RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 51 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 51

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
एकपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 51)

हनुमान जी का श्रीराम के प्रभाव का वर्णन करते हुए रावण को समझाना

 

तं समीक्ष्य महासत्त्वं सत्त्ववान् हरिसत्तमः।
वाक्यमर्थवदव्यग्रस्तमुवाच दशाननम्॥१॥

महाबली दशमुख रावण की ओर देखते हुए शक्तिशाली वानरशिरोमणि हनुमान् ने शान्तभाव से यह अर्थयुक्त बात कही- ॥१॥

अहं सुग्रीवसंदेशादिह प्राप्तस्तवान्तिके।
राक्षसेश हरीशस्त्वां भ्राता कुशलमब्रवीत्॥२॥

‘राक्षसराज! मैं सुग्रीव का संदेश लेकर यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ। वानरराज सुग्रीव तुम्हारे भाई हैं। इसी नाते उन्होंने तुम्हारा कुशल-समाचार पूछा है॥२॥

भ्रातुः श्रृणु समादेशं सुग्रीवस्य महात्मनः।
धर्मार्थसहितं वाक्यमिह चामुत्र च क्षमम्॥३॥

‘अब तुम अपने भाई महात्मा सुग्रीव का संदेशधर्म और अर्थयुक्त वचन, जो इहलोक और परलोक में भी लाभदायक है, सुनो॥३॥

राजा दशरथो नाम रथकुञ्जरवाजिमान्।
पितेव बन्धुर्लोकस्य सुरेश्वरसमद्युतिः॥४॥

‘अभी हाल में ही दशरथनाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं, जो पिताकी भाँति प्रजा के हितैषी, इन्द्र के समान तेजस्वी तथा रथ, हाथी, घोड़े आदि से सम्पन्न थे॥ ४॥

ज्येष्ठस्तस्य महाबाहुः पुत्रः प्रियतरः प्रभुः।
पितुर्निदेशान्निष्क्रान्तः प्रविष्टो दण्डकावनम्॥
लक्ष्मणेन सह भ्राता सीतया सह भार्यया।
रामो नाम महातेजा धन॑ पन्थानमाश्रितः॥६॥

‘उनके परम प्रिय ज्येष्ठ पुत्र महातेजस्वी, प्रभावशाली महाबाहु श्रीरामचन्द्रजी पिता की आज्ञा से धर्ममार्ग का आश्रय लेकर अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ दण्डकारण्य में आये थे॥५-६॥

तस्य भार्या जनस्थाने भ्रष्टा सीतेति विश्रुता।
वैदेहस्य सुता राज्ञो जनकस्य महात्मनः॥७॥

‘सीता विदेहदेश के राजा महात्मा जनक की पुत्री हैं। जनस्थान में आने पर श्रीरामपत्नी सीता कहीं खो गयी हैं॥

मार्गमाणस्तु तां देवीं राजपुत्रः सहानुजः।
ऋष्यमूकमनुप्राप्तः सुग्रीवेण च संगतः॥८॥

‘राजकुमार श्रीराम अपने भाई के साथ उन्हीं सीतादेवी की खोज करते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर आये और सुग्रीव से मिले॥८॥

तस्य तेन प्रतिज्ञातं सीतायाः परिमार्गणम्।
सुग्रीवस्यापि रामेण हरिराज्यं निवेदितुम्॥९॥

‘सुग्रीव ने उनसे सीता को ढूँढ़ निकालने की प्रतिज्ञा की और श्रीराम ने सुग्रीव को वानरों का राज्य दिलाने का वचन दिया॥९॥

ततस्तेन मृधे हत्वा राजपुत्रेण वालिनम्।
सुग्रीवः स्थापितो राज्ये हयृक्षाणां गणेश्वरः॥१०॥

‘तत्पश्चात् राजकुमार श्रीरामचन्द्रजी ने युद्ध में वाली को मारकर सुग्रीव को किष्किन्धा के राज्य पर स्थापित कर दिया। इस समय सुग्रीव वानरों और भालुओं के समुदाय के स्वामी हैं॥ १० ॥

त्वया विज्ञातपूर्वश्च वाली वानरपुङ्गवः।
स तेन निहतः संख्ये शरेणैकेन वानरः॥११॥

‘वानरराज वाली को तो तुम पहले से ही जानते हो। उस वानरवीर को युद्धभूमि में श्रीराम ने एक ही बाण से मार गिराया था॥११॥

स सीतामार्गणे व्यग्रः सुग्रीवः सत्यसंगरः।
हरीन् सम्प्रेषयामास दिशः सर्वा हरीश्वरः॥१२॥

‘अब सत्यप्रतिज्ञ सुग्रीव सीता को खोज निकालने के लिये व्यग्र हो उठे हैं। उन वानरराज ने समस्त दिशाओं में वानरों को भेजा है।॥ १२॥

तां हरीणां सहस्राणि शतानि नियुतानि च।
दिक्षु सर्वासु मार्गन्ते ह्यधश्चोपरि चाम्बरे॥१३॥

‘इस समय सैकड़ों, हजारों और लाखों वानर सम्पूर्ण दिशाओं तथा आकाश और पाताल में भी सीताजी की खोज कर रहे हैं॥ १३॥

वैनतेयसमाः केचित् केचित् तत्रानिलोपमाः।
असङ्गगतयः शीघ्रा हरिवीरा महाबलाः॥१४॥

‘उन वानरवीरों में से कोई गरुड़ के समान वेगवान् हैं तो कोई वायु के समान। उनकी गति कहीं नहीं रुकती। वे कपिवीर शीघ्रगामी और महान् बली हैं। १४॥

अहं तु हनुमान्नाम मारुतस्यौरसः सुतः।
सीतायास्तु कृते तूर्णं शतयोजनमायतम्॥१५॥
समुद्रं लङ्गयित्वैव त्वां दिदृक्षुरिहागतः।
भ्रमता च मया दृष्टा गृहे ते जनकात्मजा॥१६॥

‘मेरा नाम हनुमान् है। मैं वायुदेवता का औरस पुत्र हूँ। सीता का पता लगाने और तुमसे मिलने के लिये सौ योजनविस्तृत समुद्र को लाँघकर तीव्र गतिसे यहाँ आया हूँ। घूमते-घूमते तुम्हारे अन्तःपुर में मैंने जनकनन्दिनी सीता को देखा है॥ १५-१६॥

तद् भवान् दृष्टधर्मार्थस्तपःकृतपरिग्रहः।
परदारान् महाप्राज्ञ नोपरोढुं त्वमर्हसि ॥१७॥

‘महामते! तुम धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानते हो। तुमने बड़े भारी तप का संग्रह किया है। अतः दूसरे की स्त्री को अपने घर में रोक रखना तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है॥१७॥

नहि धर्मविरुद्धेषु बह्वपायेषु कर्मसु।
मूलघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः॥१८॥

‘धर्मविरुद्ध कार्यों में बहुत-से अनर्थ भरे रहते हैं। वे कर्ता का जड़मूल से नाश कर डालते हैं। अतः तुम जैसे बुद्धिमान् पुरुष ऐसे कार्यों में नहीं प्रवृत्त होते॥ १८॥

कश्च लक्ष्मणमुक्तानां रामकोपानुवर्तिनाम्।
शराणामग्रतः स्थातुं शक्तो देवासुरेष्वपि॥१९॥

‘देवताओं और असुरों में भी कौन ऐसा वीर है, जो श्रीरामचन्द्रजी के क्रोध करने के पश्चात् लक्ष्मण के छोड़े हुए बाणों के सामने ठहर सके॥ १९॥

न चापि त्रिषु लोकेषु राजन् विद्येत कश्चन।
राघवस्य व्यलीकं यः कृत्वा सुखमवाप्नुयात्॥२०॥

‘राजन् ! तीनों लोकों में एक भी ऐसा प्राणी नहीं है, जो भगवान् श्रीराम का अपराध करके सुखी रह सके॥२०॥

तत् त्रिकालहितं वाक्यं धर्म्यमर्थानुयायि च।
मन्यस्व नरदेवाय जानकी प्रतिदीयताम्॥२१॥

‘इसलिये मेरी धर्म और अर्थ के अनुकूल बात, जो तीनों कालों में हितकर है, मान लो और जानकीजी को श्रीरामचन्द्रजी के पास लौटा दो॥२१॥

दृष्टा हीयं मया देवी लब्धं यदिह दुर्लभम्।
उत्तरं कर्म यच्छेषं निमित्तं तत्र राघवः॥ २२॥

‘मैंने इन देवी सीता का दर्शन कर लिया। जो दुर्लभ वस्तु थी, उसे यहाँ पा लिया इसके बाद जो कार्य शेष है, उसके साधन में श्रीरघुनाथजी ही निमित्त हैं।२२॥

लक्षितेयं मया सीता तथा शोकपरायणा।
गृहे यां नाभिजानासि पञ्चास्यामिव पन्नगीम्॥२३॥

‘मैंने यहाँ सीता की अवस्था को लक्ष्य किया है। वे निरन्तर शोक में डूबी रहती हैं। सीता तुम्हारे घर में पाँच फनवाली नागिन के समान निवास करती हैं, जिन्हें तुम नहीं जानते हो॥२३॥

नेयं जरयितुं शक्या सासुरैरमरैरपि।
विषसंस्पृष्टमत्यर्थं भुक्तमन्नमिवौजसा॥२४॥

‘जैसे अत्यन्त विषमिश्रित अन्न को खाकर कोई उसे बलपूर्वक नहीं पचा सकता, उसी प्रकार सीताजी को अपनी शक्ति से पचा लेना देवताओं और असुरों के लिये भी असम्भव है॥ २४॥

तपःसंतापलब्धस्ते सोऽयं धर्मपरिग्रहः।
न स नाशयितुं न्याय्य आत्मप्राणपरिग्रहः॥२५॥

‘तुमने तपस्या का कष्ट उठाकर धर्म के फलस्वरूप जो यह ऐश्वर्य का संग्रह किया है तथा शरीर और प्राणों को चिरकालतक धारण करने की शक्ति प्राप्त की है, उसका विनाश करना उचित नहीं ॥ २५ ॥

अवध्यतां तपोभिर्यां भवान् समनुपश्यति।
आत्मनः सासुरैर्देवैर्हेतुस्तत्राप्ययं महान्॥२६॥

‘तुम तपस्या के प्रभाव से देवताओं और असुरों द्वारा जो अपनी अवध्यता देख रहे हो, उसमें भी तपस्याजनित यह धर्म ही महान् कारण है (अथवा उस अवध्यता के होते हुए भी तुम्हारे वध का दूसरा महान् कारण उपस्थित है) ॥२६॥

सुग्रीवो न च देवोऽयं न यक्षो न च राक्षसः।
मानुषो राघवो राजन् सुग्रीवश्च हरीश्वरः।
तस्मात् प्राणपरित्राणं कथं राजन् करिष्यसि॥२७॥

‘राक्षसराज! सुग्रीव और श्रीरामचन्द्रजी न तो देवता हैं, न यक्ष हैं और न राक्षस ही हैं। श्रीरघुनाथजी मनुष्य हैं और सुग्रीव वानरों के राजा। अतः उनके हाथ से तुम अपने प्राणों की रक्षा कैसे करोगे? ॥ २७॥

न तु धर्मोपसंहारमधर्मफलसंहितम्।
तदेव फलमन्वेति धर्मश्चाधर्मनाशनः॥२८॥

‘जो पुरुष प्रबल अधर्म के फल से बँधा हुआ है,उसे धर्म का फल नहीं मिलता। वह उस अधर्मफल को ही पाता है। हाँ, यदि उस अधर्म के बाद किसी प्रबल धर्म का अनुष्ठान किया गया हो तो वह पहले के अधर्म का नाशक होता है* ॥ २८॥
* जैसा कि श्रुति का वचन है-‘धर्मेण पापमपनुदति।’ अर्थात् धर्म से मनुष्य अपने पाप को दूर करता है। स्मृतियों में बताये गये प्रायश्चित्त कृच्छ्रव्रत आदि भी इसी बात के समर्थक हैं।

प्राप्तं धर्मफलं तावद् भवता नात्र संशयः।
फलमस्याप्यधर्मस्य क्षिप्रमेव प्रपत्स्यसे॥ २९॥

‘तुमने पहले जो धर्म किया था, उसका पूरा-पूरा फल तो यहाँ पा लिया, अब इस सीताहरणरूपी अधर्म का फल भी तुम्हें शीघ्र ही मिलेगा॥२९॥

जनस्थानवधं बुद्ध्वा वालिनश्च वधं तथा।
रामसुग्रीवसख्यं च बुद्ध्यस्व हितमात्मनः॥३०॥

‘जनस्थान के राक्षसों का संहार, वाली का वध और श्रीराम तथा सुग्रीव की मैत्री—इन तीनों कार्यों को अच्छी तरह समझ लो। उसके बाद अपने हित का विचार करो॥३०॥

कामं खल्वहमप्येकः सवाजिरथकुञ्जराम्।
लङ्कां नाशयितुं शक्तस्तस्यैष तु न निश्चयः॥३१॥

‘यद्यपि मैं अकेला ही हाथी, घोड़े और रथोंसहित समूची लङ्का का नाश कर सकता हूँ, तथापि श्रीरघुनाथजी का ऐसा विचार नहीं है उन्होंने मुझे इस कार्य के लिये आज्ञा नहीं दी है॥ ३१॥

रामेण हि प्रतिज्ञातं हयृक्षगणसंनिधौ।
उत्सादनममित्राणां सीता यैस्तु प्रधर्षिता॥३२॥

“जिन लोगों ने सीता का तिरस्कार किया है, उन शत्रुओं का स्वयं ही संहार करने के लिये श्रीरामचन्द्रजी ने वानरों और भालुओं के सामने प्रतिज्ञा की है॥३२॥

अपकुर्वन् हि रामस्य साक्षादपि पुरंदरः।
न सुखं प्राप्नुयादन्यः किं पुनस्त्वद्विधो जनः॥३३॥

‘भगवान् श्रीराम का अपराध करके साक्षात् इन्द्र भी सुख नहीं पा सकते, फिर तुम्हारे-जैसे साधारण लोगों की तो बात ही क्या है ? ॥ ३३॥

यां सीतेत्यभिजानासि येयं तिष्ठति ते गृहे।
कालरात्रीति तां विद्धि सर्वलङ्काविनाशिनीम्॥३४॥

‘जिनको तुम सीता के नाम से जानते हो और जो इस समय तुम्हारे अन्तःपुर में मौजूद हैं, उन्हें सम्पूर्ण लङ्का का विनाश करने वाली कालरात्रि समझो॥ ३४ ॥

तदलं कालपाशेन सीताविग्रहरूपिणा।
स्वयं स्कन्धावसक्तेन क्षेममात्मनि चिन्त्यताम्॥३५॥

‘सीता का शरीर धारण करके तुम्हारे पास काल की फाँसी आ पहुँची है, उसमें स्वयं गला फँसाना ठीक नहीं है; अतः अपने कल्याण की चिन्ता करो॥ ३५॥

सीतायास्तेजसा दग्धां रामकोपप्रदीपिताम्।
दह्यमानामिमां पश्य पुरीं साट्टप्रतोलिकाम्॥३६॥

‘देखो, अट्टालिकाओं और गलियोंसहित यह लङ्कापुरी सीताजी के तेज और श्रीराम की क्रोधाग्नि से जलकर भस्म होने जा रही है (बचा सको तो बचाओ) ॥ ३६॥

स्वानि मित्राणि मन्त्रींश्च ज्ञातीन् भ्रातृन् सुतान्हितान्।
भोगान् दारांश्च लङ्कां च मा विनाशमुपानय॥३७॥

‘इन मित्रों, मन्त्रियों, कुटुम्बीजनों, भाइयों, पुत्रों, हितकारियों, स्त्रियों, सुख-भोग के साधनों तथा समूची लङ्का को मौत के मुख में न झोंको॥ ३७॥

सत्यं राक्षसराजेन्द्र शृणुष्व वचनं मम।
रामदासस्य दूतस्य वानरस्य विशेषतः॥३८॥

‘राक्षसों के राजाधिराज! मैं भगवान् श्रीराम का दास हूँ, दूत हूँ और विशेषतः वानर हूँ। मेरी सच्ची बात सुनो—॥

सर्वांल्लोकान् सुसंहृत्य सभूतान् सचराचरान्।
पुनरेव तथा स्रष्टुं शक्तो रामो महायशाः॥ ३९॥

‘महायशस्वी श्रीरामचन्द्रजी चराचर प्राणियोंसहित सम्पूर्ण लोकों का संहार करके फिर उनका नये सिरे से निर्माण करने की शक्ति रखते हैं॥३९॥

देवासुरनरेन्द्रेषु यक्षरक्षोरगेषु च।
विद्याधरेषु नागेषु गन्धर्वेषु मृगेषु च॥४०॥
सिद्धेषु किंनरेन्द्रेषु पतत्रिषु च सर्वतः।
सर्वत्र सर्वभूतेषु सर्वकालेषु नास्ति सः॥४१॥
यो रामं प्रति युध्येत विष्णुतुल्यपराक्रमम्।

‘भगवान् श्रीराम श्रीविष्णु के तुल्य पराक्रमी हैं। देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, राक्षस, सर्प, विद्याधर, नाग, गन्धर्व, मृग, सिद्ध, किंनर, पक्षी एवं अन्य समस्त प्राणियों में कहीं किसी समय कोई भी ऐसा नहीं है, जो श्रीरघुनाथजी के साथ लोहा ले सके। ४०-४१ १/२॥

सर्वलोकेश्वरस्येह कृत्वा विप्रियमीदृशम्।
रामस्य राजसिंहस्य दुर्लभं तव जीवितम्॥४२॥

‘सम्पूर्ण लोकों के अधीश्वर राजसिंह श्रीराम का ऐसा महान् अपराध करके तुम्हारा जीवित रहना कठिन है॥

देवाश्च दैत्याश्च निशाचरेन्द्र गन्धर्वविद्याधरनागयक्षाः।
रामस्य लोकत्रयनायकस्य स्थातुं न शक्ताः समरेषु सर्वे॥४३॥

‘निशाचरराज! श्रीरामचन्द्रजी तीनों लोकों के स्वामी हैं। देवता, दैत्य, गन्धर्व, विद्याधर, नाग तथा यक्ष-ये सब मिलकर भी युद्ध में उनके सामने नहीं टिक सकते॥ ४३॥

ब्रह्मा स्वयम्भूश्चतुराननो वारुद्रस्त्रिनेत्रस्त्रिपुरान्तको वा।
इन्द्रो महेन्द्रः सुरनायको वा स्थातुं न शक्ता युधि राघवस्य॥४४॥

‘चार मुखोंवाले स्वयम्भू ब्रह्मा, तीन नेत्रोंवाले त्रिपुरनाशक रुद्र अथवा देवताओं के स्वामी महान् ऐश्वर्यशाली इन्द्र भी समराङ्गण में श्रीरघुनाथजी के सामने नहीं ठहर सकते ॥४४॥

स सौष्ठवोपेतमदीनवादिनः कपेनिशम्याप्रतिमोऽप्रियं वचः।
दशाननः कोपविवृत्तलोचनः समादिशत् तस्य वधं महाकपेः॥४५॥

वीरभाव से निर्भयतापूर्वक भाषण करने वाले महाकपि हनुमान जी की बातें बड़ी सुन्दर एवं युक्तियुक्त थीं, तथापि वे रावण को अप्रिय लगीं। उन्हें सुनकर अनुपम शक्तिशाली दशानन रावण ने क्रोध से आँखें तरेरकर सेवकों को उनके वध के लिये आज्ञा दी॥ ४५ ॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे एकपञ्चाशः सर्गः॥५१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में इक्यावनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५१॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

उत्कृष्ट व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! आपका आर्थिक सहयोग हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण में सहयोगी होगा। RamCharit.in व SatyaSanatan.com धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: