाणहृदया का सर्वनाश क्यों नहीं कर डालते हैं ? ॥ १५ ॥

आनं छित्त्वा कुठारेण निम्बं परिचरेत् तु कः।
यश्चैनं पयसा सिञ्चेन्नैवास्य मधुरो भवेत्॥

‘भला आम को कुल्हाड़ी से काटकर उसकी जगह नीम का सेवन कौन करेगा? जो आम की जगह नीम को ही दूध से सींचता है, उसके लिये भी यह नीम मीठा फल देने वाला नहीं हो सकता (अतः वरदान के बहाने श्रीराम को वनवास देकर कैकेयी के चित्त को संतुष्ट करना राजा के लिये कभी सुखद परिणाम का जनक नहीं हो सकता) ॥१६॥

आभिजात्यं हि ते मन्ये यथा मातुस्तथैव च।
न हि निम्बात् स्रवेत् क्षौद्रं लोके निगदितं वचः॥ १७॥

‘कैकेयि! मैं समझता हूँ कि तुम्हारी माता का अपने कुल के अनुरूप जैसा स्वभाव था, वैसा ही तुम्हारा भी है। लोक में कही जाने वाली यह कहावत सत्य ही है कि नीम से मधु नहीं टपकता॥ १७ ॥

तव मातुरसद्ग्राहं विद्म पूर्वं यथा श्रुतम्।
पितुस्ते वरदः कश्चिद् ददौ वरमनुत्तमम्॥१८॥

‘तुम्हारी माता के दुराग्रह की बात भी हम जानते हैं। इसके विषय में पहले जैसा सुना गया है, वह बताया जाता है। एक समय किसी वर देने वाले साधुने तुम्हारे पिता को अत्यन्त उत्तम वर दिया था॥ १८ ॥

सर्वभूतरुतं तस्मात् संजज्ञे वसुधाधिपः।
तेन तिर्यग्गतानां च भूतानां विदितं वचः॥१९॥

‘उस वर के प्रभाव से केकयनरेश समस्त प्राणियों की बोली समझने लगे तिर्यक् योनि में पड़े हुएप्राणियों की बातें भी उनकी समझमें आ जाती थीं। १९॥

ततो जृम्भस्य शयने विरुताद् भूरिवर्चसः।
पित्स्ते विदितो भावः स तत्र बहुधाहसत्॥२०॥

‘एक दिन तुम्हारे महातेजस्वी पिता शय्यापर लेटे हुए थे। उसी समय जृम्भ नामक पक्षी की आवाज उनके कानों में पड़ी। उसकी बोली का अभिप्राय उनकी समझमें आ गया। अतः वे वहाँ कई बार हँसे॥२०॥

तत्र ते जननी क्रुद्धा मृत्युपाशमभीप्सती।
हासं ते नृपते सौम्य जिज्ञासामीति चाब्रवीत्॥ २१॥

‘उसी शय्या पर तुम्हारी माँ भी सोयी थी। वह यह समझकर कि राजा मेरी ही हँसी उड़ा रहे हैं, कुपित हो उठी और गले में मौत की फाँसी लगाने की इच्छा रखती हुई बोली—’सौम्य! नरेश्वर! तुम्हारे हँसने का क्या कारण है, यह मैं जानना चाहती हूँ’॥ २१॥

नृपश्चोवाच तां देवीं हासं शंसामि ते यदि।
ततो मे मरणं सद्यो भविष्यति न संशयः॥ २२॥

‘तब राजा ने उस देवी से कहा—’रानी! यदि मैं अपने हँसने का कारण बता दूं तो उसी क्षण मेरी मृत्यु हो जायगी, इसमें संशय नहीं है’ ॥ २२॥

माता ते पितरं देवि पुनः केकयमब्रवीत्।
शंस मे जीव वा मा वा न मां त्वं प्रहसिष्यसि॥ २३॥

‘देवि! यह सुनकर तुम्हारी रानी माता ने तुम्हारे पिता केकयराज से फिर कहा–’तुम जीओ या मरो, मुझे कारण बता दो। भविष्य में तुम फिर मेरी हँसी नहीं उड़ा सकोगे’ ॥ २३॥

प्रियया च तथोक्तः स केकयः पृथिवीपतिः।
तस्मै तं वरदायार्थं कथयामास तत्त्वतः॥२४॥

‘अपनी प्यारी रानी के ऐसा कहने पर केकयनरेश ने उस वर देने वाले साधु के पास जाकर सारा समाचार ठीक-ठीक कह सुनाया॥ २४ ॥

ततः स वरदः साधू राजानं प्रत्यभाषत।
म्रियतां ध्वंसतां वेयं मा शंसीस्त्वं महीपते॥२५॥

‘तब उस वर देने वाले साधु ने राजा को उत्तर दिया – ‘महाराज! रानी मरे या घर से निकल जाय; तुम कदापि यह बात उसे न बताना’ ॥ २५ ॥

स तच्छ्रुत्वा वचस्तस्य प्रसन्नमनसो नृपः।
मातरं ते निरस्याशु विजहार कुबेरवत्॥२६॥

‘प्रसन्न चित्तवाले उस साधु का यह वचन सुनकर केकय नरेश ने तुम्हारी माता को तुरंत घर से निकाल दिया और स्वयं कुबेर के समान विहार करने लगे। २६॥

तथा त्वमपि राजानं दुर्जनाचरिते पथि।
असद्ग्राहमिमं मोहात् कुरुषे पापदर्शिनी॥२७॥

‘तुम भी इसी प्रकार दुर्जनों के मार्ग पर स्थित हो पापपर ही दृष्टि रखकर मोहवश राजा से यह अनुचित आग्रह कर रही हो ॥२७॥

सत्यश्चात्र प्रवादोऽयं लौकिकः प्रतिभाति मा।
पितृन् समनुजायन्ते नरा मातरमङ्गनाः॥२८॥

‘आज मुझे यह लोकोक्ति सोलह आने सच मालूम होती है कि पुत्र पिता के समान होते हैं और कन्याएँ माता के समान॥ २८॥

नैवं भव गृहाणेदं यदाह वसुधाधिपः।
भर्तुरिच्छामुपास्वेह जनस्यास्य गतिर्भव॥२९॥

‘तुम ऐसी न बनो—इस लोकोक्ति को अपने जीवन में चरितार्थ न करो। राजा ने जो कुछ कहा है, उसे स्वीकार करो (श्रीराम का राज्याभिषेक होने दो)। अपने पति की इच्छा का अनुसरण करके इस जन-समुदाय को यहाँ शरण देने वाली बनो॥ २९॥

मा त्वं प्रोत्साहिता पापैर्देवराजसमप्रभम्।
भर्तारं लोकभर्तारमसद्धर्ममुपादध॥३०॥

‘पापपूर्ण विचार रखनेवाले लोगोंके बहकावेमें आकर तुम देवराज इन्द्रके तुल्य तेजस्वी अपने लोक-प्रतिपालक स्वामीको अनुचित कर्ममें न लगाओ॥ ३०॥

नहि मिथ्या प्रतिज्ञातं करिष्यति तवानघः।
श्रीमान् दशरथो राजा देवि राजीवलोचनः॥ ३१॥

‘देवि! कमलनयन श्रीमान् राजा दशरथ पाप से दूर रहते हैं। वे अपनी प्रतिज्ञा झूठी नहीं करेंगे॥ ३१॥

ज्येष्ठो वदान्यः कर्मण्यः स्वधर्मस्यापि रक्षिता।
रक्षिता जीवलोकस्य बली रामोऽभिषिच्यताम्॥ ३२॥

‘श्रीरामचन्द्रजी अपने भाइयों में ज्येष्ठ, उदार, कर्मठ, स्वधर्म के पालक, जीवजगत् के रक्षक और बलवान् हैं। इनका इस राज्य पर अभिषेक होने दो॥ ३२॥

परिवादो हि ते देवि महाँल्लोके चरिष्यति।
यदि रामो वनं याति विहाय पितरं नृपम्॥३३॥

‘देवि! यदि श्रीराम अपने पिता राजा दशरथ को छोड़कर वन को चले जायँगे तो संसार में तुम्हारी बड़ी निन्दा होगी॥३३॥

स्वराज्यं राघवः पातु भव त्वं विगतज्वरा।
नहि ते राघवादन्यः क्षमः पुरवरे वसन्॥३४॥

‘अतः श्रीरामचन्द्रजी ही अपने राज्य का पालन करें और तुम निश्चिन्त होकर बैठो। श्रीराम के सिवा दूसरा कोई राजा इस श्रेष्ठ नगर में रहकर तुम्हारे अनुकूल आचरण नहीं कर सकता॥३४॥

रामे हि यौवराज्यस्थे राजा दशरथो वनम्।
प्रवेक्ष्यति महेष्वासः पूर्ववृत्तमनुस्मरन्॥३५॥

‘श्रीराम के युवराज पद पर प्रतिष्ठित हो जाने के बाद महाधनुर्धर राजा दशरथ पूर्वजों के वृत्तान्त का स्मरण करके स्वयं वन में प्रवेश करेंगे’ ॥ ३५ ॥

इति सान्त्वैश्च तीक्ष्णैश्च कैकेयीं राजसंसदि।
भूयः संक्षोभयामास सुमन्त्रस्तु कृताञ्जलिः॥ ३६॥
नैव सा क्षुभ्यते देवी न च स्म परिदूयते।
न चास्या मुखवर्णस्य लक्ष्यते विक्रिया तदा॥ ३७॥

इस प्रकार सुमन्त्र ने हाथ जोड़कर कैकेयी को उस राजभवन में सान्त्वनापूर्ण तथा तीखे वचनों से भी बारम्बार विचलित करने की चेष्टा की; किंतु वह टस से-मस न हुई। देवी कैकेयी के मन में न तो क्षोभ हुआ और न दुःख ही। उस समय उसके चेहरे के रंग में भी कोई फर्क पड़ता नहीं दिखायी दिया॥ ३६-३७॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीयेआदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे पञ्चत्रिंशः सर्गः॥३५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ३५॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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