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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 58 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 58

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
अष्टपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 58)

जाम्बवान् के पूछने पर हनुमान जी का अपनी लङ्का यात्रा का सारा वृत्तान्त सुनाना

 

ततस्तस्य गिरेः शृङ्गे महेन्द्रस्य महाबलाः।
हनुमत्प्रमुखाः प्रीतिं हरयो जग्मुरुत्तमाम्॥१॥

तदनन्तर हनुमान् आदि महाबली वानर महेन्द्रगिरि के शिखर पर परस्पर मिलकर बड़े प्रसन्न हुए॥१॥

प्रीतिमत्सूपविष्टेषु वानरेषु महात्मसु।
तं ततः प्रतिसंहृष्टः प्रीतियुक्तं महाकपिम्॥२॥
जाम्बवान् कार्यवृत्तान्तमपृच्छदनिलात्मजम्।
कथं दृष्टा त्वया देवी कथं वा तत्र वर्तते॥३॥
तस्यां चापि कथं वृत्तः क्रूरकर्मा दशाननः।
तत्त्वतः सर्वमेतन्नः प्रब्रूहि त्वं महाकपे॥४॥

जब सभी महामनस्वी वानर वहाँ प्रसन्नतापूर्वक बैठ गये, तब हर्ष में भरे हुए जाम्बवान् ने उन पवनकुमार महाकपि हनुमान् से प्रेमपूर्वक कार्यसिद्धि का समाचार पूछा—’महाकपे! तुमने देवी सीता को कैसे देखा? वे वहाँ किस प्रकार रहती हैं? और क्रूरकर्मा दशानन उनके प्रति कैसा बर्ताव करता है? ये सब बातें तुम हमें ठीक-ठीक बताओ॥ २–४॥

सम्मानिता कथं देवी किं च सा प्रत्यभाषत।
श्रुतार्थाश्चिन्तयिष्यामो भूयः कार्यविनिश्चयम्॥

‘तुमने देवी सीता को किस प्रकार ढूँढ निकाला और उन्होंने तुमसे क्या कहा? इन सब बातों को सुनकर हमलोग आगे के कार्यक्रम का निश्चित रूप से विचार करेंगे॥

यश्चार्थस्तत्र वक्तव्यो गतैरस्माभिरात्मवान्।
रक्षितव्यं च यत्तत्र तद् भवान् व्याकरोतु नः॥

‘वहाँ किष्किन्धा में चलने पर हमलोगों को कौन-सी बात कहनी चाहिये और किस बात को गुप्त रखना चाहिये? तुम बुद्धिमान् हो, इसलिये तुम्हीं इन सब बातों पर प्रकाश डालो’॥ ६॥

स नियुक्तस्ततस्तेन सम्प्रहृष्टतनूरुहः।
नमस्यन शिरसा देव्यै सीतायै प्रत्यभाषत॥७॥

जाम्बवान् के इस प्रकार पूछने पर हनुमान जी के शरीर में रोमाञ्च हो आया। उन्होंने सीतादेवी को मनही-मन मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा- ॥७॥

प्रत्यक्षमेव भवतां महेन्द्राग्रात् खमाप्लुतः।
उदधेर्दक्षिणं पारं काङ्खमाणः समाहितः॥८॥

‘मैं आपलोगों के सामने ही समुद्र के दक्षिण तट पर जाने की इच्छा से सावधान हो महेन्द्रपर्वत के शिखर से आकाश में उछला था॥ ८॥

गच्छतश्च हि मे घोरं विघ्नरूपमिवाभवत्।
काञ्चनं शिखरं दिव्यं पश्यामि सुमनोहरम्॥९॥
स्थितं पन्थानमावृत्य मेने विघ्नं च तं नगम्।

‘आगे बढ़ते ही मैंने देखा एक परम मनोहर दिव्य सुवर्णमय शिखर प्रकट हुआ है, जो मेरी राह रोककर खड़ा है। वह मेरी यात्रा के लिये भयानक विघ्न-सा प्रतीत हुआ। मैंने उसे मूर्तिमान् विघ्न ही माना॥ ९ १/२॥

उपसंगम्य तं दिव्यं काञ्चनं नगमुत्तमम्॥१०॥
कृता मे मनसा बुद्धिर्भेत्तव्योऽयं मयेति च।

‘उस दिव्य उत्तम सुवर्णमय पर्वत के निकट पहुँचने पर मैंने मन-ही-मन यह विचार किया कि मैं इसे विदीर्ण कर डालूँ॥ १० १/२॥

प्रहतस्य मया तस्य लाङ्गलेन महागिरेः॥११॥
शिखरं सूर्यसंकाशं व्यशीर्यत सहस्रधा।

‘फिर तो मैंने अपनी पूँछ से उसपर प्रहार किया। उसकी टक्कर लगते ही उस महान् पर्वत के सूर्यतुल्य तेजस्वी शिखर के सहस्रों टुकड़े हो गये॥ ११ १/२॥

व्यवसायं च तं बुद्ध्वा स होवाच महागिरिः॥१२॥
पुत्रेति मधुरां वाणीं मनः प्रह्लादयन्निव।
पितृव्यं चापि मां विद्धि सखायं मातरिश्वनः॥

‘मेरे उस निश्चय को समझकर महागिरि मैनाक ने मन को आह्लादित-सा करते हुए मधुर वाणी में ‘पुत्र’ कहकर मुझे पुकारा और कहा—’मुझे अपना चाचा समझो। मैं तुम्हारे पिता वायुदेवता का मित्र हूँ॥ १२-१३॥

मैनाकमिति विख्यातं निवसन्तं महोदधौ।
पक्षवन्तः पुरा पुत्र बभूवुः पर्वतोत्तमाः॥१४॥

‘मेरा नाम मैनाक है और मैं यहाँ महासागर में निवास करता हूँ। बेटा! पूर्वकाल में सभी श्रेष्ठ पर्वत पङ्खधारी हुआ करते थे॥१४॥

छन्दतः पृथिवीं चेरुर्बाधमानाः समन्ततः।
श्रुत्वा नगानां चरितं महेन्द्रः पाकशासनः॥१५॥
वज्रेण भगवान् पक्षौ चिच्छेदैषां सहस्रशः।
अहं तु मोचितस्तस्मात् तव पित्रा महात्मना।१६॥

‘वे समस्त प्रजा को पीड़ा देते हुए अपनी इच्छा के अनुसार सब ओर विचरते रहते थे। पर्वतों का ऐसा आचरण सुनकर पाकशासन भगवान् इन्द्र ने वज्र से इन सहस्रों पर्वतों के पङ काट डाले; परंतु उस समय तुम्हारे महात्मा पिता ने मुझे इन्द्र के हाथ से बचा लिया॥१५-१६॥

मारुतेन तदा वत्स प्रक्षिप्तो वरुणालये।
राघवस्य मया साह्ये वर्तितव्यमरिंदम॥१७॥
रामो धर्मभृतां श्रेष्ठो महेन्द्रसमविक्रमः।

‘बेटा ! उस समय वायुदेवता ने मुझे समुद्र में लाकर डाल दिया था (जिससे मेरे पङ्ख बच गये); अतः शत्रुदमन वीर! मुझे श्रीरघुनाथजी की सहायता के कार्य में अवश्य तत्पर होना चाहिये; क्योंकि भगवान् श्रीराम धर्मात्माओं में श्रेष्ठ तथा इन्द्रतुल्य पराक्रमी हैं’। १७ १/२॥

एतच्छ्रुत्वा मया तस्य मैनाकस्य महात्मनः॥१८॥
कार्यमावेद्य च गिरेरुद्धतं वै मनो मम।
तेन चाहमनुज्ञातो मैनाकेन महात्मना॥१९॥

‘महामना मैनाक की यह बात सुनकर मैंने अपना कार्य उन्हें बताया और उनकी आज्ञा लेकर फिर मेरा मन वहाँ से आगे जाने को उत्साहित हुआ। महाकाय मैनाक ने उस समय मुझे जाने की आज्ञा दे दी। १८-१९॥

स चाप्यन्तर्हितः शैलो मानुषेण वपुष्मता।
शरीरेण महाशैलः शैलेन च महोदधौ॥२०॥

‘वह महान् पर्वत भी अपने मानवशरीर से तो अन्तर्हित हो गया; परंतु पर्वतरूप से महासागर में ही स्थित रहा ॥ २०॥

उत्तमं जवमास्थाय शेषमध्वानमास्थितः।
ततोऽहं सुचिरं कालं जवेनाभ्यगमं पथि॥२१॥

‘फिर मैं उत्तम वेग का आश्रय ले शेष मार्ग पर आगे बढ़ा और दीर्घकालतक बड़े वेग से उस पथ पर चलता रहा॥ २१॥

ततः पश्याम्यहं देवीं सुरसां नागमातरम्।
समुद्रमध्ये सा देवी वचनं चेदमब्रवीत्॥ २२॥

‘तत्पश्चात् बीच समुद्र में मुझे नागमाता सुरसादेवी का दर्शन हुआ। देवी सुरसा मुझसे इस प्रकार बोलीं-॥

मम भक्ष्यः प्रदिष्टस्त्वममरैर्हरिसत्तम।
ततस्त्वां भक्षयिष्यामि विहितस्त्वं हि मे सुरैः॥२३॥

‘कपिश्रेष्ठ! देवताओं ने तुम्हें मेरा भक्ष्य बताया है, इसलिये मैं तुम्हारा भक्षण करूँगी; क्योंकि सारे देवताओंने आज तुम्हें ही मेरा आहार नियत किया है’ ॥२३॥

एवमुक्तः सुरसया प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः।
विवर्णवदनो भूत्वा वाक्यं चेदमुदीरयम्॥२४॥

‘सुरसा के ऐसा कहने पर मैं हाथ जोड़कर विनीतभाव से उसके सामने खड़ा हो गया और उदास मुख होकर यों बोला— ॥२४॥

रामो दाशरथिः श्रीमान् प्रविष्टो दण्डकावनम्।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया च परंतपः॥२५॥

‘देवि! शत्रुओं को संताप देने वाले दशरथनन्दन श्रीमान् राम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ दण्डकारण्य में आये थे॥२५॥

तस्य सीता हृता भार्या रावणेन दुरात्मना।
तस्याः सकाशं दूतोऽहं गमिष्ये रामशासनात्॥२६॥

‘वहाँ दुरात्मा रावण ने उनकी पत्नी सीता को हर लिया। मैं इस समय श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा से दूत होकर उन्हीं सीतादेवी के पास जा रहा हूँ॥२६॥

कर्तुमर्हसि रामस्य साहाय्यं विषये सती।
अथवा मैथिलीं दृष्ट्वा रामं चाक्लिष्टकारिणम्॥२७॥
आगमिष्यामि ते वक्त्रं सत्यं प्रतिशृणोमि ते।

‘तुम भी श्रीरामचन्द्रजी के ही राज्य में रहती हो, इसलिये तुम्हें उनकी सहायता करनी चाहिये। अथवा मैं मिथिलेशकुमारी सीता तथा अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन करके तुम्हारे मुख में आ जाऊँगा, यह तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ’॥ २७ १/२ ॥

एवमुक्ता मया सा तु सुरसा कामरूपिणी ॥२८॥
अब्रवीन्नातिवर्तेत कश्चिदेष वरो मम।

‘मेरे ऐसा कहने पर इच्छानुसार रूप धारण करने वाली सुरसा बोली—’मुझे यह वर मिला हुआ है कि मेरे आहार के रूप में निकट आया हुआ कोई भी प्राणी मुझे टालकर आगे नहीं जा सकता’ ॥ २८ १/२॥

एवमुक्तः सुरसया दशयोजनमायतः॥२९॥
ततोऽर्धगुणविस्तारो बभूवाहं क्षणेन तु।
मत्प्रमाणाधिकं चैव व्यादितं तु मुखं तया॥३०॥

‘जब सुरसा ने ऐसा कहा—उस समय मेरा शरीर दस योजन बड़ा था, किंतु एक ही क्षण में मैं उससे ड्योढ़ा बड़ा हो गया। तब सुरसा ने भी अपने मुँह को मेरे शरीर की अपेक्षा अधिक फैला लिया॥ २९-३०॥

तद् दृष्ट्वा व्यादितं त्वास्यं ह्रस्वं ह्यकरवं पुनः।
तस्मिन् मुहूर्ते च पुनर्बभूवाङ्गुष्ठसम्मितः॥३१॥

‘उसके फैले हुए मुँह को देखकर मैंने फिर अपने स्वरूप को छोटा कर लिया। उसी मुहूर्त में मेरा शरीर अँगूठे के बराबर हो गया॥ ३१॥

अभिपत्याशु तद्वक्त्रं निर्गतोऽहं ततः क्षणात् ।
अब्रवीत् सुरसा देवी स्वेन रूपेण मां पुनः॥३२॥

‘फिर तो मैं सुरसा के मुँह में शीघ्र ही घुस गया और तत्क्षण बाहर निकल आया। उस समय सुरसा देवी ने अपने दिव्य रूप में स्थित होकर मुझसे कहा—॥३२॥

अर्थसिद्धौ हरिश्रेष्ठ गच्छ सौम्य यथासुखम्।
समानय च वैदेहीं राघवेण महात्मना॥३३॥

‘सौम्य! कपिश्रेष्ठ! अब तुम कार्यसिद्धि के लिये सुखपूर्वक यात्रा करो और विदेहनन्दिनी सीता को महात्मा रघुनाथजी से मिलाओ॥३३॥

सुखी भव महाबाहो प्रीतास्मि तव वानर।
ततोऽहं साधुसाध्वीति सर्वभूतैः प्रशंसितः॥ ३४॥

‘महाबाहु वानर! तुम सुखी रहो। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ।’ उस समय सभी प्राणियों ने ‘साधु-साधु’ कहकर मेरी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥ ३४॥

ततोऽन्तरिक्षं विपुलं प्लुतोऽहं गरुडो यथा।
छाया मे निगृहीता च न च पश्यामि किंचन॥३५॥

‘तत्पश्चात् मैं गरुड़ की भाँति उस विशाल आकाश में फिर उड़ने लगा। उस समय किसी ने मेरी परछाईं पकड़ ली, किंतु मैं किसी को देख नहीं पाता था॥ ३५॥

सोऽहं विगतवेगस्तु दिशो दश विलोकयन्।
न किंचित् तत्र पश्यामि येन मे विहता गतिः॥३६॥

‘छाया पकड़ी जाने से मेरा वेग अवरुद्ध हो गया, अतः मैं दसों दिशाओं की ओर देखने लगा; परंतु जिसने मेरी गति रोक दी थी, ऐसा कोई प्राणी मुझे वहाँ नहीं दिखायी दिया॥ ३६॥

अथ मे बुद्धिरुत्पन्ना किंनाम गमने मम।
ईदृशो विघ्न उत्पन्नो रूपमत्र न दृश्यते॥३७॥

‘तब मेरे मन में यह चिन्ता हुई कि मेरी यात्रा में ऐसा कौन-सा विघ्न पैदा हो गया, जिसका यहाँ रूप नहीं दिखायी दे रहा है॥ ३७॥

अधोभागे तु मे दृष्टिः शोचतः पतिता तदा।
तत्राद्राक्षमहं भीमां राक्षसी सलिलेशयाम्॥३८॥

‘इसी सोच में पड़े-पड़े मैंने जब नीचे की ओर दृष्टि डाली, तब मुझे एक भयानक राक्षसी दिखायी दी, जो जल में निवास करती थी॥ ३८॥

प्रहस्य च महानादमुक्तोऽहं भीमया तया।
अवस्थितमसम्भ्रान्तमिदं वाक्यमशोभनम्॥३९॥

‘उस भीषण निशाचरी ने बड़े जोर से अट्टहास करके निर्भय खड़े हुए मुझसे गरज-गरजकर यह अमङ्गलजनक बात कही— ॥३९॥

क्वासि गन्ता महाकाय क्षुधिताया ममेप्सितः।
भक्षः प्रीणय मे देहं चिरमाहारवर्जितम्॥४०॥

‘विशालकाय वानर! कहाँ जाओगे? मैं भूखी हुई हूँ। तुम मेरे लिये मनोवाञ्छित भोजन हो। आओ, चिरकाल से निराहार पड़े हुए मेरे शरीर और प्राणों को तृप्त करो’ ॥ ४०॥

बाढमित्येव तां वाणी प्रत्यगृह्णामहं ततः।
आस्यप्रमाणादधिकं तस्याः कायमपूरयम्॥४१॥

‘तब मैंने बहुत अच्छा’ कहकर उसकी बात मान ली और अपने शरीर को उसके मुख के प्रमाण से बहुत अधिक बढ़ा लिया॥ ४१॥

तस्याश्चास्यं महद् भीमं वर्धते मम भक्षणे।
न तु मां सा नु बुबुधे मम वा विकृतं कृतम्॥४२॥

‘परंतु उसका विशाल और भयानक मुख भी मुझे भक्षण करने के लिये बढ़ने लगा। उसने मुझे या मेरे प्रभाव को नहीं जाना तथा मैंने जो छल किया था, वह भी उसकी समझ में नहीं आया॥ ४२ ॥

ततोऽहं विपुलं रूपं संक्षिप्य निमिषान्तरात्।
तस्या हृदयमादाय प्रपतामि नभःस्थलम्॥४३॥

‘फिर तो पलक मारते-मारते मैंने अपने विशाल रूप को अत्यन्त छोटा बना लिया और उसका कलेजा निकालकर आकाश में उड़ गया॥४३॥

सा विसृष्टभुजा भीमा पपात लवणाम्भसि।
मया पर्वतसंकाशा निकृत्तहृदया सती॥४४॥

‘मेरे द्वारा कलेजे के काट लिये जाने पर पर्वत के समान भयानक शरीरवाली वह दुष्टा राक्षसी अपनी दोनों बाँहें शिथिल हो जाने के कारण समुद्र के जल में गिर पड़ी॥४४॥

शृणोमि खगतानां च वाचः सौम्या महात्मनाम्।
राक्षसी सिंहिका भीमा क्षिप्रं हनुमता हता॥

‘उस समय मुझे आकाशचारी सिद्ध महात्माओं की यह सौम्य वाणी सुनायी दी—’अहो! इस सिंहिका नामवाली भयानक राक्षसी को हनुमान जी ने शीघ्र ही मार डाला’ ॥ ४५ ॥

तां हत्वा पुनरेवाहं कृत्यमात्ययिकं स्मरन्।
गत्वा च महदध्वानं पश्यामि नगमण्डितम्॥४६॥
दक्षिणं तीरमुदधेर्लङ्का यत्र गता पुरी।

‘उसे मारकर मैंने फिर अपने उस आवश्यक कार्यपर ध्यान दिया, जिसकी पूर्ति में अधिक विलम्ब हो चुका था। उस विशाल मार्ग को समाप्त करके मैंने पर्वतमालाओं से मण्डित समुद्र का वह दक्षिण किनारा देखा, जहाँ लङ्कापुरी बसी हुई है॥ ४६ १/२॥

अस्तं दिनकरे याते रक्षसां निलयं पुरीम्॥४७॥
प्रविष्टोऽहमविज्ञातो रक्षोभिर्भीमविक्रमैः।

‘सूर्यदेव के अस्ताचल को चले जाने पर मैंने राक्षसों की निवासस्थानभूता लङ्कापुरी में प्रवेश किया, किंतु वे भयानक पराक्रमी राक्षस मेरे विषयमें कुछ भी जान न सके॥ ४७ १/२॥

तत्र प्रविशतश्चापि कल्पान्तघनसप्रभा॥४८॥
अट्टहासं विमुञ्चन्ती नारी काप्युत्थिता पुरः।

‘मेरे प्रवेश करते ही प्रलयकाल के मेघ की भाँति काली कान्तिवाली एक स्त्री अट्टहास करती हुई मेरे सामने खड़ी हो गयी॥ ४८ १/२॥

जिघांसन्तीं ततस्तां तु ज्वलदग्निशिरोरुहाम्॥४९॥
सव्यमुष्टिप्रहारेण पराजित्य सुभैरवाम्।
प्रदोषकाले प्रविशं भीतयाहं तयोदितः॥५०॥

‘उसके सिर के बाल प्रज्वलित अग्नि के समान दिखायी देते थे। वह मुझे मार डालना चाहती थी। यह देख मैंने बायें हाथ के मुक्के से प्रहार करके उस भयंकर निशाचरी को परास्त कर दिया और प्रदोषकाल में पुरी के भीतर प्रविष्ट हुआ। उस समय उस डरी हुई निशाचरी ने मुझसे इस प्रकार कहा— ॥ ४९-५०॥

अहं लङ्कापुरी वीर निर्जिता विक्रमेण ते।
यस्मात् तस्माद् विजेतासि सर्वरक्षांस्यशेषतः॥५१॥

‘वीर! मैं साक्षात् लङ्कापुरी हूँ। तुमने अपने पराक्रम से मुझे जीत लिया है, इसलिये तुम समस्त राक्षसों पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर लोगे’॥५१॥

तत्राहं सर्वरात्रं तु विचरञ्जनकात्मजाम्।
रावणान्तःपुरगतो न चापश्यं सुमध्यमाम्॥५२॥

‘वहाँ सारी रात नगर में घर-घर घूमने और रावण के अन्तःपुरमें पहुँचने पर भी मैंने सुन्दर कटिप्रदेशवाली जनकनन्दिनी सीता को नहीं देखा॥५२॥

ततः सीतामपश्यंस्तु रावणस्य निवेशने।
शोकसागरमासाद्य न पारमुपलक्षये॥५३॥

‘रावण के महल में सीता को न देखने पर मैं शोकसागर में डूब गया। उस समय मुझे उस शोक का कहीं पार नहीं दिखायी देता था॥५३॥

शोचता च मया दृष्टं प्राकारेणाभिसंवृतम्।
काञ्चनेन विकृष्टेन गृहोपवनमुत्तमम्॥५४॥

‘सोच में पड़े-पड़े ही मैंने एक उत्तम गृहोद्यान देखा, जो सोने के बने हुए सुन्दर परकोटे से घिरा हुआ था॥ ५४॥

सप्राकारमवप्लुत्य पश्यामि बहुपादपम्।
अशोकवनिकामध्ये शिंशपापादपो महान्॥५५॥

‘तब उस परकोटे को लाँघकर मैंने उस गृहोद्यान को देखा, जो बहुसंख्यक वृक्षों से भरा हुआ था। उस अशोकवाटिका के बीच में मुझे एक बहुत ऊँचा अशोक-वृक्ष दिखायी दिया॥५५॥

तमारुह्य च पश्यामि काञ्चनं कदलीवनम्।
अदूराच्छिंशपावृक्षात् पश्यामि वरवर्णिनीम्॥५६॥

‘उसपर चढ़कर मैंने सुवर्णमय कदलीवन देखा तथा उस अशोक-वृक्ष के पास ही मुझे सर्वाङ्गसुन्दरी सीताजी का दर्शन हुआ॥५६॥

श्यामां कमलपत्राक्षीमुपवासकृशाननाम्।
तदेकवासःसंवीतां रजोध्वस्तशिरोरुहाम्॥५७॥

वे सदा सोलह वर्ष की-सी अवस्था में युक्त दिखायी देती है। उनके नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान सुन्दर हैं। सीताजी उपवास करने के कारण अत्यन्त दुर्बल हो गयी हैं और उनकी यह दुर्बलता उनका मुख देखते ही स्पष्ट हो जाती है। वे एक ही वस्त्र पहनी हुई हैं और उनके केश धूल से धूसर हो गये हैं॥ ५७॥

शोकसंतापदीनाङ्गी सीतां भर्तृहिते स्थिताम्।
राक्षसीभिर्विरूपाभिः क्रूराभिरभिसंवृताम्॥५८॥
मांसशोणितभक्ष्याभिर्व्याघ्रीभिर्हरिणीं यथा।

‘उनके सारे अङ्ग शोक-संताप से दीन दिखायी देते हैं। वे अपने स्वामी के हित-चिन्तन में तत्पर हैं। रक्तमांस का भोजन करने वाली क्रूर एवं कुरूप राक्षसियाँ उन्हें चारों ओर से घेरकर उनकी रखवाली करती हैं। ठीक उसी तरह जैसे बहुत-सी बाघिनें किसी हरिणी को घेरे हुए खड़ी हों॥ ५८ १/२ ॥

सा मया राक्षसीमध्ये तय॑माना मुहुर्मुहुः॥५९॥
एकवेणीधरा दीना भर्तृचिन्तापरायणा।
भूमिशय्या विवर्णाङ्गी पद्मिनीव हिमागमे॥६०॥

‘मैंने देखा, वे राक्षसियों के बीचमें बैठी थीं और राक्षसियाँ उन्हें बारम्बार धमका रही थीं। वे सिरपर एक ही वेणी धारण किये दीनभाव से अपने पति के चिन्तन में तल्लीन हो रही थीं। धरती ही उनकी शय्या है। जैसे हेमन्त-ऋतु आने पर कमलिनी सूखकर श्रीहीन हो जाती है, उसी प्रकार उनके सारे अङ्ग कान्तिहीन हो गये हैं। ५९-६० ॥

रावणाद् विनिवृत्तार्था मर्तव्ये कृतनिश्चया।
कथंचिन्मृगशावाक्षी तूर्णमासादिता मया॥६१॥

‘रावण की ओर से उनका हार्दिक भाव सर्वथा दूर है। वे मरने का निश्चय कर चुकी हैं। उसी अवस्था में मैं किसी तरह शीघ्रतापूर्वक मृगनयनी सीता के पास पहुँच सका॥ ६१॥

तां दृष्ट्वा तादृशीं नारी रामपत्नी यशस्विनीम्।
तत्रैव शिंशपावृक्षे पश्यन्नहमवस्थितः॥६२॥

‘वैसी अवस्था में पड़ी हुई उन यशस्विनी नारी श्रीरामपत्नी सीता को अशोक-वृक्ष के नीचे बैठी देख मैं भी उस वृक्ष पर स्थित हो गया और उन्हें वहीं से निहारने लगा॥ ६२॥

ततो हलहलाशब्दं काञ्चीनूपुरमिश्रितम्।
शृणोम्यधिकगम्भीरं रावणस्य निवेशने॥६३॥

‘इतने ही में रावण के महल में करधनी और नूपुरों की झनकार से मिला हुआ अधिक गम्भीर कोलाहल सुनायी पड़ा॥ ६३॥

ततोऽहं परमोद्विग्नः स्वरूपं प्रत्यसंहरम्।
अहं च शिंशपावृक्षे पक्षीव गहने स्थितः॥६४॥

‘फिर तो मैंने अत्यन्त उद्विग्न होकर अपने स्वरूप को समेट लिया-छोटा बना लिया और पक्षी के समान उस गहन शिंशपा (अशोक) वृक्ष में छिपा बैठा रहा॥६४॥

ततो रावणदाराश्च रावणश्च महाबलः।
तं देशमनुसम्प्राप्तो यत्र सीताभवत् स्थिता॥६५॥

‘इतने ही में रावण की स्त्रियाँ और महाबली रावणये सब-के-सब उस स्थान पर आ पहुँचे, जहाँ सीतादेवी विराजमान थीं॥६५॥

तं दृष्ट्वाथ वरारोहा सीता रक्षोगणेश्वरम्।
संकुच्योरू स्तनौ पीनौ बाहुभ्यां परिरभ्य च॥

‘राक्षसों के स्वामी रावण को देखते ही सुन्दर कटिप्रदेशवाली सीता अपनी जाँघों को सिकोड़कर और उभरे हुए दोनों स्तनों को भुजाओं से ढककर बैठ गयीं॥

वित्रस्तां परमोद्विग्नां वीक्ष्यमाणामितस्ततः।
त्राणं कंचिदपश्यन्तीं वेपमानां तपस्विनीम्॥६७॥
तामुवाच दशग्रीवः सीतां परमदुःखिताम्।
अवाक्शिराः प्रपतितो बहुमन्यस्व मामिति॥६८॥

‘वे अत्यन्त भयभीत और उद्विग्न होकर इधर-उधर देखने लगीं। उन्हें कोई भी अपना रक्षक नहीं दिखायी देता था। भय से काँपती हुई अत्यन्त दुःखिनी तपस्विनी सीता के सामने जा दशमुख रावण नीचे सिर किये उनके चरणों में गिर पड़ा और इस प्रकार बोला ‘विदेहकुमारी! मैं तुम्हारा सेवक हूँ। तुम मुझे अधिक आदर दो’॥ ६७-६८॥

यदि चेत्त्वं तु मां दर्पान्नाभिनन्दसि गर्विते।
द्विमासानन्तरं सीते पास्यामि रुधिरं तव॥६९॥

‘(इतने पर भी अपने प्रति उनकी उपेक्षा देख वह कुपित होकर बोला—) ‘गर्वीली सीते! यदि तू घमंड में आकर मेरा अभिनन्दन नहीं करेगी तो आज से दो महीने के बाद मैं तेरा खून पी जाऊँगा’॥ ६९॥

एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य रावणस्य दुरात्मनः।
उवाच परमक्रुद्धा सीता वचनमुत्तमम्॥७०॥

‘दुरात्मा रावण की यह बात सुनकर सीता ने अत्यन्त कुपित हो यह उत्तम वचन कहा— ॥ ७० ॥

राक्षसाधम रामस्य भार्याममिततेजसः।
इक्ष्वाकुवंशनाथस्य स्नुषां दशरथस्य च॥७१॥
अवाच्यं वदतो जिह्वा कथं न पतिता तव।

‘नीच निशाचर! अमित तेजस्वी भगवान् श्रीराम की पत्नी और इक्ष्वाकुकुल के स्वामी महाराज दशरथ की पुत्रवधू से यह न कहने योग्य बात कहते समय तेरी जीभ क्यों नहीं गिर गयी? ॥ ७१ १/२॥

किंस्विदीर्य तवानार्य यो मां भर्तुरसंनिधौ॥७२॥
अपहृत्यागतः पाप तेनादृष्टो महात्मना।

‘दुष्ट पापी! तुझमें क्या पराक्रम है? मेरे पतिदेव जब निकट नहीं थे, तब तू उन महात्मा की दृष्टि से छिपकर चोरी-चोरी मुझे हर लाया॥ ७२ १/२ ॥

न त्वं रामस्य सदृशो दास्येऽप्यस्य न युज्यसे॥७३॥
अजेयः सत्यवाक् शूरो रणश्लाघी च राघवः।

‘तू भगवान् श्रीराम की समानता नहीं कर सकता। तू तो उनका दास होने योग्य भी नहीं है। श्रीरघुनाथजी सर्वथा अजेय, सत्यभाषी, शूरवीर और युद्धके अभिलाषी एवं प्रशंसक हैं’। ७३ १/२॥

जानक्या परुषं वाक्यमेवमुक्तो दशाननः॥७४॥
जज्वाल सहसा कोपाच्चितास्थ इव पावकः।
विवृत्य नयने क्रूरे मुष्टिमुद्यम्य दक्षिणम्॥ ७५॥
मैथिली हन्तुमारब्धः स्त्रीभिर्हाहाकृतं तदा।
स्त्रीणां मध्यात् समुत्पत्य तस्य भार्या दुरात्मनः॥७६॥
वरा मन्दोदरी नाम तया स प्रतिषेधितः।
उक्तश्च मधुरां वाणीं तया स मदनार्दितः॥७७॥

‘जनकनन्दिनी के ऐसी कठोर बात कहने पर दशमुख रावण चिता में लगी हुई आग की भाँति सहसा क्रोध से जल उठा और अपनी क्रूर आँखें फाड़फाड़कर देखता हुआ दाहिना मुक्का तानक मिथिलेशकुमारी को मारने के लिये तैयार हो गया। यह देख उस समय वहाँ खड़ी हुई स्त्रियाँ हाहाकार करने लगीं। इतने ही में उन स्त्रियों के बीच से उस दुरात्माकी सुन्दरी भार्या मन्दोदरी झपटकर आगे आयी और उसने रावण को ऐसा करने से रोका। साथ ही उस कामपीड़ित निशाचर से मधुर वाणी में कहा- ॥ ७४ -७७॥

सीतया तव किं कार्यं महेन्द्रसमविक्रम।
मया सह रमस्वाद्य मद्विशिष्टा न जानकी॥ ७८॥

‘महेन्द्र के समान पराक्रमी राक्षसराज! सीता से तुम्हें क्या काम है? आज मेरे साथ रमण करो। जनकनन्दिनी सीता मुझसे अधिक सुन्दरी नहीं है। ७८॥

देवगन्धर्वकन्याभिर्यक्षकन्याभिरेव च।
सार्धं प्रभो रमस्वेति सीतया किं करिष्यसि॥७९॥

‘प्रभो! देवताओं, गन्धर्वो और यक्षों की कन्याएँ हैं, इनके साथ रमण करो; सीता को लेकर क्या करोगे?’॥ ७९॥

ततस्ताभिः समेताभिर्नारीभिः स महाबलः।
उत्थाप्य सहसा नीतो भवनं स्वं निशाचरः॥८०॥

‘तदनन्तर वे सब स्त्रियाँ मिलकर उस महाबली निशाचर रावण को सहसा वहाँ से उठाकर अपने महल में ले गयीं॥ ८०॥

याते तस्मिन् दशग्रीवे राक्षस्यो विकृताननाः।
सीतां निर्भर्त्सयामासुर्वाक्यैः क्रूरैः सुदारुणैः॥८१॥

‘दशमुख रावण के चले जाने पर विकराल मुखवाली राक्षसियाँ अत्यन्त दारुण क्रूरतापूर्ण वचनों द्वारा सीता को डराने-धमकाने लगीं। ८१॥

तृणवद् भाषितं तासां गणयामास जानकी।
गर्जितं च तथा तासां सीतां प्राप्य निरर्थकम्॥८२॥

‘परंतु जानकी ने उनकी बातों को तिनके के समान तुच्छ समझा। उनका सारा गर्जन-तर्जन सीता के पास पहुँचकर व्यर्थ हो गया॥ ८२॥

वृथा गर्जितनिश्चेष्टा राक्षस्यः पिशिताशनाः।
रावणाय शशंसुस्ताः सीताव्यवसितं महत्॥८३॥

‘इस प्रकार गर्जना और सारी चेष्टाओं के व्यर्थ हो जाने पर उन मांसभक्षिणी राक्षसियों ने रावण के पास जाकर उसे सीताजी का महान् निश्चय कह सुनाया। ८३॥

ततस्ताः सहिताः सर्वा विहताशा निरुद्यमाः।
परिक्लिश्य समस्तास्ता निद्रावशमुपागताः॥८४॥

‘फिर वे सब-की-सब उन्हें अनेक प्रकार से कष्ट दे हताश तथा उद्योगशून्य हो निद्रा के वशीभूत होकर सो गयीं॥ ८४॥

तासु चैव प्रसुप्तासु सीता भर्तृहिते रता।
विलप्य करुणं दीना प्रशुशोच सुदुःखिता॥

‘उन सबके सो जाने पर पति के हित में तत्पर रहने वाली सीताजी करुणापूर्वक विलापकर अत्यन्त दीन और दुःखी हो शोक करने लगीं। ८५ ॥

तासां मध्यात् समुत्थाय त्रिजटा वाक्यमब्रवीत्।
आत्मानं खादत क्षिप्रं न सीतामसितेक्षणाम्॥
जनकस्यात्मजां साध्वीं स्नुषां दशरथस्य च।

‘उन राक्षसियों के बीच से त्रिजटा नामवाली राक्षसी उठी और अन्य निशाचरियों से इस प्रकार बोली —’अरी! तुम सब अपने-आपको ही जल्दी-जल्दी खा जाओ, कजरारे नेत्रोंवाली सीता को नहीं; ये राजा दशरथ की पुत्रवधू और जनक की लाड़ली सतीसाध्वी सीता इस योग्य नहीं हैं। ८६ १/२॥

स्वप्नो ह्यद्य मया दृष्टो दारुणो रोमहर्षणः॥८७॥
रक्षसां च विनाशाय भर्तुरस्या जयाय च।

‘आज अभी मैंने बड़ा भयंकर तथा रोंगटे खड़े कर देने वाला स्वप्न देखा है; वह राक्षसों के विनाश तथा इन सीतादेवी के पति की विजय का सूचक है॥ ८७ १/२॥

अलमस्मान् परित्रातुं राघवाद् राक्षसीगणम्॥८८॥
अभियाचाम वैदेहीमेतद्धि मम रोचते।

‘ये सीता ही श्रीरघुनाथजी के रोष से हमारी और इन सब राक्षसियों की रक्षा करने में समर्थ हैं; अतः हमलोग विदेहनन्दिनी से अपने अपराधों के लिये क्षमायाचना करें—यही मुझे अच्छा लगता है॥ ८८ १/२॥

यदि ह्येवंविधः स्वप्नो दुःखितायाः प्रदृश्यते॥८९॥
सा दुःखैर्विविधैर्मुक्ता सुखमाप्नोत्यनुत्तमम्।

‘यदि किसी दुःखिनी के विषय में ऐसा स्वप्न देखा जाता है तो वह अनेक विध दुःखों से छूटकर परम उत्तम सुख पाती है॥ ८९ १/२॥

प्रणिपातप्रसन्ना हि मैथिली जनकात्मजा॥९०॥
अलमेषा परित्रातुं राक्षस्यो महतो भयात्।।

‘राक्षसियो! केवल प्रणाम करनेमात्र से मिथिलेशकुमारी जानकी प्रसन्न हो जायँगी और ये महान् भय से मेरी रक्षा करेंगी’ ॥ ९० १/२ ।।

ततः सा ह्रीमती बाला भर्तुर्विजयहर्षिता॥९१॥
अवोचद् यदि तत् तथ्यं भवेयं शरणं हि वः।

‘तब लज्जावती बाला सीता पति की विजय की सम्भावना से प्रसन्न हो बोलीं-‘यदि यह बात सच होगी तो मैं अवश्य तुमलोगों की रक्षा करूँगी’ ॥ ९१ १/२॥

तां चाहं तादृशीं दृष्ट्वा सीताया दारुणां दशाम्॥९२॥
चिन्तयामास विश्रान्तो न च मे निर्वृतं मनः।
सम्भाषणार्थे च मया जानक्याश्चिन्तितो विधिः॥९३॥

‘कुछ विश्राम के पश्चात् मैं सीता की वैसी दारुण दशा देखकर बड़ी चिन्ता में पड़ गया। मेरे मन को  शान्ति नहीं मिलती थी। फिर मैंने जानकीजी के साथ वार्तालाप करने के लिये एक उपाय सोचा॥ ९२-९३॥

इक्ष्वाकुकुलवंशस्तु स्तुतो मम पुरस्कृतः।
श्रुत्वा तु गदितां वाचं राजर्षिगणभूषिताम्॥९४॥
प्रत्यभाषत मां देवी बाष्पैः पिहितलोचना।

‘पहले मैंने इक्ष्वाकुवंशकी प्रशंसा की राजर्षियों की स्तुति से विभूषित मेरी वह वाणी सुनकर देवी सीता के नेत्रों में आँसू भर आया और वे मुझसे बोलीं- ॥ ९४ १/२ ॥

कस्त्वं केन कथं चेह प्राप्तो वानरपुङ्गव॥९५॥
का च रामेण ते प्रीतिस्तन्मे शंसितुमर्हसि।

‘कपिश्रेष्ठ! तुम कौन हो? किसने तुम्हें भेजा है? यहाँ कैसे आये हो? और भगवान् श्रीराम के साथ तुम्हारा कैसा प्रेम है? यह सब मुझे बताओ’ ॥ ९५ १/२॥

तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा अहमप्यब्रुवं वचः॥९६॥
देवि रामस्य भर्तुस्ते सहायो भीमविक्रमः।
सुग्रीवो नाम विक्रान्तो वानरेन्द्रो महाबलः॥९७॥

‘उनका वह वचन सुनकर मैंने भी कहा—’देवि! तुम्हारे पतिदेव श्रीराम के सहायक एक भयंकर पराक्रमी बलविक्रम सम्पन्न महाबली वानरराज हैं, जिनका नाम सुग्रीव है ॥ ९६-९७॥

तस्य मां विद्धि भृत्यं त्वं हनूमन्तमिहागतम्।
भर्ना सम्प्रहितस्तुभ्यं रामेणाक्लिष्टकर्मणा॥९८॥

उन्हीं का मुझे सेवक समझो मेरा नाम हनुमान् है। अनायास ही महान् कर्म करने वाले तुम्हारे पति श्रीराम ने मुझे भेजा है इसलिये मैं यहाँ आया हूँ॥ ९८॥

इदं तु पुरुषव्याघ्रः श्रीमान् दाशरथिः स्वयम्।
अङ्गलीयमभिज्ञानमदात् तुभ्यं यशस्विनि॥९९॥

‘यशस्विनि! पुरुषसिंह दशरथनन्दन साक्षात् श्रीमान् राम ने पहचानके लिये यह अंगूठी तुम्हें दी है॥ ९९ ॥

तदिच्छामि त्वयाज्ञप्तं देवि किं करवाण्यहम्।
रामलक्ष्मणयोः पार्वं नयामि त्वां किमुत्तरम्॥१००॥

‘देवि! मैं चाहता हूँ कि आप मुझे आज्ञा दें कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ? आप कहें तो मैं अभी आपको श्रीराम और लक्ष्मण के पास पहुँचा दूं। इस विषय में आपका क्या उत्तर है?’ ॥ १०० ॥

एतच्छ्रुत्वा विदित्वा च सीता जनकनन्दिनी।
आह रावणमुत्पाट्य राघवो मां नयत्विति॥१०१॥

‘मेरी यह बात सुनकर और सोच-समझकर जनकनन्दिनी सीता ने कहा—’मेरी इच्छा है कि श्रीरघुनाथजी रावण का संहार करके मुझे यहाँ से ले चलें ॥ १०१॥

प्रणम्य शिरसा देवीमहमार्यामनिन्दिताम्।
राघवस्य मनोह्लादमभिज्ञानमयाचिषम्॥१०२॥

‘तब मैंने उन सती-साध्वी देवी आर्या सीता को सिर झुकाकर प्रणाम किया और कोई ऐसी पहचान माँगी, जो श्रीरघुनाथजी के मन को आनन्द प्रदान करने वाली हो॥

अथ मामब्रवीत् सीता गृह्यतामयमुत्तमः।
मणिर्येन महाबाहू रामस्त्वां बहु मन्यते॥१०३॥

‘मेरे माँगने पर सीताजी ने कहा—’लो, यह उत्तम चूडामणि है, जिसे पाकर महाबाहु श्रीराम तुम्हारा विशेष आदर करेंगे’॥ १०३॥

इत्युक्त्वा तु वरारोहा मणिप्रवरमुत्तमम्।
प्रायच्छत् परमोद्विग्ना वाचा मां संदिदेश ह॥१०४॥

“ऐसा कहकर सुन्दरी सीता ने मुझे वह परम उत्तम चूडामणि दी और अत्यन्त उद्विग्न होकर वाणी द्वारा अपना संदेश कहा॥ १०४॥

ततस्तस्यै प्रणम्याहं राजपुत्र्यै समाहितः।
प्रदक्षिणं परिक्राममिहाभ्युद्गतमानसः॥१०५॥

‘तब मन-ही-मन यहाँ आने के लिये उत्सुक हो एकाग्रचित्त होकर मैंने राजकुमारी सीता को प्रणाम किया और उनकी दक्षिणावर्त परिक्रमा की॥ १०५ ॥

उत्तरं पुनरेवाह निश्चित्य मनसा तदा।
हनूमन् मम वृत्तान्तं वक्तुमर्हसि राघवे॥१०६॥
यथा श्रुत्वैव नचिरात् तावुभौ रामलक्ष्मणौ।
सुग्रीवसहितौ वीरावुपेयातां तथा कुरु॥१०७॥

“उस समय उन्होंने मन से कुछ निश्चय करके पुनः मुझे उत्तर दिया—’हनुमन् ! तुम श्रीरघुनाथजी को मेरा सारा वृत्तान्त सुनाना और ऐसा प्रयत्न करना, जिससे सुग्रीवसहित वे दोनों वीरबन्धु श्रीराम और लक्ष्मण मेरा हाल सुनते ही अविलम्ब यहाँ आ जायें। १०६-१०७॥

यदन्यथा भवेदेतद् द्वौ मासौ जीवितं मम।
न मां द्रक्ष्यति काकुत्स्थो म्रिये साहमनाथवत्॥१०८॥

‘यदि इसके विपरीत हुआ तो दो महीने तक मेरा जीवन और शेष है। उसके बाद श्रीरघुनाथजी मुझे नहीं देख सकेंगे मैं अनाथ की भाँति मर जाऊँगी’। १०८॥

तच्छ्रुत्वा करुणं वाक्यं क्रोधो मामभ्यवर्तत।
उत्तरं च मया दृष्टं कार्यशेषमनन्तरम्॥१०९॥

‘उनका यह करुणाजनक वचन सुनकर राक्षसों के प्रति मेरा क्रोध बहुत बढ़ गया। फिर मैंने शेष बचे हुए भावी कार्य पर विचार किया॥ १०९॥

ततोऽवर्धत मे कायस्तदा पर्वतसंनिभः।
युद्धाकानी वनं तस्य विनाशयितुमारभे॥११०॥

‘तदनन्तर मेरा शरीर बढ़ने लगा और तत्काल पर्वत के समान हो गया। मैंने युद्ध की इच्छा से रावण के उस वन को उजाड़ना आरम्भ किया॥ ११० ॥

तद् भग्नं वनखण्डं तु भ्रान्तत्रस्तमृगद्रिजम्।
प्रतिबुद्ध्य निरीक्षन्ते राक्षस्यो विकृताननाः॥१११॥

‘जहाँ के पशु और पक्षी घबराये और डरे हुए थे, उस उजड़े हुए वनखण्ड को वहाँ सोकर उठी हुई विकराल मुखवाली राक्षसियों ने देखा॥ १११॥

मां च दृष्ट्वा वने तस्मिन् समागम्य ततस्ततः।
ताः समभ्यागताः क्षिप्रं रावणायाचचक्षिरे॥११२॥

‘उस वन में मुझे देखकर वे सब इधर-उधरसे जुट गयीं और तुरंत रावण के पास जाकर उन्होंने वनविध्वंस का सारा समाचार कहा- ॥ ११२ ।।

राजन् वनमिदं दुर्गं तव भग्नं दुरात्मना।
वानरेण ह्यविज्ञाय तव वीर्यं महाबल॥११३॥

‘महाबली राक्षसराज! एक दुरात्मा वानर ने आपके बल-पराक्रम को कुछ भी न समझकर इस दुर्गम प्रमदावन को उजाड़ डाला है॥ ११३॥

तस्य दुर्बुद्धिता राजंस्तव विप्रियकारिणः।
वधमाज्ञापय क्षिप्रं यथासौ न पुनव्रजेत्॥११४॥

‘महाराज! यह उसकी दुर्बुद्धि ही है, जो उसने आपका अपराध किया। आप शीघ्र ही उसके वधकी आज्ञा दें, जिससे वह फिर बचकर चला न जाय॥ ११४॥

तच्छ्रुत्वा राक्षसेन्द्रेण विसृष्टा बहुदुर्जयाः।
राक्षसाः किंकरा नाम रावणस्य मनोऽनुगाः॥११५॥

‘यह सुनकर राक्षसराज ने अपने मन के अनुकूल चलने वाले किंकर नामक राक्षसों को भेजा, जिनपर विजय पाना अत्यन्त कठिन था॥ ११५ ॥

तेषामशीतिसाहस्रं शूलमुद्गरपाणिनाम्।
मया तस्मिन् वनोद्देशे परिघेण निषूदितम्॥

‘वे हाथों में शूल और मुद्गर लेकर आये थे। उनकी संख्या अस्सी हजार थी; परंतु मैंने उस वनप्रान्त में एक परिघ से ही उन सबका संहार कर डाला॥ ११६॥

तेषां तु हतशिष्टा ये ते गता लघुविक्रमाः।
निहतं च मया सैन्यं रावणायाचचक्षिरे॥११७॥

‘उनमें जो मरने से बच गये, वे जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए भाग गये। उन्होंने रावण को मेरे द्वारा सारी सेना के मारे जाने का समाचार बताया॥ ११७ ॥

ततो मे बुद्धिरुत्पन्ना चैत्यप्रासादमुत्तमम्।
तत्रस्थान् राक्षसान् हत्वा शतं स्तम्भेन वै पुनः॥११८॥
ललामभूतो लङ्काया मया विध्वंसितो रुषा।

‘तत्पश्चात् मेरे मन में एक नया विचार उत्पन्न हुआ और मैंने क्रोधपूर्वक वहाँ के उत्तम चैत्यप्रासाद को, जो लङ्का का सबसे सुन्दर भवन था तथा जिसमें सौ खम्भे लगे हुए थे, वहाँ के राक्षसों का संहार करके तोड़-फोड़ डाला॥ ११८ १/२ ॥

ततः प्रहस्तस्य सुतं जम्बुमालिनमादिशत्॥११९॥
राक्षसैर्बहभिः सार्धं घोररूपैर्भयानकैः।

तब रावण ने घोर रूपवाले भयानक राक्षसों के साथ जिनकी संख्या बहुत अधिक थी, प्रहस्त के बेटे जम्बुमाली को युद्ध के लिये भेजा॥ ११९ १/२ ॥

तमहं बलसम्पन्नं राक्षसं रणकोविदम्॥१२०॥
परिघेणातिघोरेण सूदयामि सहानुगम्।

‘वह राक्षस बड़ा बलवान् तथा युद्ध की कला में कुशल था तो भी मैंने अत्यन्त घोर परिघ से मारकर सेवकोंसहित उसे काल के गाल में डाल दिया॥ १२० १/२॥

तच्छ्रुत्वा राक्षसेन्द्रस्तु मन्त्रिपुत्रान् महाबलान्॥१२१॥
पदातिबलसम्पन्नान् प्रेषयामास रावणः।
परिघेणैव तान् सर्वान् नयामि यमसादनम्॥१२२॥

‘यह सुनकर राक्षसराज रावण ने पैदल सेना के साथ अपने मन्त्री के पुत्रों को भेजा, जो बड़े बलवान् थे; किंतु मैंने परिघ से ही उन सबको यमलोक भेज दिया॥ १२१-१२२ ॥

मन्त्रिपुत्रान् हतान् श्रुत्वा समरे लघुविक्रमान्।
पञ्च सेनाग्रगान् शूरान् प्रेषयामास रावणः॥१२३॥

‘समराङ्गण में शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करनेवाले मन्त्रिकुमारों को मारा गया सुनकर रावण ने पाँच शूरवीर सेनापतियों को भेजा ॥ १२३॥

तानहं सहसैन्यान् वै सर्वानेवाभ्यसूदयम्।
ततः पुनर्दशग्रीवः पुत्रमक्षं महाबलम्॥१२४॥
बहुभी राक्षसैः सार्धं प्रेषयामास संयुगे।

‘उन सबको भी मैंने सेनासहित मौत के घाट उतार दिया। तब दशमुख रावण ने अपने पुत्र महाबली अक्षकुमार को बहुसंख्यक राक्षसों के साथ युद्ध के लिये भेजा॥ १२४ १/२॥

तं तु मन्दोदरीपुत्रं कुमारं रणपण्डितम्॥१२५॥
सहसा खं समुद्यन्तं पादयोश्च गृहीतवान्।
तमासीनं शतगुणं भ्रामयित्वा व्यपेषयम्॥१२६॥

‘मन्दोदरी का वह पुत्र युद्ध की कला में बड़ा प्रवीण था। वह आकाश में उड़ रहा था। उसी समय मैंने सहसा उसके दोनों पैर पकड़ लिये और सौ बार घुमाकर उसे पृथ्वी पर पटक दिया। इस तरह वहाँ पड़े हुए कुमार अक्ष को मैंने पीस डाला। १२५-१२६॥

तमक्षमागतं भग्नं निशम्य स दशाननः।
ततश्चेन्द्रजितं नाम द्वितीयं रावणः सुतम्॥१२७॥
व्यादिदेश सुसंक्रुद्धो बलिनं युद्धदुर्मदम्।

‘अक्षकुमार युद्धभूमिमें आया और मारा गया—यह सुनकर दशमुख रावणने अत्यन्त कुपित हो अपने दूसरे पुत्र इन्द्रजित् को, जो बड़ा ही रणदुर्मद और बलवान् था, भेजा॥ १२७ १/२ ॥

तच्चाप्यहं बलं सर्वं तं च राक्षसपुङ्गवम्॥१२८॥
नष्टौजसं रणे कृत्वा परं हर्षमुपागतः।

‘उसके साथ आयी हुई सारी सेना को और उस राक्षस-शिरोमणि को भी युद्ध में हतोत्साह करके मुझे बड़ा हर्ष हुआ॥ १२८ १/२ ॥

महतापि महाबाहुः प्रत्ययेन महाबलः॥१२९॥
प्रहितो रावणेनैष सह वीरैर्मदोद्धतैः।

‘रावण ने इस महाबली महाबाहु वीर को अनेक मदमत्त वीरों के साथ बड़े विश्वास से भेजा था॥ १२९ १/२॥

सोऽविषह्यं हि मां बुद्ध्वा स्वसैन्यं चावमर्दितम्॥१३०॥
ब्रह्मणोऽस्त्रेण स तु मां प्रबद्ध्वा चातिवेगिनः।
रज्जुभिश्चापि बध्नन्ति ततो मां तत्र राक्षसाः॥ १३१॥

‘इन्द्रजित् ने देखा, मेरी सारी सेना कुचल डाली गयी, तब उसने समझ लिया कि इस वानर का सामना करना असम्भव है। अतः उसने बड़े वेग से ब्रह्मास्त्र चलाकर मुझे बाँध लिया। फिर तो वहाँ राक्षसों ने मुझे रस्सियों से भी बाँधा ॥ १३०-१३१॥

रावणस्य समीपं च गृहीत्वा मामुपागमन्।
दृष्ट्वा सम्भाषितश्चाहं रावणेन दुरात्मना।१३२॥
पृष्टश्च लङ्कागमनं राक्षसानां च तं वधम्।
तत्सर्वं च रणे तत्र सीतार्थमुपजल्पितम्॥१३३॥

‘इस तरह मुझे पकड़कर वे सब रावण के समीप ले आये। दुरात्मा रावण ने मुझे देखकर वार्तालाप आरम्भ किया और पूछा—’तू लङ्का में क्यों आया? तथा राक्षसों का वध तूने क्यों किया ?’ मैंने वहाँ उत्तर दिया, ‘यह सब कुछ मैंने सीताजी के लिये किया है’॥ १३२-१३३॥

तस्यास्तु दर्शनाकाङ्क्षी प्राप्तस्त्वद्भवनं विभो।
मारुतस्यौरसः पुत्रो वानरो हनुमानहम्॥१३४॥
रामदूतं च मां विद्धि सुग्रीवसचिवं कपिम्।
सोऽहं दौत्येन रामस्य त्वत्सकाशमिहागतः॥१३५॥

‘प्रभो! जनकनन्दिनी के दर्शन की इच्छा से ही मैं तुम्हारे महल में आया हूँ। मैं वायुदेवता का औरस पुत्र हूँ,जाति का वानर हूँ और हनुमान् मेरा नाम है। मुझे श्रीरामचन्द्रजी का दूत और सुग्रीव का मन्त्री समझो। श्रीरामचन्द्रजी का दूतकार्य करने के लिये ही मैं यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ॥

शृणु चापि समादेशं यदहं प्रब्रवीमि ते।
राक्षसेश हरीशस्त्वां वाक्यमाह समाहितम्॥१३६॥

‘तुम मेरे स्वामी का संदेश, जो मैं तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो। राक्षसराज! वानरराज सुग्रीव ने तुमसे एकाग्रतापूर्वक जो बात कही है, उस पर ध्यान दो॥ १३६॥

सुग्रीवश्च महाभागः स त्वां कौशलमब्रवीत्।
धर्मार्थकामसहितं हितं पथ्यमुवाच ह॥१३७॥

‘महाभाग सुग्रीव ने तुम्हारी कुशल पूछी है और तुम्हें सुनाने के लिये यह धर्म, अर्थ एवं काम से युक्त हितकर तथा लाभदायक बात कही है— ॥ १३७॥

वसतो ऋष्यमूके मे पर्वते विपुलद्रुमे।
राघवो रणविक्रान्तो मित्रत्वं समुपागतः॥१३८॥

‘जब मैं बहुसंख्यक वृक्षों से हरे-भरे ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करता था, उन दिनों रण में महान् पराक्रम प्रकट करने वाले रघुनाथजी ने मेरे साथ मित्रता स्थापित की थी॥ १३८॥

तेन मे कथितं राजन् भार्या मे रक्षसा हृता।
तत्र साहाय्यहेतोर्मे समयं कर्तुमर्हसि ॥१३९॥

‘राजन् ! उन्होंने मुझे बताया कि ‘राक्षस रावण ने मेरी पत्नी को हर लिया है। उसके उद्धार के कार्य में सहायता करने के लिये तुम मेरे सामने प्रतिज्ञा करो’॥

वालिना हृतराज्येन सुग्रीवेण सह प्रभुः।
चक्रेऽग्निसाक्षिकं सख्यं राघवः सहलक्ष्मणः॥१४०॥

‘वाली ने जिनका राज्य छीन लिया था, उन सुग्रीव के साथ (अर्थात् मेरे साथ) लक्ष्मणसहित भगवान् श्रीराम ने अग्नि को साक्षी बनाकर मित्रता की है॥ १४०॥

तेन वालिनमाहत्य शरेणैकेन संयुगे।
वानराणां महाराजः कृतः सम्प्लवतां प्रभुः॥१४१॥

‘श्रीरघुनाथजी ने युद्धस्थल में एक ही बाण से वाली को मारकर सुग्रीव को (मुझको) उछलने कूदने वाले वानरों का महाराज बना दिया है॥ १४१॥

तस्य साहाय्यमस्माभिः कार्यं सर्वात्मना त्विह।
तेन प्रस्थापितस्तुभ्यं समीपमिह धर्मतः॥१४२॥

‘अतः हमलोगों को सम्पूर्ण हृदय से उनकी सहायता करनी है। यही सोचकर सुग्रीव ने धर्मानुसार मुझे तुम्हारे पास भेजा है॥ १४२॥

क्षिप्रमानीयतां सीता दीयतां राघवस्य च।
यावन्न हरयो वीरा विधमन्ति बलं तव॥१४३॥

‘उनका कहना है कि तुम तुरंत सीता को ले आओ और जबतक वीर वानर तुम्हारी सेना का संहार नहीं करते हैं तभीतक उन्हें श्रीरघुनाथजी को सौंप दो॥ १४३॥

वानराणां प्रभावोऽयं न केन विदितः पुरा।
देवतानां सकाशं च ये गच्छन्ति निमन्त्रिताः॥१४४॥

‘कौन ऐसा वीर है जिसे वानरों का यह प्रभाव पहले से ही ज्ञात नहीं है। ये वे ही वानर हैं, जो युद्ध के लिये निमन्त्रित होकर देवताओं के पास भी उनकी सहायता के लिये जाते हैं’ ॥ १४४ ॥

इति वानरराजस्त्वामाहेत्यभिहितो मया।
मामैक्षत ततो रुष्टश्चक्षुषा प्रदहन्निव॥१४५॥

‘इस प्रकार वानरराज सुग्रीव ने तुमसे संदेश कहा है। मेरे इतना कहते ही रावण ने रुष्ट होकर मुझे इस तरह देखा, मानो अपनी दृष्टि से मुझे दग्ध कर डालेगा॥

तेन वध्योऽहमाज्ञप्तो रक्षसा रौद्रकर्मणा।।
मत्प्रभावमविज्ञाय रावणेन दुरात्मना॥१४६॥

‘भयंकर कर्म करने वाले दुरात्मा राक्षस रावण ने मेरे प्रभाव को न जानकर अपने सेवकों को आज्ञा दे दी कि इस वानर का (मेरा) वध कर दिया जाय॥ १४६॥

ततो विभीषणो नाम तस्य भ्राता महामतिः।
तेन राक्षसराजश्च याचितो मम कारणात्॥१४७॥

‘तब उसके परम बुद्धिमान् भाई विभीषण ने मेरे लिये राक्षसराज रावण से प्रार्थना करते हुए कहा- ॥

नैवं राक्षसशार्दूल त्यज्यतामेष निश्चयः।
राजशास्त्रव्यपेतो हि मार्गः संलक्ष्यते त्वया॥१४८॥

‘राक्षसशिरोमणे! ऐसा करना उचित नहीं है। आप अपने इस निश्चय को त्याग दीजिये। आपकी दृष्टि इस समय राजनीति के विरुद्ध मार्ग पर जा रही है। १४८ ॥

दूतवध्या न दृष्टा हि राजशास्त्रेषु राक्षस।
दूतेन वेदितव्यं च यथाभिहितवादिना॥१४९॥

‘राक्षसराज! राजनीति-सम्बन्धी शास्त्रों में कहीं भी दूत के वध का विधान नहीं है। दूत तो वही कहता है, जैसा कहने के लिये उसे बताया गया होता है। उसका कर्तव्य है कि वह अपने स्वामी के अभिप्राय का ज्ञान करा दे॥

सुमहत्यपराधेऽपि दूतस्यातुलविक्रम।
विरूपकरणं दृष्टं न वधोऽस्ति हि शास्त्रतः॥१५०॥

‘अनुपम पराक्रमी वीर! दूतका महान् अपराध होने पर भी शास्त्र में उसके वध का दण्ड नहीं देखा गया है। उसके किसी अङ्ग को विकृत कर देनामात्र ही बताया गया है’ ॥ १५० ॥

विभीषणेनैवमुक्तो रावणः संदिदेश तान्।
राक्षसानेतदेवाद्य लाङ्गलं दह्यतामिति ॥१५१॥

‘विभीषण के ऐसा कहने पर रावण ने उन राक्षसों को आज्ञा दी—अच्छा तो आज इसकी यह पूँछ ही जला दो’ ॥ १५१॥

ततस्तस्य वचः श्रुत्वा मम पुच्छं समन्ततः।
वेष्टितं शणवल्कैश्च पट्टैः कार्पासकैस्तथा॥१५२॥

‘उसकी यह आज्ञा सुनकर राक्षसोंने मेरी पूँछमें सब ओरसे सुतरीकी रस्सियाँ तथा रेशमी और सूती कपड़े लपेट दिये॥ १५२॥

राक्षसाः सिद्धसंनाहास्ततस्ते चण्डविक्रमाः।
तदादीप्यन्त मे पुच्छं हनन्तः काष्ठमुष्टिभिः॥१५३॥

‘इस प्रकार बाँध देने के पश्चात् उन प्रचण्ड पराक्रमी राक्षसों ने काठके डंडों और मुक्कों से मारते हुए मेरी पूँछ में आग लगा दी॥ १५३॥

बद्धस्य बहुभिः पाशैर्यन्त्रितस्य च राक्षसैः।
न मे पीडाभवत् काचिद् दिदृक्षोर्नगरी दिवा॥१५४॥

‘मैं दिन में लङ्कापुरी को अच्छी तरह देखना चाहता था, इसलिये राक्षसों द्वारा बहुत-सी रस्सियों से बाँधे और कसे जाने पर भी मुझे कोई पीड़ा नहीं हुई। १५४॥

ततस्ते राक्षसाः शूरा बद्धं मामग्निसंवृतम्।
अघोषयन् राजमार्गे नगरद्वारमागताः॥१५५॥

‘तत्पश्चात् नगर द्वार पर आकर वे शूरवीर राक्षस पूँछ में लगी हुई आग से घिरे और बँधे हुए मुझको सड़क पर घुमाते हुए सब ओर मेरे अपराध की घोषणा करने लगे॥ १५५॥

ततोऽहं सुमहद्रूपं संक्षिप्य पुनरात्मनः।
विमोचयित्वा तं बन्धं प्रकृतिस्थः स्थितः पुनः॥१५६॥

‘इतने ही में अपने उस विशाल रूप को संकुचित करके मैंने अपने-आपको उस बन्धन से छुड़ा लिया और फिर स्वाभाविक रूप में आकर मैं वहाँ खड़ा हो गया॥ १५६॥

आयसं परिघं गृह्य तानि रक्षांस्यसूदयम्।
ततस्तन्नगरद्वारं वेगेन प्लुतवानहम्॥ १५७॥

‘फिर फाटक पर रखे हुए एक लोहे के परिघ को उठाकर मैंने उन सब राक्षसों को मार डाला। इसके बाद बड़े वेग से कूदकर मैं उस नगर द्वार पर चढ़ गया॥ १५७॥

पुच्छेन च प्रदीप्तेन तां पुरी साट्टगोपुराम्।
दहाम्यहमसम्भ्रान्तो युगान्ताग्निरिव प्रजाः॥१५८॥

‘तत्पश्चात् समस्त प्रजा को दग्ध करने वाली प्रलयाग्नि के समान मैं बिना किसी घबराहट के अट्टालिका और गोपुरसहित उस पुरी को अपनी जलती हुई पूँछ की आग से जलाने लगा॥ १५८॥

विनष्टा जानकी व्यक्तं न ह्यदग्धः प्रदृश्यते।
लङ्कायाः कश्चिदुद्देशः सर्वा भस्मीकृता पुरी॥१५९॥
दहता च मया लङ्कां दग्धा सीता न संशयः।
रामस्य च महत्कार्यं मयेदं विफलीकृतम्॥१६०॥

‘फिर मैंने सोचा ‘लङ्का का कोई भी स्थान ऐसा नहीं दिखायी देता है, जो जला हुआ न हो, सारी नगरी जलकर भस्म हो गयी है। अतः अवश्य ही जानकीजी भी नष्ट हो गयी होंगी। इसमें संदेह नहीं कि लङ्का को जलाते-जलाते मैंने सीताजी को भी जला दिया और इस प्रकार भगवान् श्रीराम के इस महान् कार्य को मैंने निष्फल कर दिया’॥ १५९-१६० ॥

इति शोकसमाविष्टश्चिन्तामहमुपागतः।
ततोऽहं वाचमश्रौषं चारणानां शुभाक्षराम्॥१६१॥
जानकी न च दग्धेति विस्मयोदन्तभाषिणाम्।

‘इस तरह शोकाकुल होकर मैं बड़ी चिन्ता में पड़ गया। इतने ही में आश्चर्ययुक्त वृत्तान्त का वर्णन करने वाले चारणों की शुभ अक्षरों से विभूषित यह वाणी मेरे कानों में पड़ी कि जानकीजी इस आग से नहीं जली हैं॥ १६१ १/२॥

ततो मे बुद्धिरुत्पन्ना श्रुत्वा तामद्भुतां गिरम्॥१६२॥
अदग्धा जानकीत्येव निमित्तैश्चोपलक्षितम्।
दीप्यमाने तु लाङ्गले न मां दहति पावकः॥१६३॥
हृदयं च प्रहृष्टं मे वाताः सुरभिगन्धिनः।

‘उस अद्भुत वाणी को सुनकर मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ—’शुभ शकुनों से भी यही जान पड़ता है कि जानकीजी नहीं जली हैं; क्योंकि पूँछ में आग लग जाने पर भी अग्निदेव मुझे जला नहीं रहे हैं। मेरे हृदय में महान् हर्ष भरा हुआ है और उत्तम सुगन्ध से युक्त मन्द-मन्द वायु चल रही है’ ॥ १६२-१६३ १/२ ।।

तैर्निमित्तैश्च दृष्टाथैः कारणैश्च महागुणैः॥१६४॥
ऋषिवाक्यैश्च दृष्टार्थैरभवं हृष्टमानसः।

‘जिनके फलों का मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो चुका था, उन उत्तम शकुनों, महान् गुणशाली कारणों तथा ऋषियों (चारणों) की प्रत्यक्ष देखी हुई बातोंसे भी सीताजी के सकुशल होने का विश्वास करके मेरा मन हर्ष से भर गया॥१६४ १/२ ॥

पुनर्दृष्टा च वैदेही विसृष्टश्च तया पुनः॥१६५॥
ततः पर्वतमासाद्य तत्रारिष्टमहं पुनः।
प्रतिप्लवनमारेभे युष्मदर्शनकाङ्ख्या॥१६६॥

‘तत्पश्चात् मैंने पुनः विदेहनन्दिनी का दर्शन किया और फिर उनसे विदा लेकर मैं अरिष्ट पर्वत पर आ गया। वहीं से आपलोगों के दर्शन की इच्छा से मैंने प्रतिप्लवन (दुबारा आकाश में उड़ना) आरम्भ किया॥

ततः श्वसनचन्द्रार्कसिद्धगन्धर्वसेवितम्।
पन्थानमहमाक्रम्य भवतो दृष्टवानिह ॥१६७॥

‘तत्पश्चात् वायु, चन्द्रमा, सूर्य, सिद्ध और गन्धर्वो से सेवित मार्ग का आश्रय ले यहाँ पहुँचकर मैंने आपलोगों का दर्शन किया है॥ १६७॥

राघवस्य प्रसादेन भवतां चैव तेजसा।
सुग्रीवस्य च कार्यार्थं मया सर्वमनुष्ठितम्॥१६८॥

‘श्रीरामचन्द्रजी की कृपा और आपलोगों के प्रभाव से मैंने सुग्रीव के कार्य की सिद्धि के लिये सब कुछ किया है॥ १६८॥

एतत् सर्वं मया तत्र यथावदुपपादितम्।
तत्र यन्न कृतं शेषं तत् सर्वं क्रियतामिति॥१६९॥

‘यह सारा कार्य मैंने वहाँ यथोचित रूप से सम्पन्न किया है। जो कार्य नहीं किया है अथवा जो शेष रह गया है, वह सब आपलोग पूर्ण करें’॥ १६९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे अष्टपञ्चाशः सर्गः॥५८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५८॥


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Shivangi

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