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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 92 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 92

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
द्विनवतितमः सर्गः (सर्ग 92)

भरत का भरद्वाज मुनि से श्रीराम के आश्रम जाने का मार्ग जानना, वहाँ से चित्रकूट के लिये सेनासहित प्रस्थान करना

 

ततस्तां रजनीं व्यष्य भरतः सपरिच्छदः।
कृतातिथ्यो भरद्वाजं कामादभिजगाम ह॥१॥

परिवार सहित भरत इच्छानुसार मुनि का आतिथ्य ग्रहण करके रात भर आश्रम में ही रहे। फिर सबेरे जाने की आज्ञा लेने के लिये वे महर्षि भरद्वाज के पास गये॥१॥

तमृषिः पुरुषव्याघ्र प्रेक्ष्य प्राञ्जलिमागतम्।
हताग्निहोत्रो भरतं भरद्वाजोऽभ्यभाषत॥२॥

पुरुषसिंह भरत को हाथ जोड़े अपने पास आया देख भरद्वाजजी अग्निहोत्र का कार्य करके उनसे बोले – ॥२॥

कच्चिदत्र सुखा रात्रिस्तवास्मद्विषये गता।
समग्रस्ते जनः कच्चिदातिथ्ये शंस मेऽनघ॥३॥

‘निष्पाप भरत! क्या हमारे इस आश्रम में तुम्हारी यह रात सुख से बीती है? क्या तुम्हारे साथ आये हुए सब लोग इस आतिथ्य से संतुष्ट हुए हैं? यह बताओ’॥

तमुवाचाञ्जलिं कृत्वा भरतोऽभिप्रणम्य च।
आश्रमादुपनिष्क्रान्तमृषिमुत्तमतेजसम्॥४॥

तब भरत ने आश्रम से बाहर निकले हुए उन उत्तम तेजस्वी महर्षि को प्रणाम करके उनसे हाथ जोड़कर कहा- ॥४॥

सुखोषितोऽस्मि भगवन् समग्रबलवाहनः।
बलवत्तर्पितश्चाहं बलवान् भगवंस्त्वया॥५॥

‘भगवन् ! मैं सम्पूर्ण सेना और सवारी के साथ यहाँ सुखपूर्वक रहा हूँ तथा सैनिकोंसहित मुझे पूर्ण रूप से तृप्त किया गया है॥५॥

अपेतक्लमसंतापाः सुभिक्षाः सुप्रतिश्रयाः।
अपि प्रेष्यानुपादाय सर्वे स्म सुसुखोषिताः॥६॥

‘सेवकों सहित हम सब लोग ग्लानि और संताप से रहित हो उत्तम अन्न-पान ग्रहण करके सुन्दर गृहों का आश्रय ले बड़े सुख से यहाँ रात भर रहे हैं॥६॥

आमन्त्रयेऽहं भगवन् कामं त्वामृषिसत्तम।
समीपं प्रस्थितं भ्रातुमैत्रेणेक्षस्व चक्षुषा॥७॥

‘भगवन्! मुनिश्रेष्ठ! अब मैं अपनी इच्छा के अनुसार आपसे आज्ञा लेने आया हूँ और अपने भाई के समीप प्रस्थान कर रहा हूँ; आप मुझे स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखिये॥

आश्रमं तस्य धर्मज्ञ धार्मिकस्य महात्मनः।
आचक्ष्व कतमो मार्गः कियानिति च शंस मे॥ ८॥

‘धर्मज्ञ मुनीश्वर! बताइये, धर्मपरायण महात्मा श्रीराम का आश्रम कहाँ है ? कितनी दूर है ? और वहाँ पहुँचने के लिये कौन-सा मार्ग है ? इसका भी मुझसे स्पष्ट रूप से वर्णन कीजिये’ ॥ ८॥

इति पृष्टस्तु भरतं भ्रातुर्दर्शनलालसम्।
प्रत्युवाच महातेजा भरद्वाजो महातपाः॥९॥

इस प्रकार पूछे जाने पर महातपस्वी, महातेजस्वी भरद्वाज मुनि ने भाई के दर्शन की लालसा वाले भरत को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥९॥

भरतार्धतृतीयेषु योजनेष्वजने वने।
चित्रकूटगिरिस्तत्र रम्यनिर्झरकाननः॥१०॥

‘भरत! यहाँसे ढाई योजन (दस कोस)* की दूरी पर एक निर्जन वन में चित्रकूट नामक पर्वत है, जहाँ के झरने और वन बड़े ही रमणीय हैं (प्रयाग से चित्रकूट की आधुनिक दूरी लगभग २८ कोस है)। १०॥
* सर्ग ५४ के श्लोक २८ में मूल ग्रन्थ में दस कोस की दूरी लिखी है और यहाँ ढाई योजन। दोनों स्थलों में दस कोस का ही संकेत है। रामायणशिरोमणि नामक व्याख्या में दोनों जगह कपिजलाधिकरण न्याय से अथवा एकशेष के द्वारा यह दूरी तिगुनी करके दिखायी गयी है। प्रयाग से चित्रकूट की दूरी लगभग २८ कोस की मानी जाती है। रामायणशिरोमणिकार की मान्यता के अनुसार ३० कोस की दूरी में और इस दूरी में अधिक अन्तर नहीं है। मील का माप पुराने क्रोश-मान की अपेक्षा छोटा है, इसलिये ८० मील की यह दूरी मानी जाती है।

उत्तरं पार्श्वमासाद्य तस्य मन्दाकिनी नदी।
पुष्पितद्रुमसंछन्ना रम्यपुष्पितकानना॥११॥
अनन्तरं तत्सरितश्चित्रकूटं च पर्वतम्। ।
तयोः पर्णकुटीं तात तत्र तौ वसतो ध्रुवम्॥१२॥

“उसके उत्तरी किनारे से मन्दाकिनी नदी बहती है, जो फूलों से लदे सघन वृक्षों से आच्छादित रहती है, उसके आस-पास का वन बड़ा ही रमणीय और नाना प्रकार के पुष्पों से सुशोभित है। उस नदी के उस पार चित्रकूट पर्वत है। तात! वहाँ पहुँचकर तुम नदी और पर्वत के बीच में श्रीराम की पर्णकुटी देखोगे। वे दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण निश्चय ही उसी में निवास करते हैं। ११-१२ ।।

दक्षिणेन च मार्गेण सव्यदक्षिणमेव च।
गजवाजिसमाकीर्णां वाहिनीं वाहिनीपते॥१३॥
वाहयस्व महाभाग ततो द्रक्ष्यसि राघवम्।

‘सेनापते ! तुम यहाँ से हाथी-घोड़ों से भरी हुई अपनी सेना लेकर पहले यमुना के दक्षिणी किनारे से जो मार्ग गया है, उससे जाओ आगे जाकर दो रास्ते मिलेंगे, उनमें से जो रास्ता बायें दाबकर दक्षिण दिशा की ओर गया है, उसी से सेना को ले जाना। महाभाग! उस मार्ग से चलकर तुम शीघ्र ही श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन पा जाओगे’॥

प्रयाणमिति च श्रुत्वा राजराजस्य योषितः॥ १४॥
हित्वा यानानि यानार्हा ब्राह्मणं पर्यवारयन्।

‘अब यहाँ से प्रस्थान करना है’ यह सुनकर महाराज दशरथ की स्त्रियाँ, जो सवारी पर ही रहने योग्य थीं, सवारियों को छोड़कर ब्रह्मर्षि भरद्वाज को प्रणाम करने के लिये उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गयीं॥

वेपमाना कृशा दीना सह देव्या सुमित्रया॥१५॥
कौसल्या तत्र जग्राह कराभ्यां चरणौ मुनेः।

उपवास के कारण अत्यन्त दुर्बल एवं दीन हुई देवी कौसल्या ने, जो काँप रही थीं, सुमित्रा देवी के साथ अपने दोनों हाथों से भरद्वाज मुनि के पैर पकड़ लिये।

असमृद्धेन कामेन सर्वलोकस्य गर्हिता॥१६॥
कैकेयी तत्र जग्राह चरणौ सव्यपत्रपा।।
तं प्रदक्षिणमागम्य भगवन्तं महामुनिम्॥१७॥
अदूराद् भरतस्यैव तस्थौ दीनमनास्तदा।

तत्पश्चात् जो अपनी असफल कामना के कारण सब लोगों के लिये निन्दित हो गयी थी, उस कैकेयी ने लज्जित होकर वहाँ मुनि के चरणों का स्पर्श किया और उन महामुनि भगवान् भरद्वाज की परिक्रमा करके वह दीनचित्त हो उस समय भरत के ही पास आकर खड़ी हो गयी। १६-१७ १/२ ॥

तत्र पप्रच्छ भरतं भरद्वाजो महामुनिः॥१८॥
विशेषं ज्ञातुमिच्छामि मातृणां तव राघव।

तब महामुनि भरद्वाज ने वहाँ भरत से पूछा —’रघुनन्दन! तुम्हारी इन माताओं का विशेष परिचय क्या है ? यह मैं जानना चाहता हूँ’ ॥ १८ १/२ ॥

एवमुक्तस्तु भरतो भरद्वाजेन धार्मिकः॥१९॥
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा वाक्यं वचनकोविदः।

भरद्वाज के इस प्रकार पूछने पर बोलने की कला में कुशल धर्मात्मा भरत ने हाथ जोड़कर कहा- ॥ १९ १/२॥

यामिमां भगवन् दीनां शोकानशनकर्शिताम्॥ २०॥
पितुर्हि महिषीं देवी देवतामिव पश्यसि।
एषां तं पुरुषव्याघ्रं सिंहविक्रान्तगामिनम्॥२१॥
कौसल्या सुषुवे रामं धातारमदितिर्यथा।

‘भगवन्! आप जिन्हें शोक और उपवास के कारण अत्यन्त दुर्बल एवं दुःखी देख रहे हैं, जो देवी-सी दृष्टिगोचर हो रही हैं’ ये मेरे पिता की सबसे बड़ी महारानी कौसल्या हैं। जैसे अदिति ने धाता नामक आदित्य को उत्पन्न किया था, उसी प्रकार इन कौसल्या देवी ने सिंह के समान पराक्रमसूचक गति से चलने वाले पुरुषसिंह श्रीराम को जन्म दिया है। २०-२१ १/२ ॥

अस्या वामभुजं श्लिष्टा या सा तिष्ठति दुर्मनाः॥ २२॥
इयं सुमित्रा दुःखार्ता देवी राज्ञश्च मध्यमा।
कर्णिकारस्य शाखेव शीर्णपुष्पा वनान्तरे॥२३॥
एतस्यास्तौ सुतौ देव्याः कुमारौ देववर्णिनौ।
उभौ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ वीरौ सत्यपराक्रमौ॥ २४॥

‘इनकी बायीं बाँह से सटकर जो उदास मन से खड़ी हैं तथा दुःख से आतुर हो रही हैं और आभूषण शून्य होने से वनके भीतर झड़े हुए पुष्पवाले कनेर की डाल के समान दिखायी देती हैं, ये महाराज की मझली रानी देवी सुमित्रा हैं। सत्यपराक्रमी वीर तथा देवताओं के तुल्य कान्तिमान् वे दोनों भाई राजकुमार लक्ष्मण और शत्रुघ्न इन्हीं सुमित्रा देवी के पुत्र हैं॥ २२ -२४॥

यस्याः कृते नरव्याघ्रौ जीवनाशमितो गतौ।
राजा पुत्रविहीनश्च स्वर्गं दशरथो गतः॥ २५ ॥
क्रोधनामकृतप्रज्ञां दृप्तां सुभगमानिनीम्।
ऐश्वर्यकामां कैकेयीमनार्यामार्यरूपिणीम्॥२६॥
ममैतां मातरं विद्धि नृशंसां पापनिश्चयाम्।
यतोमूलं हि पश्यामि व्यसनं महदात्मनः॥२७॥

‘और जिसके कारण पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण यहाँ से प्राण-सङ्कट की अवस्था (वनवास) में जा पहुँचे हैं तथा राजा दशरथ पुत्रवियोग का कष्ट पाकर स्वर्गवासी हुए हैं, जो स्वभाव से ही क्रोध करने वाली, अशिक्षित बुद्धिवाली, गर्वीली, अपने आपको सबसे अधिक सुन्दरी और भाग्यवती समझने वाली तथा राज्य का लोभ रखने वाली है, जो शक्ल-सूरत से आर्या होने पर भी वास्तव में अनार्या है, इस कैकेयी को मेरी माता समझिये। यह बड़ी ही क्रूर और पापपूर्ण विचार रखने वाली है। मैं अपने ऊपर जो महान् संकट आया हुआ देख रहा हूँ, इसका मूल कारण यही है’ ॥ २५–२७॥

इत्युक्त्वा नरशार्दूलो बाष्पगद्गदया गिरा।
विनिःश्वस्य स ताम्राक्षः क्रुद्धो नाग इव श्वसन्॥ २८॥

अश्रुगद्गद वाणी से इस प्रकार कहकर लाल आँखें किये पुरुषसिंह भरत रोष से भरकर फुफकारते हुए सर्प की भाँति लंबी साँस खींचने लगे॥ २८॥

भरद्वाजो महर्षिस्तं ब्रुवन्तं भरतं तदा।
प्रत्युवाच महाबुद्धिरिदं वचनमर्थवित्॥२९॥

उस समय ऐसी बातें कहते हुए भरत से श्रीरामावतार के प्रयोजन को जानने वाले महाबुद्धिमान् महर्षि भरद्वाज ने उनसे यह बात कही- ॥ २९॥

न दोषेणावगन्तव्या कैकेयी भरत त्वया।
रामप्रव्राजनं ह्येतत् सुखोदकं भविष्यति॥३०॥

‘भरत! तुम कैकेयी के प्रति दोष-दृष्टि न करो। श्रीराम का यह वनवास भविष्य में बड़ा ही सुखद होगा॥

देवानां दानवानां च ऋषीणां भावितात्मनाम्।
हितमेव भविष्यद्धि रामप्रव्राजनादिह ॥३१॥

‘श्रीराम के वन में जाने से देवताओं, दानवों तथा परमात्मा का चिन्तन करने वाले महर्षियों का इस जगत् में हित ही होने वाला है’ ॥ ३१॥

अभिवाद्य तु संसिद्धः कृत्वा चैनं प्रदक्षिणम्।
आमन्त्र्य भरतः सैन्यं युज्यतामिति चाब्रवीत्॥ ३२॥

श्रीराम का पता जानकर और मुनि का आशीर्वाद पाकर कृतकृत्य हुए भरत ने मुनि को मस्तक झुका उनकी प्रदक्षिणा करके जाने की आज्ञा ले सेना को कूच के लिये तैयार होने का आदेश दिया॥ ३२॥

ततो वाजिरथान् युक्त्वा दिव्यान् हेमविभूषितान्।
अध्यारोहत् प्रयाणार्थं बहून् बहुविधो जनः॥ ३३॥

तदनन्तर अनेक प्रकार की वेश-भूषावाले लोग बहुत-से दिव्य घोड़ों और दिव्य रथों को, जो सुवर्ण से विभूषित थे, जोतकर यात्रा के लिये उनपर सवार हुए॥

गजकन्या गजाश्चैव हेमकक्ष्याः पताकिनः।
जीमूता इव घर्मान्ते सघोषाः सम्प्रतस्थिरे ॥ ३४॥

बहुत-सी हथिनियाँ और हाथी, जो सुनहरे रस्सों से कसे गये थे और जिनके ऊपर पताकाएँ फहरा रही थीं, वर्षा-काल के गरजते हुए मेघों के समान घण्टानाद करते हुए वहाँ से प्रस्थित हुए।॥ ३४॥

विविधान्यपि यानानि महान्ति च लघूनि च।
प्रययुः सुमहार्हाणि पादैरपि पदातयः॥ ३५॥

नाना प्रकार के छोटे-बड़े बहुमूल्य वाहनों पर सवार हो उनके अधिकारी चले और पैदल सैनिक अपने पैरों से ही यात्रा करने लगे॥ ३५॥

अथ यानप्रवेकैस्तु कौसल्याप्रमुखाः स्त्रियः।
रामदर्शनकांक्षिण्यः प्रययुर्मुदितास्तदा ॥ ३६॥

तत्पश्चात् कौसल्या आदि रानियाँ उत्तम सवारियों पर बैठकर श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन की अभिलाषा से प्रसन्नतापूर्वक चलीं॥ ३६॥

चन्द्रार्कतरुणाभासां नियुक्तां शिबिकां शुभाम्।
आस्थाय प्रययौ श्रीमान् भरतः सपरिच्छदः॥ ३७॥

इसी प्रकार श्रीमान् भरत नवोदित चन्द्रमा और सूर्य के समान कान्तिमती शिविका में बैठकर आवश्यक सामग्रियों के साथ प्रस्थित हुए। उस शिविका को कहाँरों ने अपने कंधों पर उठा रखा था। ३७॥

सा प्रयाता महासेना गजवाजिसमाकुला।
दक्षिणां दिशमावृत्य महामेघ इवोत्थितः॥३८॥

हाथी-घोड़ों से भरी हुई वह विशाल वाहिनी दक्षिण दिशा को घेरकर उमड़ी हुई महामेघों की घटा के समान चल पड़ी॥ ३८॥

वनानि च व्यतिक्रम्य जुष्टानि मृगपक्षिभिः।
गङ्गायाः परवेलायां गिरिष्वथ नदीष्वपि॥ ३९॥

गङ्गा के उस पार पर्वतों तथा नदियों के निकटवर्ती वनों को, जो मृगों और पक्षियों से सेवित थे, लाँघकर वह आगे बढ़ गयी॥ ३९॥

सा सम्प्रहृष्टद्विपवाजियूथा वित्रासयन्ती मृगपक्षिसंघान्।
महदनं तत् प्रविगाहमाना रराज सेना भरतस्य तत्र॥४०॥

उस सेना के हाथी और घोड़ों के समुदाय बड़े प्रसन्न थे। जंगल के मृगों और पक्षिसमूहों को भयभीत करती हुई भरत की वह सेना उस विशाल वन में प्रवेश करके वहाँ बड़ी शोभा पा रही थी॥ ४० ॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे दिनवतितमः सर्गः॥ ९२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ।९२॥


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Shivangi

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