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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 78 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 78

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
अष्टसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 78)

शत्रुज का रोष, उनका कुब्जा को घसीटना और भरतजी के कहने से उसे मूर्च्छित अवस्था में छोड़ देना

 

अथ यात्रां समीहन्तं शत्रुघ्नो लक्ष्मणानुजः।
भरतं शोकसंतप्तमिदं वचनमब्रवीत्॥१॥

तेरहवें दिन का कार्य पूर्ण करके श्रीरामचन्द्रजी के पास जाने का विचार करते हुए शोकसंतप्त भरत से लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने इस प्रकार कहा-॥ १॥

गतिर्यः सर्वभूतानां दुःखे किं पुनरात्मनः।
स रामः सत्त्वसम्पन्नः स्त्रिया प्रव्राजितो वनम्॥ २॥

‘भैया! जो दुःख के समय अपने तथा आत्मीयजनों के लिये तो बात ही क्या है, समस्त प्राणियों को भी सहारा देनेवाले हैं, वे सत्त्वगुणसम्पन्न श्रीराम एक स्त्री के द्वारा वन में भेज दिये गये (यह कितने खेदकी बात है) ॥ २॥

बलवान् वीर्यसम्पन्नो लक्ष्मणो नाम योऽप्यसौ।
किं न मोचयते रामं कृत्वापि पितृनिग्रहम्॥३॥

‘तथा वे जो बल और पराक्रम से सम्पन्न लक्ष्मण नामधारी शूरवीर हैं, उन्होंने भी कुछ नहीं किया। मैं पूछता हूँ कि उन्होंने पिता को कैद करके भी श्रीराम को इस संकट से क्यों नहीं छुड़ाया? ॥ ३॥

पूर्वमेव तु विग्राह्यः समवेक्ष्य नयानयो।
उत्पथं यः समारूढो नार्या राजा वशं गतः॥४॥

‘जब राजा एक नारी के वश में होकर बुरे मार्ग पर आरूढ़ हो चुके थे, तब न्याय और अन्याय का विचार करके उन्हें पहले ही कैद कर लेना चाहिये था’॥ ४॥

इति सम्भाषमाणे तु शत्रुघ्ने लक्ष्मणानुजे।
प्रारद्वारेऽभूत् तदा कुब्जा सर्वाभरणभूषिता॥५॥

लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न जब इस प्रकार रोष में भरकर बोल रहे थे, उसी समय कुब्जा समस्त आभूषणों से विभूषित हो उस राजभवन के पूर्व द्वार पर आकर खड़ी हो गयी॥ ५॥

लिप्ता चन्दनसारेण राजवस्त्राणि बिभ्रती।
विविधं विविधैस्तैस्तैर्भूषणैश्च विभूषिता॥६॥

उसके अङ्गों में उत्तमोत्तम चन्दन का लेप लगा हुआ था तथा वह राजरानियों के पहनने योग्य विविध वस्त्र धारण करके भाँति-भाँति के आभूषणों से सज-धजकर वहाँ आयी थी॥६॥

मेखलादामभिश्चित्रैरन्यैश्च वरभूषणैः।
बभासे बहुभिर्बद्धा रज्जुबवेव वानरी॥७॥

करधनी की विचित्र लड़ियों तथा अन्य बहुसंख्यक सुन्दर अलंकारों से अलंकृत हो वह बहुत-सी रस्सियों में बँधी हुई वानरी के समान जान पड़ती थी॥ ७॥

तां समीक्ष्य तदा द्वाःस्थो भृशं पापस्य कारिणीम्।
गृहीत्वाकरुणं कुब्जां शत्रुघ्नाय न्यवेदयत्॥८॥

वही सारी बुराइयों की जड़ थी। वही श्रीराम के वनवासरूपी पाप का मूल कारण थी। उस पर दृष्टि पड़ते ही द्वारपाल ने उसे पकड़ लिया और बड़ी निर्दयता के साथ घसीट लाकर शत्रुघ्न के हाथ में देते हुए कहा- ॥८॥

यस्याः कृते वने रामो न्यस्तदेहश्च वः पिता।
सेयं पापा नृशंसा च तस्याः कुरु यथामति॥९॥

‘राजकुमार! जिसके कारण श्रीराम को वन में निवास करना पड़ा है और आपलोगों के पिता ने शरीर का परित्याग किया है, वह क्रूर कर्म करने वाली पापिनी यही है। आप इसके साथ जैसा बर्ताव उचित समझें करें॥

शत्रुजश्च तदाज्ञाय वचनं भृशदुःखितः।
अन्तःपुरचरान् सर्वानित्युवाच धृतव्रतः॥१०॥

द्वारपाल की बात पर विचार करके शत्रुघ्न का दुःख और बढ़ गया। उन्होंने अपने कर्तव्य का निश्चय किया और अन्तःपुर में रहने वाले सब लोगों को सुनाकर इस प्रकार कहा- ॥१०॥

तीव्रमुत्पादितं दुःखं भ्रातृणां मे तथा पितुः
यथा सेयं नृशंसस्य कर्मणः फलमश्नुताम्॥ ११॥

‘इस पापिनी ने मेरे भाइयों तथा पिता को जैसा दुःसह दुःख पहुँचाया है, अपने उस क्रूर कर्म का वैसा ही फल यह भी भोगे’ ॥ ११ ॥

एवमुक्त्वा च तेनाशु सखीजनसमावृता।
गृहीता बलवत् कुब्जा सा तद् गृहमनादयत्॥ १२॥

ऐसा कहकर शत्रुघ्न ने सखियों से घिरी हुई कुब्जा को तुरंत ही बलपूर्वक पकड़ लिया। वह डर के मारे ऐसा चीखने-चिल्लाने लगी कि वह सारा महल गूंज उठा॥१२॥

ततः सुभृशसंतप्तस्तस्याः सर्वः सखीजनः।
क्रुद्धमाज्ञाय शत्रुघ्नं व्यपलायत सर्वशः॥१३॥

फिर तो उसकी सारी सखियाँ अत्यन्त संतप्त हो उठीं और शत्रुघ्न को कुपित जानकर सब ओर भाग चलीं ॥ १३॥

अमन्त्रयत कृत्स्नश्च तस्याः सर्वः सखीजनः।
यथायं समुपक्रान्तो निःशेषं नः करिष्यति॥१४॥

उसकी सम्पूर्ण सखियों ने एक जगह एकत्र होकर आपस में सलाह की कि ‘जिस प्रकार इन्होंने बलपूर्वक कुब्जा को पकड़ा है, उससे जान पड़ता है, ये हम लोगों में से किसी को जीवित नहीं छोड़ेंगे॥१४॥

सानुक्रोशां वदान्यां च धर्मज्ञां च यशस्विनीम्।
कौसल्यां शरणं यामः सा हि नोऽस्ति ध्रुवा गतिः ॥१५॥

‘अतः हमलोग परम दयालु, उदार, धर्मज्ञ और यशस्विनी महारानी कौसल्या की शरण में चलें। इस समय वे ही हमारी निश्चल गति हैं’॥ १५ ॥

स च रोषेण संवीतः शत्रुघ्नः शत्रुशासनः।
विचकर्ष तदा कुब्जां क्रोशन्तीं पृथिवीतले॥ १६॥

शत्रुओं का दमन करने वाले शत्रुघ्न रोष में भरकर कुब्जा को जमीन पर घसीटने लगे। उस समय वह जोर-जोर से चीत्कार कर रही थी॥१६॥

तस्यां ह्याकृष्यमाणायां मन्थरायां ततस्ततः।
चित्रं बहुविधं भाण्डं पृथिव्यां तद्व्यशीर्यत॥ १७॥

जब मन्थरा घसीटी जा रही थी, उस समय उसके नाना प्रकार के विचित्र आभूषण टूट-टूटकर पृथ्वी पर इधर-उधर विखरे जाते थे॥ १७॥

तेन भाण्डेन विस्तीर्णं श्रीमद् राजनिवेशनम्।
अशोभत तदा भूयः शारदं गगनं यथा॥१८॥

आभूषणों के उन टुकड़ों से वह शोभाशाली विशाल राजभवन नक्षत्रमालाओं से अलंकृत शरत्काल के आकाश की भाँति अधिक सुशोभित हो रहा था॥ १८॥

स बली बलवत् क्रोधाद् गृहीत्वा पुरुषर्षभः।
कैकेयीमभिनिर्भय॑ बभाषे परुषं वचः॥१९॥

बलवान् नरश्रेष्ठ शत्रुघ्न जिस समय रोषपूर्वक मन्थरा को जोर से पकड़कर घसीट रहे थे, उस समय उसे छुड़ाने के लिये कैकेयी उनके पास आयी। तब उन्होंने उसे धिक्कारते हुए उसके प्रति बड़ी कठोर बातें कहीं-उसे रोषपूर्वक फटकारा॥ १९ ॥

तैर्वाक्यैः परुषैर्दुःखैः कैकेयी भृशदुःखिता।
शत्रुघ्नभयसंत्रस्ता पुत्रं शरणमागता॥२०॥

शत्रुघ्न के वे कठोर वचन बड़े ही दुःखदायी थे। उन्हें सुनकर कैकेयी को बहुत दुःख हुआ। वह शत्रुघ्न के भय से थर्रा उठी और अपने पुत्र की शरण में आयी॥२०॥

तं प्रेक्ष्य भरतः क्रुद्धं शत्रुघ्नमिदमब्रवीत्।
अवध्याः सर्वभूतानां प्रमदाः क्षम्यतामिति ॥२१॥

शत्रुघ्न को क्रोध में भरा हुआ देख भरत ने उनसे कहा—’सुमित्राकुमार! क्षमा करो स्त्रियाँ सभी प्राणियों के लिये अवध्य होती हैं ॥ २१॥

हन्यामहमिमां पापां कैकेयीं दुष्टचारिणीम्।
यदि मां धार्मिको रामो नासूयेन्मातृघातकम्॥ २२॥

‘यदि मुझे यह भय न होता कि धर्मात्मा श्रीराम मातृघाती समझकर मुझसे घृणा करने लगेंगे तो मैं भी इस दुष्ट आचरण करने वाली पापिनी कैकेयी को मार डालता॥ २२॥

इमामपि हतां कुब्जां यदि जानाति राघवः।
त्वां च मां चैव धर्मात्मा नाभिभाषिष्यते ध्रुवम्॥ २३॥

‘धर्मात्मा श्रीरघुनाथजी तो इस कुब्जा के भी मारे जाने का समाचार यदि जान लें तो वे निश्चय ही तुमसे और मुझसे बोलना भी छोड़ देंगे’ ॥ २३॥

भरतस्य वचः श्रुत्वा शत्रुघ्नो लक्ष्मणानुजः।
न्यवर्तत ततो दोषात् तां मुमोच च मूर्च्छिताम्॥ २४॥

भरतजी की यह बात सुनकर लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न मन्थरा के वधरूपी दोष से निवृत्त हो गये और उसे मूर्च्छित अवस्था में ही छोड़ दिया॥ २४ ॥

सा पादमूले कैकेय्या मन्थरा निपपात ह।
निःश्वसन्ती सुदुःखार्ता कृपणं विललाप ह॥ २५॥

मन्थरा कैकेयी के चरणों में गिर पड़ी और लंबी साँस खींचती हुई अत्यन्त दुःख से आर्त हो करुण विलाप करने लगी॥२५॥

शत्रुघ्नविक्षेपविमूढसंज्ञां समीक्ष्य कुब्जां भरतस्य माता।
शनैः समाश्वासयदार्तरूपां क्रौञ्ची विलग्नामिव वीक्षमाणाम्॥ २६॥

शत्रुघ्न के पटकने और घसीटने से आर्त एवं अचेत हुई कुब्जा को देखकर भरत की माता कैकेयी धीरे-धीरे उसे आश्वासन देने होश में लाने की चेष्टा करने लगी। उस समय कुब्जा पिंजड़ें में बँधी हुई क्रौञ्ची की भाँति कातर दृष्टि से उसकी ओर देख रही थी॥ २६ ॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डेऽष्टसप्ततितमः सर्गः॥ ७८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अठहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ७८॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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