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वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 66 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 66

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
षट्षष्टितमः सर्गः (सर्ग 66)

(राजा जनक का विश्वामित्र और राम लक्ष्मण का सत्कार, धनुष का परिचय देना और धनुष चढ़ा देने पर श्रीराम के साथ ब्याह का निश्चय प्रकट करना)

 

ततः प्रभाते विमले कृतकर्मा नराधिपः।
विश्वामित्रं महात्मानमाजुहाव सराघवम्॥१॥
तमर्चयित्वा धर्मात्मा शास्त्रदृष्टेन कर्मणा।
राघवौ च महात्मानौ तदा वाक्यमुवाच ह॥२॥

तदनन्तर दूसरे दिन निर्मल प्रभातकाल आने पर धर्मात्मा राजा जनक ने अपना नित्य नियम पूरा करके श्रीराम और लक्ष्मण सहित महात्मा विश्वामित्रजी को बुलाया और शास्त्रीय विधि के अनुसार मुनि तथा उन दोनों महामनस्वी राजकुमारों का पूजन करके इस प्रकार कहा- ॥ १-२॥

भगवन् स्वागतं तेऽस्तु किं करोमि तवानघ। ।
भवानाज्ञापयतु मामाज्ञाप्यो भवता ह्यहम्॥३॥

‘भगवन् ! आपका स्वागत है निष्पाप महर्षे! आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ; क्योंकि मैं आपका आज्ञापालक हूँ’॥३॥

एवमुक्तः स धर्मात्मा जनकेन महात्मना।
प्रत्युवाच मुनिश्रेष्ठो वाक्यं वाक्यविशारदः॥४॥

महात्मा जनक के ऐसा कहनेपर बोलने में कुशल धर्मात्मा मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र ने उनसे यह बात कही – || ४॥

पुत्रौ दशरथस्येमौ क्षत्रियौ लोकविश्रुतौ।
द्रष्टुकामौ धनुःश्रेष्ठं यदेतत्त्वयि तिष्ठति ॥५॥

‘महाराज! राजा दशरथ के ये दोनों पत्र विश्वविख्यात क्षत्रिय वीर हैं और आपके यहाँ जो यह श्रेष्ठ धनुष रखा है, उसे देखनेकी इच्छा रखते हैं।

एतद् दर्शय भद्रं ते कृतकामौ नृपात्मजौ।
दर्शनादस्य धनुषो यथेष्टं प्रतियास्यतः॥६॥

‘आपका कल्याण हो, वह धनुष इन्हें दिखा दीजिये। इससे इनकी इच्छा पूरी हो जायगी फिर ये दोनों राजकुमार उस धनुष के दर्शन मात्र से संतुष्ट हो इच्छानुसार अपनी राजधानी को लौट जायँगे’ ॥६॥

एवमुक्तस्तु जनकः प्रत्युवाच महामुनिम्।
श्रूयतामस्य धनुषो यदर्थमिह तिष्ठति॥७॥

मुनिके ऐसा कहने पर राजा जनक महामुनि विश्वामित्र से बोले—’मुनिवर! इस धनुष का वृत्तान्त सुनिये। जिस उद्देश्य से यह धनुष यहाँ रखा गया, वह सब बताता हूँ॥ ७॥

देवरात इति ख्यातो निमेज्येष्ठो महीपतिः।
न्यासोऽयं तस्य भगवन् हस्ते दत्तो महात्मनः॥८॥

‘भगवन् ! निमि के ज्येष्ठ पुत्र राजा देवरात के नाम से विख्यात थे। उन्हीं महात्मा के हाथ में यह धनुष धरोहर के रूपमें दिया गया था॥८॥

दक्षयज्ञवधे पूर्वं धनुरायम्य वीर्यवान्।
विध्वंस्य त्रिदशान् रोषात् सलीलमिदमब्रवीत्॥
यस्माद् भागार्थिनो भागं नाकल्पयत मे सुराः।
वरांगानि महार्हाणि धनुषा शातयामि वः॥१०॥

‘कहते हैं, पूर्वकाल में दक्षयज्ञ-विध्वंस के समय परम पराक्रमी भगवान् शङ्कर ने खेल-खेल में ही रोष पूर्वक इस धनुष को उठाकर यज्ञ-विध्वंस के पश्चात् देवताओं से कहा—’देवगण ! मैं यज्ञ में भाग प्राप्त करना चाहता था, किंतु तुम लोगों ने नहीं दिया। इसलिये इस धनुष से मैं तुम सब लोगों के परम पूजनीय श्रेष्ठ अंग-मस्तक काट डालूँगा’ ॥ ९-१० ॥

ततो विमनसः सर्वे देवा वै मुनिपुंगव।
प्रसादयन्त देवेशं तेषां प्रीतोऽभवद् भवः॥११॥

‘मुनिश्रेष्ठ ! यह सुनकर सम्पूर्ण देवता उदास हो गये और स्तुतिके द्वारा देवाधिदेव महादेवजीको प्रसन्न करने लगे। अन्तमें उनपर भगवान् शिव प्रसन्न हो गये॥ ११॥

प्रीतियुक्तस्तु सर्वेषां ददौ तेषां महात्मनाम्।
तदेतद् देवदेवस्य धनूरत्नं महात्मनः॥१२॥
न्यासभूतं तदा न्यस्तमस्माकं पूर्वजे विभौ।

‘प्रसन्न होकर उन्होंने उन सब महामनस्वी देवताओं को यह धनुष अर्पण कर दिया। वही यह देवाधिदेव महात्मा भगवान् शङ्कर का धनुष-रत्न है, जो मेरे पूर्वज महाराज देवरात के पास धरोहर के रूपमें रखा गया था॥ १२ १/२॥

अथ मे कृषतः क्षेत्रं लांगलादुत्थिता ततः॥१३॥
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता।
भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा॥१४॥

‘एक दिन मैं यज्ञ के लिये भूमिशोधन करते समय खेत में हल चला रहा था। उसी समय हल के अग्रभागसे जोती गयी भूमि (हराई या सीता) से एक कन्या प्रकट हुई। सीता (हलद्वारा खींची गयी रेखा) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता रखा गया। पृथ्वी से प्रकट हुई वह मेरी कन्या क्रमशः बढ़कर सयानी हुई। १३-१४ ।।

वीर्यशल्केति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा।
भूतलादुत्थितां तां तु वर्धमानां ममात्मजाम्॥ १५॥
वरयामासुरागत्य राजानो मुनिपुंगव।

‘अपनी इस अयोनिजा कन्या के विषय में मैंने यह निश्चय किया कि जो अपने पराक्रम से इस धनुष को चढ़ा देगा, उसी के साथ मैं इसका ब्याह करूँगा। इस तरह इसे वीर्यशुल्का (पराक्रमरूप शुल्कवाली) बनाकर अपने घर में रख छोड़ा है। मुनिश्रेष्ठ! भूतल से प्रकट होकर दिनों-दिन बढ़ने वाली मेरी पुत्री सीता को कई राजाओं ने यहाँ आकर माँगा॥ १५ १/२॥

तेषां वरयतां कन्यां सर्वेषां पृथिवीक्षिताम्॥१६॥
वीर्यशुल्केति भगवन् न ददामि सुतामहम्।

‘परंतु भगवन् ! कन्या का वरण करने वाले उन सभी राजाओं को मैंने यह बता दिया कि मेरी कन्या वीर्यशुल्का है। (उचित पराक्रम प्रकट करने पर ही कोई पुरुष उसके साथ विवाह करने का अधिकारी हो सकता है।) यही कारण है कि मैंने आजतक किसी को अपनी कन्या नहीं दी॥ १६ १/२ ॥

ततः सर्वे नृपतयः समेत्य मुनिपुंगव॥१७॥
मिथिलामप्युपागम्य वीर्यं जिज्ञासवस्तदा।

‘मुनिपुंगव! तब सभी राजा मिलकर मिथिला में आये और पूछने लगे कि राजकुमारी सीता को प्राप्त करने के लिये कौन-सा पराक्रम निश्चित किया गया

तेषां जिज्ञासमानानां शैवं धनुरुपाहृतम्॥१८॥
न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुषस्तोलनेऽपि वा ।

 ‘मैंने पराक्रम की जिज्ञासा करने वाले उन राजाओं के सामने यह शिवजी का धनुष रख दिया; परंतु वे लोग इसे उठाने या हिलाने में भी समर्थ न हो सके॥ १८ १/२॥

तेषां वीर्यवतां वीर्यमल्पं ज्ञात्वा महामुने॥१९॥
प्रत्याख्याता नृपतयस्तन्निबोध तपोधन।

‘महामुने! उन पराक्रमी नरेशों की शक्ति बहुत थोड़ी जानकर मैंने उन्हें कन्या देने से इनकार कर दिया। तपोधन! इसके बाद जो घटना घटी, उसे भी आप सुन लीजिये॥ १९ १/२ ॥

ततः परमकोपेन राजानो मुनिपुंगव॥२०॥
अरुन्धन मिथिलां सर्वे वीर्यसंदेहमागताः।

‘मुनिप्रवर! मेरे इनकार करने पर ये सब राजा अत्यन्त कुपित हो उठे और अपने पराक्रम के विषय में संशयापन्न हो मिथिला को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये॥ २० १/२॥

आत्मानमवधूतं मे विज्ञाय नृपपुंगवाः॥२१॥
रोषेण महताविष्टाः पीडयन् मिथिलां पुरीम्।

‘मेरे द्वारा अपना तिरस्कार हुआ मानकर उन श्रेष्ठ नरेशों ने अत्यन्त रुष्ट हो मिथिलापुरी को सब ओर से पीड़ा देना प्रारम्भ कर दिया॥ २१ १/२॥

ततः संवत्सरे पूर्णे क्षयं यातानि सर्वशः॥२२॥
साधनानि मुनिश्रेष्ठ ततोऽहं भृशदुःखितः।।

‘मुनिश्रेष्ठ! पूरे एक वर्षतक वे घेरा डाले रहे। इस बीच में युद्ध के सारे साधन क्षीण हो गये इससे मुझेबड़ा दुःख हुआ। २२ १/२ ॥

ततो देवगणान् सर्वांस्तपसाहं प्रसादयम्॥२३॥
ददुश्च परमप्रीताश्चतुरंगबलं सुराः।

‘तब मैंने तपस्या के द्वारा समस्त देवताओं को प्रसन्न करने की चेष्टा की। देवता बहुत प्रसन्न हुएऔर उन्होंने मुझे चतुरंगिणी सेना प्रदान की॥ २३ १/२॥

ततो भग्ना नृपतयो हन्यमाना दिशो ययुः ॥२४॥
अवीर्या वीर्यसंदिग्धाः सामात्याः पापकारिणः।

‘फिर तो हमारे सैनिकों की मार खाकर वे सभी पापाचारी राजा, जो बलहीन थे अथवा जिनके बलवान् होने में संदेह था, मन्त्रियों सहित भागकर विभिन्न दिशाओं में चले गये॥ २४ १/२॥

तदेतन्मुनिशार्दूल धनुः परमभास्वरम्॥२५॥
रामलक्ष्मणयोश्चापि दर्शयिष्यामि सुव्रत।

‘मुनिश्रेष्ठ! यही वह परम प्रकाशमान धनुष है। उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! मैं उसे श्रीराम और लक्ष्मण को भी दिखाऊँगा॥ २५ १/२ ॥

यद्यस्य धनुषो रामः कुर्यादारोपणं मुने।
सुतामयोनिजां सीतां दद्यां दाशरथेरहम्॥ २६॥

‘मुने! यदि श्रीराम इस धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ा दें तो मैं अपनी अयोनिजा कन्या सीता को इन दशरथ कुमार के हाथमें दे दूँ’ ॥२६॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे षट्षष्टितमः सर्गः॥६६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छाछठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६६॥ “


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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