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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 77 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 77

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
सप्तसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 77)

भरत का पिता के श्राद्ध में ब्राह्मणों को बहुत धन-रत्न आदि का दान, पिता की चिता भूमि पर जाकर भरत और शत्रुघ्न का विलाप करना

 

ततो दशाहेऽतिगते कृतशौचो नृपात्मजः।
द्वादशेऽहनि सम्प्राप्ते श्राद्धकर्माण्यकारयत्॥१॥

तदनन्तर दशाह व्यतीत हो जाने पर राजकुमार भरत ने ग्यारहवें दिन आत्मशुद्धि के लिये स्नान और एकादशाह श्राद्ध का अनुष्ठान किया, फिर बारहवाँ दिन आने पर उन्होंने अन्य श्राद्ध कर्म (मासिक और सपिण्डीकरण श्राद्ध) किये॥१॥

ब्राह्मणेभ्यो धनं रत्नं ददावन्नं च पुष्कलम्।
वासांसि च महार्हाणि रत्नानि विविधानि च।
वास्तिकं बहु शुक्लं च गाश्चापि बहुशस्तदा॥ २॥

उसमें भरत ने ब्राह्मणों को धन, रत्न, प्रचुर अन्न, बहुमूल्य वस्त्र, नाना प्रकार के रत्न, बहुत-से बकरे, चाँदी और बहुतेरी गौएँ दान कीं॥२॥

दासीर्दासांश्च यानानि वेश्मानि सुमहान्ति च।
ब्राह्मणेभ्यो ददौ पुत्रो राज्ञस्तस्यौदेहिकम्॥ ३॥

राजपुत्र भरत ने राजा के पारलौकिक हित के लिये बहुत-से दास, दासियाँ, सवारियाँ तथा बड़े-बड़े घर भी ब्राह्मणों को दिये॥३॥

ततः प्रभातसमये दिवसे च त्रयोदशे।
विललाप महाबाहुर्भरतः शोकमूर्च्छितः॥४॥

तदनन्तर तेरहवें दिन प्रातःकाल महाबाहु भरत शोक से मूर्च्छित होकर विलाप करने लगे॥४॥

शब्दापिहितकण्ठश्च शोधनार्थमुपागतः।
चितामूले पितुर्वाक्यमिदमाह सुदुःखितः॥५॥
तात यस्मिन् निसृष्टोऽहं त्वया भ्रातरि राघवे।
तस्मिन् वनं प्रव्रजिते शून्ये त्यक्तोऽस्म्यहं त्वया॥ ६॥

उस समय रोने से उनका गला भर आया था, वे पिता के चितास्थान पर अस्थिसंचय के लिये आये और अत्यन्त दुःखी होकर इस प्रकार कहने लगे—’तात !आपने मुझे जिन ज्येष्ठ भ्राता श्रीरघुनाथजी के हाथ में सौंपा था, उनके वन में चले जाने पर आपने मुझे सूने में ही छोड़ दिया (इस समय मेरा कोई सहारा नहीं)॥ ५-६॥

यस्या गतिरनाथायाः पुत्रः प्रव्राजितो वनम्।
तामम्बां तात कौसल्यां त्यक्त्वा त्वं क्व गतो नृप॥७॥

‘तात ! नरेश्वर! जिन अनाथ हुई देवीके एकमात्र आधार पुत्रको आपने वनमें भेज दिया, उन माता कौसल्याको छोड़कर आप कहाँ चले गये?’॥७॥

दृष्ट्वा भस्मारुणं तच्च दग्धास्थि स्थानमण्डलम्।
पितुः शरीरनिर्वाणं निष्टनन् विषसाद ह॥८॥

पिता की चिता का वह स्थानमण्डल भस्म से भरा हुआ था, अत्यन्त दाह के कारण कुछ लाल दिखायी देता था। वहाँ पिता की जली हुई हड्डियाँ बिखरी हुई थीं। पिता के शरीर के निर्वाण का वह स्थान देखकर भरत अत्यन्त विलाप करते हुए शोक में डूब गये॥ ८॥

स तु दृष्ट्वा रुदन् दीनः पपात धरणीतले।
उत्थाप्यमानः शक्रस्य यन्त्रध्वज इवोच्छ्रितः॥९॥

उस स्थान को देखते ही वे दीनभाव से रोकर पृथ्वीपर गिर पड़े। जैसे इन्द्र का यन्त्रबद्ध ऊँचा ध्वजऊपर को उठाये जाते समय खिसककर गिर पड़ा हो॥ ९॥

अभिपेतुस्ततः सर्वे तस्यामात्याः शुचिव्रतम्।
अन्तकाले निपतितं ययातिमृषयो यथा॥१०॥

तब उनके सारे मन्त्री उन पवित्र व्रत वाले भरत के पास आ पहुँचे, जैसे पुण्यों का अन्त होने पर स्वर्ग से गिरे हुए राजा ययाति के पास अष्टक आदि राजर्षि आ गये थे॥

शत्रुघ्नश्चापि भरतं दृष्ट्वा शोकपरिप्लुतम्।
विसंज्ञो न्यपतद् भूमौ भूमिपालमनुस्मरन्॥११॥

भरत को शोक में डूबा हुआ देख शत्रुघ्न भी अपने पिता महाराज दशरथका बारंबार स्मरण करते हुए अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े॥११॥

उन्मत्त इव निश्चित्तो विललाप सुदुःखितः।
स्मृत्वा पितुर्गुणाङ्गानि तानि तानि तदा तदा॥ १२॥

वे समय-समयपर अनुभव में आये हुए पिता के लालन-पालनसम्बन्धी उन-उन गुणों का स्मरण करके अत्यन्त दुःखी हो सुध-बुध खोकर उन्मत्त के समान विलाप करने लगे

मन्थराप्रभवस्तीव्र कैकेयीग्राहसंकुलः।
वरदानमयोऽक्षोभ्योऽमज्जयच्छोकसागरः॥१३॥

हाय! मन्थरा से जिसका प्राकट्य हुआ है, कैकेयीरूपी ग्राह से जो व्याप्त है तथा जो किसी प्रकार भी मिटाया नहीं जा सकता, उस वरदानमय शोकरूपी उग्र समुद्र ने हम सब लोगों को अपने भीतर निमग्न कर दिया है।

सुकुमारं च बालं च सततं लालितं त्वया।
क्व तात भरतं हित्वा विलपन्तं गतो भवान्॥ १४॥

‘तात! आपने जिनका सदा लाड़-प्यार किया है तथा जो सुकुमार और बालक हैं, उन रोते-बिलखते हुए भरत को छोड़कर आप कहाँ चले गये? ॥ १४ ॥

ननु भोज्येषु पानेषु वस्त्रेष्वाभरणेषु च।
प्रवारयति सर्वान् नस्तन्नः कोऽद्य करिष्यति॥ १५॥

‘भोजन, पान, वस्त्र और आभूषण-इन सबको अधिक संख्या में एकत्र करके आप हम सब लोगों से अपनी रुचिकी वस्तुएँ ग्रहण करने को कहते थे। अब कौन हमारे लिये ऐसी व्यवस्था करेगा? ॥ १५ ॥

अवदारणकाले तु पृथिवी नावदीर्यते।
विहीना या त्वया राज्ञा धर्मज्ञेन महात्मना॥१६॥

‘आप-जैसे धर्मज्ञ महात्मा राजा से रहित होने पर पृथ्वी को फट जाना चाहिये। इस फटने के अवसर पर भी जो यह फट नहीं रही है, यह आश्चर्यकी बात है। १६॥

पितरि स्वर्गमापन्ने रामे चारण्यमाश्रिते।
किं मे जीवितसामर्थ्य प्रवेक्ष्यामि हुताशनम्॥ १७॥

‘पिता स्वर्गवासी हो गये और श्रीराम वन में चले गये। अब मुझमें जीवित रहने की क्या शक्ति है ? अब तो मैं अग्नि में ही प्रवेश करूँगा॥ १७॥

हीनो भ्रात्रा च पित्रा च शून्यामिक्ष्वाकुपालिताम्।
अयोध्यां न प्रवेक्ष्यामि प्रवेक्ष्यामि तपोवनम्॥ १८॥

‘बड़े भाई और पिता से हीन होकर इक्ष्वाकुवंशी नरेशों-द्वारा पालित इस सूनी अयोध्या में प्रवेश नहीं करूँगा; तपोवन को ही चला जाऊँगा’ ॥ १८॥

तयोर्विलपितं श्रुत्वा व्यसनं चाप्यवेक्ष्य तत्।
भृशमार्ततरा भूयः सर्व एवानुगामिनः॥१९॥

उन दोनों का विलाप सुनकर और उस संकट को देखकर समस्त अनुचर-वर्ग के लोग पुनः अत्यन्त शोक से व्याकुल हो उठे॥ १९॥

ततो विषण्णौ श्रान्तौ च शत्रुघ्नभरतावुभौ।
धरायां स्म व्यचेष्टेतां भग्नशृङ्गाविवर्षभौ॥२०॥

उस समय भरत और शत्रुघ्न दोनों भाई विषादग्रस्त और थकित होकर टूटे सींगों वाले दो बैलों के समान पृथ्वी पर लोट रहे थे॥२०॥

ततः प्रकृतिमान् वैद्यः पितुरेषां पुरोहितः।
वसिष्ठो भरतं वाक्यमुत्थाप्य तमुवाच ह॥२१॥

तदनन्तर दैवी प्रकृति से युक्त और सर्वज्ञ वसिष्ठजी, जो इन श्रीराम आदि के पिता के पुरोहित थे, भरत को उठाकर उनसे इस प्रकार बोले- ॥ २१॥

त्रयोदशोऽयं दिवसः पितुर्वृत्तस्य ते विभो।
सावशेषास्थिनिचये किमिह त्वं विलम्बसे॥ २२॥

‘प्रभो! तुम्हारे पिता के दाह संस्कार हुए यह तेरहवाँ दिन है; अब अस्थिसंचय का जो शेष कार्य है, उसके करने में तुम यहाँ विलम्ब क्यों लगा रहे हो? ॥ २२ ॥

त्रीणि द्वन्द्वानि भूतेषु प्रवृत्तान्यविशेषतः।
तेषु चापरिहार्येषु नैवं भवितुमर्हसि ॥२३॥

‘भूख-प्यास, शोक-मोह तथा जरा-मृत्यु—ये तीन द्वन्द्व सभी प्राणियों में समानरूप से उपलब्ध होते हैं। इन्हें रोकना सर्वथा असम्भव है—ऐसी स्थिति में तुम्हें इस तरह शोकाकुल नहीं होना चाहिये’ ॥ २३॥

सुमन्त्रश्चापि शत्रुघ्नमुत्थाप्याभिप्रसाद्य च।
श्रावयामास तत्त्वज्ञः सर्वभूतभवाभवौ॥२४॥

तत्त्वज्ञ सुमन्त्र ने भी शत्रुघ्न को उठाकर उनके चित्त को शान्त किया तथा समस्त प्राणियों के जन्म और मरण की अनिवार्यता का उपदेश सुनाया॥ २४ ॥

उत्थितौ तौ नरव्याघ्रौ प्रकाशेते यशस्विनौ।
वर्षातपपरिग्लानौ पृथगिन्द्रध्वजाविव॥ २५॥

उस समय उठे हुए वे दोनों यशस्वी नरश्रेष्ठ वर्षा और धूप से मलिन हुए दो अलग-अलग इन्द्रध्वजों के समान प्रकाशित हो रहे थे॥ २५ ॥

अश्रूणि परिमृद्नन्तौ रक्ताक्षौ दीनभाषिणौ।
अमात्यास्त्वरयन्ति स्म तनयौ चापराः क्रियाः॥ २६॥

वे आँसू पोंछते हुए दीनतापूर्ण वाणी में बोलते थे। उन दोनों की आँखें लाल हो गयी थीं तथा मन्त्रीलोग उन दोनों राजकुमारों को दूसरी-दूसरी क्रियाएँ शीघ्र करने के लिये प्रेरित कर रहे थे॥२६॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्तसप्ततितमः सर्गः॥ ७७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सतहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।७७॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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