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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 42 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 42

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
द्विचत्वारिंशः सर्गः (42)

लङ्का पर वानरों की चढ़ाई तथा राक्षसों के साथ उनका घोर युद्ध

 

ततस्ते राक्षसास्तत्र गत्वा रावणमन्दिरम्।
न्यवेदयन् पुरीं रुद्धां रामेण सह वानरैः॥१॥

तदनन्तर उन राक्षसों ने रावण के महल में जाकर यह निवेदन किया कि ‘वानरों के साथ श्रीराम ने लङ्कापुरी को चारों ओर से घेर लिया है’॥१॥

रुद्धां तु नगरीं श्रुत्वा जातक्रोधो निशाचरः।
विधानं द्विगुणं कृत्वा प्रासादं चाप्यरोहत॥२॥

लङ्का के घेरे जाने की बात सुनकर रावण को बड़ा क्रोध हुआ और वह नगर की रक्षा का पहले से भी दुगुना प्रबन्ध करके महल की अटारी पर चढ़ गया। २॥

स ददर्श वृतां लङ्कां सशैलवनकाननाम्।
असंख्येयैर्हरिगणैः सर्वतो युद्धकातिभिः॥३॥

वहीं से उसने देखा कि पर्वत, वन और काननोंसहित सारी लङ्का सब ओर से असंख्य युद्धाभिलाषी वानरों द्वारा घिरी हुई है॥३॥

स दृष्ट्वा वानरैः सर्वैर्वसुधां कपिलीकृताम्।
कथं क्षपयितव्याः स्युरिति चिन्तापरोऽभवत्॥४॥

इस प्रकार समस्त वानरों से आच्छादित वसुधा को कपिल वर्ण की हुई देख वह इस चिन्ता में पड़ गया कि इन सबका विनाश कैसे होगा?॥४॥

स चिन्तयित्वा सुचिरं धैर्यमालम्ब्य रावणः।
राघवं हरियूथांश्च ददर्शायतलोचनः॥५॥

बहुत देर तक चिन्ता करने के पश्चात् धैर्य धारण करके विशाल नेत्रोंवाले रावण ने श्रीराम और वानरसेनाओं की ओर पुनः देखा ॥५॥

राघवः सह सैन्येन मुदितो नाम पुप्लुवे।
लङ्कां ददर्श गुप्तां वै सर्वतो राक्षसैर्वृताम्॥६॥

इधर श्रीरामचन्द्रजी अपनी सेना के साथ प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़े। उन्होंने देखा, लङ्का सब ओर से राक्षसों द्वारा आवृत और सुरक्षित है॥६॥

दृष्ट्वा दाशरथिर्लङ्कां चित्रध्वजपताकिनीम्।
जगाम सहसा सीतां दूयमानेन चेतसा॥७॥

विचित्र ध्वजा-पताकाओं से अलंकृत लङ्कापुरी को देखकर दशरथनन्दन श्रीराम व्यथित चित्त से मन-ही-मन सीता का स्मरण करने लगे- ॥७॥

अत्र सा मृगशावाक्षी मत्कृते जनकात्मजा।
पीड्यते शोकसंतप्ता कृशा स्थण्डिलशायिनी॥८॥

‘हाय! वह मृगशावकनयनी जनकनन्दिनी सीता यहीं मेरे लिये शोकसंतप्त हो पीडा सहन करती है और पृथ्वी की वेदी पर सोती है। सुनता हूँ, बहुत दुर्बल हो गयी है’।

निपीड्यमानां धर्मात्मा वैदेहीमनुचिन्तयन्।
क्षिप्रमाज्ञापयद् रामो वानरान् द्विषतां वधे॥९॥

इस प्रकार राक्षसियों द्वारा पीड़ित विदेहनन्दिनीका बारम्बार चिन्तन करते हुए धर्मात्मा श्रीराम ने तत्काल वानरों को शत्रुभूत राक्षसों का वध करने के लिये आज्ञा दी॥९॥

एवमुक्ते तु वचसि रामेणाक्लिष्टकर्मणा।
संघर्षमाणाः प्लवगाः सिंहनादैरनादयन्॥१०॥

अक्लिष्टकर्मा श्रीराम के इस प्रकार आज्ञा देते ही आगे बढ़ने के लिये परस्पर होड़-सी लगाने वाले वानरों ने अपने सिंहनाद से वहाँ की धरती और आकाश को गुँजा दिया॥१०॥

शिखरैर्विकिरामैतां लङ्कां मुष्टिभिरेव वा।
इति स्म दधिरे सर्वे मनांसि हरियूथपाः॥११॥

वे समस्त वानर-यूथपति अपने मन में यह निश्चय किये खड़े थे कि हमलोग पर्वत-शिखरों की वर्षा करके लङ्का के महलों को चूर-चूर कर देंगे अथवा मुक्कों से ही मार-मारकर ढहा देंगे॥ ११॥

उद्यम्य गिरिशृङ्गाणि महान्ति शिखराणि च।
तरूंश्चोत्पाट्य विविधांस्तिष्ठन्ति हरियूथपाः॥१२॥

वे वानरसेनापति पर्वतों के बड़े-बड़े शिखर उठाकर और नाना प्रकार के वृक्षों को उखाड़कर प्रहार करने के लिये खड़े थे॥ १२॥

प्रेक्षतो राक्षसेन्द्रस्य तान्यनीकानि भागशः।
राघवप्रियकामार्थं लङ्कामारुरुहुस्तदा ॥१३॥

राक्षसराज रावण के देखते-देखते विभिन्न भागों में बँटे हुए वे वानर-सैनिक श्रीरघुनाथजी का प्रिय करने की इच्छा से तत्काल लङ्का के परकोटों पर चढ़ गये॥ १३॥

ते ताम्रवक्त्रा हेमाभा रामार्थे त्यक्तजीविताः।
लङ्कामेवाभ्यवर्तन्त सालभूधरयोधिनः॥१४॥

ताँबे-जैसे लाल मुँह और सुवर्ण की-सी कान्तिवाले वे वानर श्रीरामचन्द्रजी के लिये प्राण निछावर करने को तैयार थे। वे सब-के-सब सालवृक्ष और शैलशिखरों से युद्ध करने वाले थे; इसलिये उन्होंने लङ्का पर ही आक्रमण किया॥१४॥

ते द्रुमैः पर्वताग्रैश्च मुष्टिभिश्च प्लवंगमाः।
प्राकाराग्राण्यसंख्यानि ममन्थुस्तोरणानि च॥१५॥

वे सभी वानर वृक्षों, पर्वत-शिखरों और मुक्कों से असंख्य परकोटों और दरवाजों को तोड़ने लगे॥ १५ ॥

परिखान् पूरयन्तश्च प्रसन्नसलिलाशयान्।
पांसुभिः पर्वताग्रैश्च तृणैः काष्ठैश्च वानराः॥

उन वानरों ने स्वच्छ जल से भरी हुई खाइयोंको धूल, पर्वत-शिखर, घास-फूस और काठों से पाट दिया॥

ततः सहस्रयूथाश्च कोटियूथाश्च यूथपाः।
कोटियूथशताश्चान्ये लङ्कामारुरुहुस्तदा ॥१७॥

फिर तो सहस्र यूथ, कोटि यूथ और सौ कोटि यूथों को साथ लिये अनेक यूथपति उस समय लङ्का के किले पर चढ़ गये॥ १७॥

काञ्चनानि प्रमर्दन्तस्तोरणानि प्लवंगमाः।
कैलासशिखरामाणि गोपुराणि प्रमथ्य च॥१८॥
आप्लवन्तः प्लवन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः।
लङ्कां तामभिधावन्ति महावारणसंनिभाः॥१९॥

बड़े-बड़े गजराजों के समान विशालकाय वानर सोने के बने हुए दरवाजों को धूल में मिलाते, कैलासशिखर के समान ऊँचे-ऊँचे गोपुरों को भी ढहाते, उछलते-कूदते एवं गर्जते हुए लङ्का पर धावा बोलने लगे॥ १८-१९॥

जयत्युरुबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबलः।
राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालितः॥२०॥
इत्येवं घोषयन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः।
अभ्यधावन्त लङ्कायाः प्राकारं कामरूपिणः॥२१॥

‘अत्यन्त बलशाली श्रीरामचन्द्रजी की जय हो, महाबली लक्ष्मणकी जय हो और श्रीरघुनाथजी के द्वारा सुरक्षित राजा सुग्रीव की भी जय हो’ ऐसी घोषणा करते और गर्जते हुए इच्छानुसार रूप धारण करने वाले वानर लङ्का के परकोटे पर टूट पड़े। २०-२१॥

वीरबाहुः सुबाहुश्च नलश्च पनसस्तथा।
निपीड्योपनिविष्टास्ते प्राकारं हरियूथपाः।
एतस्मिन्नन्तरे चक्रुः स्कन्धावारनिवेशनम्॥२२॥

इसी समय वीरबाहु, सुबाहु, नल और पनस-ये वानरयूथपति लङ्का के परकोटे पर चढ़कर बैठ गये और उसी बीच में उन्होंने वहाँ अपनी सेना का पड़ाव डाल दिया॥ २२॥

पूर्वद्वारं तु कुमुदः कोटिभिर्दशभिर्वृतः।
आवृत्य बलवांस्तस्थौ हरिभिर्जितकाशिभिः॥२३॥

बलवान् कुमुद विजयश्री से सुशोभित होने वाले दस करोड़ वानरों के साथ (ईशानकोण में रहकर) लङ्का के पूर्व द्वार को घेरकर खड़ा हो गया॥ २३॥

सहायार्थे तु तस्यैव निविष्टः प्रघसो हरिः।
पनसश्च महाबाहुर्वानरैरभिसंवृतः॥२४॥

उसीकी सहायता के लिये अन्य वानरों के साथ महाबाहु पनस और प्रघस भी आकर डट गये॥ २४ ॥

दक्षिणद्वारमासाद्य वीरः शतबलिः कपिः।
आवृत्य बलवांस्तस्थौ विंशत्या कोटिभिर्वृतः॥२५॥

वीर शतबलिने (आग्नेयकोण में स्थित हो) दक्षिण द्वार पर आकर बीस करोड़ वानरों के साथ उसे घेर लिया और वहीं पड़ाव डाल दिया॥ २५ ॥

सुषेणः पश्चिमद्वारं गत्वा तारापिता बली।
आवृत्य बलवांस्तस्थौ कोटिकोटिभिरावृतः॥२६॥

तारा के बलवान् पिता सुषेण (नैर्ऋत्यकोण में स्थित हो) कोटि-कोटि वानरों के साथ पश्चिम द्वार पर आक्रमण करके उसे घेरकर खड़े हो गये॥२६॥

उत्तरद्वारमागम्य रामः सौमित्रिणा सह।
आवृत्य बलवांस्तस्थौ सुग्रीवश्च हरीश्वरः॥२७॥

सुमित्राकुमार लक्ष्मणसहित महाबलवान् श्रीराम तथा सुग्रीव उत्तर द्वार को घेरकर खड़े हुए (सुग्रीव पूर्ववर्णन के अनुसार वायव्यकोण में स्थित हो उत्तर द्वारवर्ती श्रीराम की सहायता करते थे।)॥२७॥
१, २, ३, ४–यहाँ जो पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर शब्द आये हैं, वे क्रमशः ईशान, अग्नि, नैर्ऋत्य और वायव्यकोण का लक्ष्य कराने वाले हैं; क्योंकि पहले (४१ वें सर्ग में) पूर्व आदि दरवाजों पर नील आदि यूथपतियों के आक्रमण की बात कह दी गयी है वे कुमुद आदि वानर निकटवर्ती ईशान आदि कोणों में रहकर पूर्वादि द्वारों पर आक्रमण करके नील आदि की सहायता करते थे।

गोलाङ्गलो महाकायो गवाक्षो भीमदर्शना।
वृतः कोट्या महावीर्यस्तस्थौ रामस्य पार्श्वतः॥२८॥

लंगूर जाति के विशालकाय महापराक्रमी वानर गवाक्ष, जो देखने में बड़े भयंकर थे, एक करोड़ वानरों के साथ श्रीरामचन्द्रजी के एक बगल में खड़े हो गये॥ २८॥

ऋक्षाणां भीमकोपानां धूम्रः शत्रुनिबर्हणः।
वृतः कोट्या महावीर्यस्तस्थौ रामस्य पार्श्वतः॥२९॥

इसी तरह महाबली शत्रुसूदन ऋक्षराज धूम्र एक करोड़ भयानक क्रोधी रीछों को साथ लेकर श्रीरामचन्द्रजी के दूसरी ओर खड़े हुए॥२९॥

संनद्धस्तु महावीर्यो गदापाणिर्विभीषणः।
वृतो यत्तैस्तु सचिवैस्तस्थौ यत्र महाबलः॥३०॥

कवच आदि से सुसज्जित महान् पराक्रमी विभीषण हाथ में गदा लिये अपने सावधान मन्त्रियों के साथ वहीं आकर डट गये, जहाँ महाबली श्रीराम विद्यमान थे।

गजो गवाक्षो गवयः शरभो गन्धमादनः।
समन्तात् परिधावन्तो ररक्षुहरिवाहिनीम्॥३१॥

गज, गवाक्ष, गवय, शरभ और गन्धमादन–सब ओर घूम-घूमकर वानर-सेना की रक्षा करने लगे। ३१॥

ततः कोपपरीतात्मा रावणो राक्षसेश्वरः।
निर्याणं सर्वसैन्यानां द्रुतमाज्ञापयत् तदा ॥३२॥

इसी समय अत्यन्त क्रोध से भरे हुए राक्षसराज रावण ने अपनी सारी सेना को तुरंत ही बाहर निकलने की आज्ञा दी॥ ३२॥

एतच्छ्रुत्वा तदा वाक्यं रावणस्य मुखेरितम्।
सहसा भीमनिर्घोषमुक्षुष्टं रजनीचरैः॥३३॥

रावण के मुख से बाहर निकलने का आदेश सुनते ही राक्षसों ने सहसा बड़ी भयानक गर्जना की॥ ३३॥

ततः प्रबोधिता भेर्यश्चन्द्रपाण्डुरपुष्कराः।
हेमकोणैरभिहता राक्षसानां समन्ततः॥३४॥

फिर तो राक्षसों के यहाँ जिनके मुखभाग चन्द्रमा के समान उज्ज्वल थे और जो सोने के डंडे से बजाये या पीटे जाते थे, वे बहुत-से धौंसे एक साथ बज उठे॥

विनेदुश्च महाघोषाः शङ्खाः शतसहस्रशः।
राक्षसानां सुघोराणां मुखमारुतपूरिताः॥ ३५॥

साथ ही भयानक राक्षसों के मुख की वायु से पूरित हो लाखों गम्भीर घोषवाले शङ्ख बजने लगे॥ ३५॥

ते बभुः शुभनीलाङ्गाः सशङ्खा रजनीचराः।
विद्युन्मण्डलसंनद्धाः सबलाका इवाम्बुदाः॥३६॥

आभूषणों की प्रभा से सुशोभित काले शरीर वाले वे निशाचर शङ्ख बजाते समय विद्युत्प्रभा से उद्भासिततथा वकपंक्तियों से युक्त नील मेघों के समान जान पड़ते थे॥

निष्पतन्ति ततः सैन्या हृष्टा रावणचोदिताः।
समये पूर्यमाणस्य वेगा इव महोदधेः॥३७॥

तदनन्तर रावण की प्रेरणा से उसके सैनिक बड़े हर्ष के साथ युद्ध के लिये निकलने लगे, मानो प्रलयकाल में महान् मेघों के जल से भरे जाते हुए समुद्र के वेग आगे बढ़ रहे हों॥३७॥

ततो वानरसैन्येन मुक्तो नादः समन्ततः।
मलयः परितो येन ससानप्रस्थकन्दरः॥३८॥

तत्पश्चात् वानर सैनिकों ने सब ओर बड़े जोर से  सिंहनाद किया, जिससे छोटे-बड़े शिखरों और कन्दराओंसहित मलयपर्वत गूंज उठा॥ ३८॥

शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषः सिंहनादस्तरस्विनाम्।
पृथिवीं चान्तरिक्षं च सागरं चाभ्यनादयत्॥३९॥
गजानां बृंहितैः सार्धं हयानां हृषितैरपि।
रथानां नेमिनिर्घोषै रक्षसां वदनस्वनैः॥४०॥

इस प्रकार हाथियों के चिग्घाड़ने, घोड़ों के हिनहिनाने, रथों के पहियों की घर्घराहट एवं राक्षसों के मुख से प्रकट हुई आवाज के साथ ही शङ्ख और दुन्दुभियों के शब्द तथा वेगवान् वानरों के निनाद से पृथ्वी, आकाश और समुद्र निनादित हो उठे॥ ३९-४०॥

एतस्मिन्नन्तरे घोरः संग्रामः समपद्यत।
रक्षसां वानराणां च यथा देवासुरे पुरा॥४१॥

इतने ही में पूर्वकाल में घटित हुए देवासुर-संग्राम की भाँति राक्षसों और वानरों में घोर युद्ध होने लगा। ४१॥

ते गदाभिः प्रदीप्ताभिः शक्तिशूलपरश्वधैः।
निजघ्नुर्वानरान् सर्वान् कथयन्तः स्वविक्रमान्॥४२॥

वे राक्षस दमकती हुई गदाओं तथा शक्ति, शूल और फरसों से समस्त वानरों को मारने एवं अपने पराक्रम की घोषणा करने लगे॥ ४२॥

तथा वृक्षैर्महाकायाः पर्वताग्रैश्च वानराः।
निजघ्नुस्तानि रक्षांसि नखैर्दन्तैश्च वेगिनः॥४३॥

उसी प्रकार वेगशाली विशालकाय वानर भी राक्षसों पर बड़े-बड़े वृक्षों, पर्वत-शिखरों, नखों और दाँतों से चोट करने लगे॥४३॥

राजा जयति सुग्रीव इति शब्दो महानभूत्।४४॥

वानरसेना में ‘वानरराज सुग्रीव की जय हो’ यह महान् शब्द होने लगा। उधर राक्षसलोग भी ‘महाराज रावण की जय हो’ ऐसा कहकर अपने-अपने नाम का उल्लेख करने लगे॥४४॥

राक्षसास्त्वपरे भीमाः प्राकारस्था महीं गतान्।
वानरान् भिन्दिपालैश्च शूलैश्चैव व्यदारयन्॥४५॥

दूसरे बहुत-से भयानक राक्षस जो परकोटे पर चढ़े हुए थे, पृथ्वी पर खड़े हुए वानरों को भिन्दिपालों और शूलों से विदीर्ण करने लगे॥ ४५ ॥

वानराश्चापि संक्रुद्धाः प्राकारस्थान् महीं गताः।
राक्षसान् पातयामासुः खमाप्लुत्य स्वबाहुभिः॥४६॥

तब पृथ्वी पर खड़े हुए वानर भी अत्यन्त कुपित हो उठे और आकाश में उछलकर परकोटे पर बैठे हुए राक्षसों को अपनी बाँहों से पकड़-पकड़कर गिराने लगे॥

स सम्प्रहारस्तुमुलो मांसशोणितकर्दमः।
रक्षसां वानराणां च सम्बभूवाद्भुतोपमः॥४७॥

इस प्रकार राक्षसों और वानरों में बड़ा ही अद्भुत घमासान युद्ध हुआ, जिससे वहाँ रक्त और मांस की कीच जम गयी॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे द्विचत्वारिंशः सर्गः॥४२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में बयालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।४२॥


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Shivangi

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