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वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 67 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 67

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
सप्तषष्टितमः सर्गः (सर्ग 67)

(श्रीराम के द्वारा धनुर्भंग तथा राजा जनक का विश्वामित्र की आज्ञा से राजा दशरथ को बुलाने के लिये मन्त्रियों को भेजना)

 

जनकस्य वचः श्रुत्वा विश्वामित्रो महामुनिः।
धनुर्दर्शय रामाय इति होवाच पार्थिवम्॥१॥

जनक की यह बात सुनकर महामुनि विश्वामित्र बोले—’राजन्! आप श्रीराम को अपना धनुष दिखाइये॥

ततः स राजा जनकः सचिवान् व्यादिदेश ह।
धनुरानीयतां दिव्यं गन्धमाल्यानुलेपितम्॥२॥

तब राजा जनक ने मन्त्रियों को आज्ञा दी—’चन्दन और मालाओं से सुशोभित वह दिव्य धनुष यहाँ ले आओ’ ॥२॥

जनकेन समादिष्टाः सचिवाः प्राविशन् पुरम्।
तद्धनुः पुरतः कृत्वा निर्जग्मुरमितौजसः॥३॥

राजा जनक की आज्ञा पाकर वे अमित तेजस्वी मन्त्री नगर में गये और उस धनुष को आगे करके पुरी से बाहर निकले॥३॥

नृणां शतानि पञ्चाशद् व्यायतानां महात्मनाम्।
मञ्जूषामष्टचक्रां तां समूहस्ते कथंचन॥४॥

वह धनुष आठ पहियों वाली लोहे की बहुत बड़ी संदूक में रखा गया था। उसे मोटे-ताजे पाँच हजार महामनस्वी वीर किसी तरह ठेलकर वहाँ तक ला सके॥४॥

तामादाय सुमञ्जूषामायसी यत्र तद्धनुः।
सुरोपमं ते जनकमूचुर्नृपतिमन्त्रिणः॥५॥

लोहे की वह संदूक, जिसमें धनुष रखा गया था, लाकर उन मन्त्रियों ने देवोपम राजा जनक से कहा -||

इदं धनुर्वरं राजन् पूजितं सर्वराजभिः।
मिथिलाधिप राजेन्द्र दर्शनीयं यदीच्छसि॥६॥

‘राजन्! मिथिलापते! राजेन्द्र! यह समस्त राजाओं द्वारा सम्मानित श्रेष्ठ धनुष है,यदि आप इन दोनों राजकुमारों को दिखाना चाहते हैं तो दिखाइये’।

तेषां नृपो वचः श्रुत्वा कृताञ्जलिरभाषत।
विश्वामित्रं महात्मानं तावुभौ रामलक्ष्मणौ॥७॥

उनकी बात सुनकर राजा जनक ने हाथ जोड़कर महात्मा विश्वामित्र तथा दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण से कहा- ॥७॥

– इदं धनुर्वरं ब्रह्मञ्जनकैरभिपूजितम्।
राजभिश्च महावीरशक्तैः पूरितं तदा॥८॥

‘ब्रह्मन्! यही वह श्रेष्ठ धनुष है, जिसका जनकवंशी नरेशों ने सदा ही पूजन किया है तथा जो इसे उठाने में समर्थ न हो सके, उन महापराक्रमी नरेशों ने भी इसका पूर्वकाल में सम्मान किया है॥८॥

नैतत् सुरगणाः सर्वे सासुरा न च राक्षसाः।
गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिन्नरमहोरगाः॥९॥

‘इसे समस्त देवता, असुर, राक्षस, गन्धर्व, बड़े बड़े यक्ष, किन्नर और महानाग भी नहीं चढ़ा सके हैं॥९॥

क्व गतिर्मानुषाणां च धनुषोऽस्य प्रपूरणे।
आरोपणे समायोगे वेपने तोलने तथा॥१०॥

‘फिर इस धनुष को खींचने, चढ़ाने, इसपर बाण संधान करने, इसकी प्रत्यञ्चापर टङ्कार देने तथा इसे उठाकर इधर-उधर हिलाने में मनुष्यों की कहाँ शक्ति है? ॥ १०॥

तदेतद् धनुषां श्रेष्ठमानीतं मुनिपुंगव।
दर्शयैतन्महाभाग अनयो राजपुत्रयोः॥११॥

‘मुनिप्रवर! यह श्रेष्ठ धनुष यहाँ लाया गया है। महाभाग! आप इसे इन दोनों राजकुमारों को दिखाइये॥

विश्वामित्रः सरामस्तु श्रुत्वा जनकभाषितम्।
वत्स राम धनुः पश्य इति राघवमब्रवीत्॥१२॥

श्रीरामसहित विश्वामित्र ने जनकका वह कथन सुनकर रघुनन्दन से कहा—’वत्स राम! इस धनुष को देखो’ ॥ १२॥

महर्षेर्वचनाद् रामो यत्र तिष्ठति तद्धनुः ।
मञ्जूषां तामपावृत्य दृष्टा धनुरथाब्रवीत्॥१३॥

महर्षि की आज्ञा से श्रीरामने जिसमें वह धनुष था उस संदूक को खोलकर उस धनुष को देखा और कहा – || १३॥

इदं धनुर्वरं दिव्यं संस्पृशामीह पाणिना।
यत्नवांश्च भविष्यामि तोलने पूरणेऽपि वा। १४॥

‘अच्छा अब मैं इस दिव्य एवं श्रेष्ठ धनुष में हाथ लगाता हूँ मैं इसे उठाने और चढ़ाने का भी प्रयत्न करूँगा’॥ १४॥

बाढमित्यब्रवीद् राजा मुनिश्च समभाषत।
लीलया स धनुर्मध्ये जग्राह वचनान्मुनेः॥ १५॥
पश्यतां नृसहस्राणां बहूनां रघुनन्दनः।
आरोपयत् स धर्मात्मा सलीलमिव तद्धनुः॥१६॥

तब राजा और मुनि ने एक स्वर से कहा—’हाँ, ऐसा ही करो।’ मुनि की आज्ञा से रघुकुलनन्दन धर्मात्मा श्रीराम ने उस धनुष को बीच से पकड़कर लीलापूर्वक उठा लिया और खेल-सा करते हुए उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। उस समय कई हजार मनुष्यों की दृष्टि उनपर लगी थी॥ १५-१६॥

आरोपयित्वा मौर्वी च पूरयामास तद्धनुः।
तद् बभञ्ज धनुर्मध्ये नरश्रेष्ठो महायशाः॥१७॥

प्रत्यञ्चा चढ़ाकर महायशस्वी नरश्रेष्ठ श्रीराम ने ज्यों ही उस धनुष को कान तक खींचा त्यों ही वह बीच से ही टूट गया॥१७॥

तस्य शब्दो महानासीन्निर्घातसमनिःस्वनः।
भूमिकम्पश्च सुमहान् पर्वतस्येव दीर्यतः॥ १८॥

टूटते समय उससे वज्रपात के समान बड़ी भारी आवाज हुई। ऐसा जान पड़ा मानो पर्वत फट पड़ा हो। उस समय महान् भूकम्प आ गया॥ १८ ॥

निपेतुश्च नराः सर्वे तेन शब्देन मोहिताः।
वर्जयित्वा मुनिवरं राजानं तौ च राघवौ॥१९॥

मुनिवर विश्वामित्र, राजा जनक तथा रघुकुलभूषण दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण को छोड़कर शेष जितने लोग वहाँ खड़े थे, वे सब धनुष टूटने के उस भयंकर शब्द से मूर्च्छित होकर गिर पड़े॥ १९ ॥

प्रत्याश्वस्ते जने तस्मिन् राजा विगतसाध्वसः।
उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं वाक्यज्ञो मुनिपुंगवम्॥ २०॥

थोड़ी देर में जब सबको चेत हुआ, तब निर्भय हुए राजा जनक ने, जो बोलने में कुशल और वाक्य के मर्म को समझने वाले थे, हाथ जोड़कर मुनिवर विश्वामित्र से कहा- ॥२०॥

भगवन् दृष्टवीर्यो मे रामो दशरथात्मजः।
अत्यद्भुतमचिन्त्यं च अतर्कितमिदं मया॥२१॥

‘भगवन्! मैंने दशरथनन्दन श्रीराम का पराक्रम आज अपनी आँखों देख लिया महादेवजी के धनुष को चढ़ाना—यह अत्यन्त अद्भुत, अचिन्त्य और अतर्कित घटना है॥

जनकानां कुले कीर्तिमाहरिष्यति मे सुता।
सीता भर्तारमासाद्य रामं दशरथात्मजम्॥२२॥

‘मेरी पुत्री सीता दशरथकुमार श्रीराम को पतिरूपमें प्राप्त करके जनकवंश की कीर्ति का विस्तार करेगी।२२॥

मम सत्या प्रतिज्ञा सा वीर्यशुल्केति कौशिक।
सीता प्राणैर्बहमता देया रामाय मे सुता॥२३॥

‘कुशिकनन्दन! मैंने सीता को वीर्यशुल्का (पराक्रमरूपी शुल्कसे ही प्राप्त होनेवाली) बताकर जो प्रतिज्ञा की थी, वह आज सत्य एवं सफल हो गयी। सीता मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर है। अपनी यह पुत्री मैं श्रीराम को समर्पित करूँगा॥ २३ ॥

भवतोऽनुमते ब्रह्मन् शीघ्रं गच्छन्तु मन्त्रिणः।
मम कौशिक भद्रं ते अयोध्यां त्वरिता रथैः॥ २४॥
राजानं प्रश्रितैर्वाक्यैरानयन्तु पुरं मम।
प्रदानं वीर्यशुल्कायाः कथयन्तु च सर्वशः॥ २५॥

ब्रह्मन् ! कुशिकनन्दन! आपका कल्याण हो यदि आपकी आज्ञा हो तो मेरे मन्त्री रथ पर सवार होकर बड़ी उतावली के साथ शीघ्र ही अयोध्या को जायँ और विनय युक्त वचनोंद् वारा महाराज दशरथ को मेरे नगर में लिवा लायें। साथ ही यहाँ का सब समाचार बताकर यह निवेदन करें कि जिसके लिये पराक्रमका ही शुल्क नियत किया गया था, उस जनककुमारी सीता का विवाह श्रीरामचन्द्रजी के साथ होने जा रहा है।। २४-२५ ॥

मुनिगुप्तौ च काकुत्स्थौ कथयन्तु नृपाय वै।
प्रीतियुक्तं तु राजानमानयन्तु सुशीघ्रगाः॥२६॥

‘ये लोग महाराज दशरथ से यह भी कह दें कि आपके दोनों पुत्र श्रीराम और लक्ष्मण विश्वामित्रजी के द्वारा सुरक्षित हो मिथिला में पहुँच गये हैं। इस प्रकार प्रीतियुक्त हुए राजा दशरथ को ये शीघ्रगामी सचिव जल्दी यहाँ बुला लायें’॥ २६॥ ।

कौशिकस्तु तथेत्याह राजा चाभाष्य मन्त्रिणः।
अयोध्यां प्रेषयामास धर्मात्मा कृतशासनान्।
यथावृत्तं समाख्यातुमानेतुं च नृपं तथा॥२७॥

विश्वामित्र ने ‘तथास्तु’ कहकर राजा की बात का समर्थन किया तब धर्मात्मा राजा जनक ने अपनी आज्ञा का पालन करने वाले मन्त्रियों को समझा बुझाकर यहाँ का ठीक-ठीक समाचार महाराज दशरथ को बताने और उन्हें मिथिलापुरी में ले आने के लिये भेज दिया॥ २७॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे सप्तषष्टितमः सर्गः॥६७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६७॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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