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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 50 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 50

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
पञ्चाशः सर्गः (50) 

विभीषण को इन्द्रजित् समझकर वानरों का पलायन, विभीषण का विलाप, गरुड़ का आना और श्रीराम लक्ष्मण को नागपाश से मुक्त करके चला जाना

 

अथोवाच महातेजा हरिराजो महाबलः।
किमियं व्यथिता सेना मूढवातेव नौर्जले॥१॥

उस समय महातेजस्वी महाबली वानरराज सुग्रीव ने पूछा—’वानरो! जैसे जल में बवंडरकी मारी हुई नौका डगमगाने लगती है, उसी प्रकार जो यह हमारी सेना सहसा व्यथित हो उठी है, इसका क्या कारण है?’ ॥१॥

सुग्रीवस्य वचः श्रुत्वा वालिपुत्रोऽङ्गदोऽब्रवीत्।
न त्वं पश्यसि रामं च लक्ष्मणं च महारथम्॥२॥

सुग्रीव की यह बात सुनकर वालिपुत्र अङ्गद ने कहा ‘क्या आप श्रीराम और महारथी लक्ष्मण की दशा नहीं देख रहे हैं? ॥२॥

शरजालाचितौ वीरावुभौ दशरथात्मजौ।
शरतल्पे महात्मानौ शयानौ रुधिरोक्षितौ॥३॥

‘ये दोनों वीर महात्मा दशरथकुमार रक्त से भीगे हुए बाण-शय्या पर पड़े हैं और बाणों के समूह से व्याप्त हो रहे हैं ॥३॥

अथाब्रवीद वानरेन्द्रः सुग्रीवः पुत्रमङ्गदम्।
नानिमित्तमिदं मन्ये भवितव्यं भयेन तु॥४॥

तब वानरराज सुग्रीव ने पुत्र अङ्गद से कहा—’बेटा! मैं ऐसा नहीं मानता कि सेना में अकारण ही भगदड़ मच गयी है। किसी-न-किसी भय के कारण ऐसा होना चाहिये॥ ४॥

विषण्णवदना ह्येते त्यक्तप्रहरणा दिशः।
पलायन्तेऽत्र हरयस्त्रासादुत्फुल्ललोचनाः॥५॥

‘ये वानर उदास मुँह से अपने-अपने हथियार फेंककर सम्पूर्ण दिशाओं में भाग रहे हैं और भय के कारण आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे हैं ॥ ५॥

अन्योन्यस्य न लज्जन्ते न निरीक्षन्ति पृष्ठतः।
विप्रकर्षन्ति चान्योन्यं पतितं लङ्घयन्ति च॥६॥

‘पलायन करते समय उन्हें एक दूसरे से लज्जा नहीं होती है। वे पीछे की ओर नहीं देखते हैं। एक-दूसरे को घसीटते हैं और जो गिर जाता है, उसे लाँघकर चल देते हैं (भय के मारे उठाते तक नहीं हैं)’॥६॥

एतस्मिन्नन्तरे वीरो गदापाणिर्विभीषणः।
सुग्रीवं वर्धयामास राघवं च जयाशिषा॥७॥

इसी बीच में वीर विभीषण हाथ में गदा लिये वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने विजयसूचक आशीर्वाद देकर सुग्रीव तथा श्रीरघुनाथजी की अभ्युदय-कामना की। ७॥

विभीषणं च सुग्रीवो दृष्ट्वा वानरभीषणम्।
ऋक्षराजं महात्मानं समीपस्थमुवाच ह॥८॥

वानरों को भयभीत करने वाले विभीषण को देखकर सुग्रीव ने अपने पास ही खड़े हुए महात्मा ऋक्षराज जाम्बवान् से कहा- ॥ ८॥

विभीषणोऽयं सम्प्राप्तो यं दृष्ट्वा वानरर्षभाः।
द्रवन्त्यायतसंत्रासा रावणात्मजशङ्कया॥९॥

‘ये विभीषण आये हैं, जिन्हें देखकर वानरशिरोमणियों को यह संदेह हुआ है कि रावण का बेटा इन्द्रजित् आ गया। इसीलिये इनका भय बहुत बढ़ गया है और वे भागे जा रहे हैं॥९॥

शीघ्रमेतान् सुसंत्रस्तान् बहुधा विप्रधावितान्।
पर्यवस्थापयाख्याहि विभीषणमुपस्थितम्॥१०॥

‘तुम शीघ्र जाकर यह बताओ कि इन्द्रजित् नहीं, विभीषण आये हैं। ऐसा कहकर बहुधा भयभीत हो पलायन करते हुए इन सब वानरों को सुस्थिर करो भागने से रोको’ ॥ १०॥

सुग्रीवेणैवमुक्तस्तु जाम्बवानृक्षपार्थिवः।
वानरान् सान्त्वयामास संनिवर्त्य प्रधावतः॥११॥

सुग्रीव के ऐसा कहने पर ऋक्षराज जाम्बवान् ने भागते हुए वानरों को लौटाकर उन्हें सान्त्वना दी। ११॥

ते निवृत्ताः पुनः सर्वे वानरास्त्यक्तसाध्वसाः।
ऋक्षराजवचः श्रुत्वा तं च दृष्ट्वा विभीषणम्॥१२॥

ऋक्षराज की बात सुनकर और विभीषण को अपनी आँखों देखकर वानरों ने भय को त्याग दिया तथा वे सब-के-सब फिर लौट आये॥ १२ ॥

विभीषणस्तु रामस्य दृष्ट्वा गात्रं शरैश्चितम्।
लक्ष्मणस्य तु धर्मात्मा बभूव व्यथितस्तदा॥१३॥

श्रीराम और लक्ष्मण के शरीर को बाणों से व्याप्त हुआ देख धर्मात्मा विभीषण को उस समय बड़ी व्यथा हुई॥ १३॥

जलक्लिन्नेन हस्तेन तयोर्नेत्रे विमृज्य च।
शोकसम्पीडितमना रुरोद विललाप च॥१४॥

उन्होंने जल से भीगे हुए उन दोनों भाइयों के नेत्र पोंछे और मन-ही-मन शोक से पीड़ित हो वे रोने और विलाप करने लगे- ॥१४॥

इमौ तौ सत्त्वसम्पन्नौ विक्रान्तौ प्रियसंयुगौ।
इमामवस्थां गमितौ राक्षसैः कूटयोधिभिः॥१५॥

“हाय ! जिन्हें युद्ध अधिक प्रिय था और जो बलविक्रम से सम्पन्न थे, वे ही ये दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण माया से युद्ध करने वाले राक्षसों द्वारा इस अवस्था को पहुँचा दिये गये॥ १५ ॥

भ्रातृपुत्रेण चैतेन दुष्पुत्रेण दुरात्मना।
राक्षस्या जिह्मया बुद्ध्या वञ्चितावृजुविक्रमौ॥१६॥

‘ये दोनों वीर सरलतापूर्वक पराक्रम प्रकट कर रहे थे। परंतु भाई के इस दुरात्मा कुपुत्र ने अपनी कुटिलराक्षसी बुद्धि के द्वारा इन दोनों के साथ धोखा किया॥ १६॥

शरैरिमावलं विद्धौ रुधिरेण समुक्षितौ।
वसुधायामिमौ सुप्तौ दृश्येते शल्यकाविव॥१७॥

‘इन दोनों के शरीर बाणों द्वारा पूर्णतः छिद गये हैं। ये दोनों भाई खून से नहा उठे हैं और इस अवस्था में पृथ्वी पर सोये हुए ये दोनों राजकुमार काँटों से भरे हुए साही नामक जन्तु के समान दिखायी देते हैं॥ १७॥

ययोर्वीर्यमुपाश्रित्य प्रतिष्ठा काङ्क्षिता मया।
ताविमौ देहनाशाय प्रसुप्तौ पुरुषर्षभौ॥१८॥

‘जिनके बल-पराक्रम का आश्रय लेकर मैंने लङ्का के राज्य पर प्रतिष्ठित होने की अभिलाषा की थी; वे ही दोनों भाई पुरुषशिरोमणि श्रीराम और लक्ष्मण देह-त्याग के लिये सोये हुए हैं॥ १८॥

जीवन्नद्य विपन्नोऽस्मि नष्टराज्यमनोरथः।
प्राप्तप्रतिज्ञश्च रिपुः सकामो रावणः कृतः॥१९॥

‘आज मैं जीते-जी मर गया। मेरा राज्यविषयक मनोरथ नष्ट हो गया। शत्रु रावण ने जो सीता को न लौटाने की प्रतिज्ञा की थी, उसकी वह प्रतिज्ञा पूरी हुई। उसके पुत्र ने उसे सफल मनोरथ बना दिया। १९॥

एवं विलपमानं तं परिष्वज्य विभीषणम्।
सुग्रीवः सत्त्वसम्पन्नो हरिराजोऽब्रवीदिदम्॥२०॥

इस प्रकार विलाप करते हुए विभीषण को हृदय से लगाकर शक्तिशाली वानरराज सुग्रीव ने उनसे यों कहा – ॥२०॥

राज्यं प्राप्स्यसि धर्मज्ञ लङ्कायां नेह संशयः।
रावणः सह पुत्रेण स्वकामं नेह लप्स्यते॥२१॥

‘धर्मज्ञ! तुम्हें लङ्का का राज्य प्राप्त होगा, इसमें संशय नहीं है। पुत्रसहित रावण यहाँ अपनी कामना पूरी नहीं कर सकेगा॥ २१॥

गरुडाधिष्ठितावेतावुभौ राघवलक्ष्मणौ।
त्यक्त्वा मोहं वधिष्येते सगणं रावणं रणे॥२२॥

‘ये दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण मूर्छा त्यागने के पश्चात् गरुड़ की पीठ पर बैठकर रणभूमि में राक्षसगणोंसहित रावण का वध करेंगे’॥ २२ ॥

तमेवं सान्त्वयित्वा तु समाश्वास्य तु राक्षसम्।
सुषेणं श्वशुरं पार्वे सुग्रीवस्तमुवाच ह॥२३॥

राक्षस विभीषण को इस प्रकार सान्त्वना और आश्वासन देकर सुग्रीव ने अपने बगल में खड़े हुए श्वसुर सुषेण से कहा- ॥ २३॥

सह शूरैर्हरिगणैर्लब्धसंज्ञावरिंदमौ।
गच्छ त्वं भ्रातरौ गृह्य किष्किन्धां रामलक्ष्मणौ॥२४॥

‘आप होश में आ जाने पर इन दोनों शत्रुदमन श्रीराम और लक्ष्मण को साथ ले शूरवीर वानरगणों के साथ किष्किन्धा को चले जाइये॥ २४॥

अहं तु रावणं हत्वा सपुत्रं सहबान्धवम्।
मैथिलीमानयिष्यामि शक्रो नष्टामिव श्रियम्॥२५॥

‘मैं रावण को पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित मारकर उसके हाथ से मिथिलेशकुमारी सीता को उसी प्रकार छीन लाऊँगा, जैसे देवराज इन्द्र अपनी खोयी हुई राजलक्ष्मी को दैत्यों के यहाँ से हर लाये थे’ ॥ २५ ॥

श्रुत्वैतद् वानरेन्द्रस्य सुषेणो वाक्यमब्रवीत्।
देवासुरं महायुद्धमनुभूतं पुरातनम्॥२६॥

वानरराज सुग्रीव की यह बात सुनकर सुषेण ने कहा —’पूर्वकाल में जो देवासुर-महायुद्ध हुआ था, उसे हमने देखा था॥२६॥

तदा स्म दानवा देवान् शरसंस्पर्शकोविदान्।
निजघ्नुः शस्त्रविदुषश्छादयन्तो मुहुर्मुहुः ॥ २७॥

‘उस समय अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता तथा लक्ष्यवेध में कुशल देवताओं को बारम्बार बाणों से आच्छादित करते हुए दानवों ने बहुत घायल कर दिया था॥ २७॥

तानार्तान् नष्टसंज्ञांश्च गतासुंश्च बृहस्पतिः।
विद्याभिर्मन्त्रयुक्ताभिरोषधीभिश्चिकित्सति॥२८॥

‘उस युद्ध में जो देवता अस्त्र-शस्त्रों से पीड़ित, अचेत और प्राणशून्य हो जाते थे, उन सबकी रक्षा के लिये बृहस्पतिजी मन्त्रयुक्त विद्याओं तथा दिव्य ओषधियों द्वारा उनकी चिकित्सा करते थे॥ २८॥

तान्यौषधान्यानयितुं क्षीरोदं यान्तु सागरम्।
जवेन वानराः शीघ्रं सम्पातिपनसादयः॥२९॥

‘मेरी राय है कि उन ओषधियों को ले आने के लिये सम्पाति और पनस आदि वानर शीघ्र ही वेगपूर्वक क्षीरसागर के तट पर जायें ॥ २९॥

हरयस्तु विजानन्ति पार्वती ते महौषधी।
संजीवकरणी दिव्यां विशल्यां देवनिर्मिताम्॥३०॥

‘सम्पाति आदि वानर वहाँ पर्वत पर प्रतिष्ठित हुई दो प्रसिद्ध महौषधियों को जानते हैं। उनमें से एक का नाम है संजीवकरणी और दूसरी का नाम है विशल्यकरणी। इन दोनों दिव्य ओषधियों का निर्माण साक्षात् ब्रह्माजी ने किया है।

चन्द्रश्च नाम द्रोणश्च क्षीरोदे सागरोत्तमे।
अमृतं यत्र मथितं तत्र ते परमौषधी॥३१॥
तौ तत्र विहितौ देवैः पर्वतौ तौ महोदधौ।
अयं वायुसुतो राजन् हनूमांस्तत्र गच्छतु ॥३२॥

‘सागरों में उत्तम क्षीरसमुद्र के तट पर चन्द्र और द्रोण नामक दो पर्वत हैं, जहाँ पूर्वकाल में अमृत का मन्थन किया गया था। उन्हीं दोनों पर्वतों पर वे श्रेष्ठ ओषधियाँ वर्तमान हैं। महासागर में देवताओं ने ही उन दोनों पर्वतों को प्रतिष्ठित किया था। राजन् ! ये वायुपुत्र हनुमान् उन दिव्य ओषधियों को लाने के लिये वहाँ जायँ’ ॥ ३१-३२॥

एतस्मिन्नन्तरे वायुर्मेघाश्चापि सविद्युतः।
पर्यस्य सागरे तोयं कम्पयन्निव पर्वतान्॥३३॥

ओषधियों को लाने की वार्ता वहाँ चल ही रही थी कि बड़े जोर से वायु प्रकट हुई, मेघों की घटा घिर आयी और बिजलियाँ चमकने लगीं। वह वायु सागर के जल में हलचल मचाकर पर्वतों को कम्पितसी करने लगी॥ ३३॥

महता पक्षवातेन सर्वद्वीपमहाद्रुमाः।
निपेतुर्भग्नविटपाः सलिले लवणाम्भसि॥३४॥

गरुड़ के पंख से उठी हुई प्रचण्ड वायु ने सम्पूर्ण द्वीप के बड़े-बड़े वृक्षों की डालियाँ तोड़ डालीं और उन्हें लवणसमुद्र के जल में गिरा दिया॥ ३४ ॥

अभवन् पन्नगास्त्रस्ता भोगिनस्तत्रवासिनः।
शीघ्रं सर्वाणि यादांसि जग्मुश्च लवणार्णवम्॥३५॥

लङ्कावासी महाकाय सर्प भय से थर्रा उठे। सम्पूर्ण जल-जन्तु शीघ्रतापूर्वक समुद्र के जल में घुस गये॥ ३५॥

ततो मुहूर्ताद् गरुडं वैनतेयं महाबलम्।
वानरा ददृशुः सर्वे ज्वलन्तमिव पावकम्॥३६॥

तदनन्तर दो ही घड़ी में समस्त वानरों ने प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी महाबली विनतानन्दन गरुड़ को वहाँ उपस्थित देखा॥ ३६॥

तमागतमभिप्रेक्ष्य नागास्ते विप्रदुद्रुवुः ।
यैस्तु तौ पुरुषौ बद्धौ शरभूतैर्महाबलैः॥ ३७॥

उन्हें आया देख जिन महाबली नागों ने बाण के रूप में आकर उन दोनों महापुरुषों को बाँध रखा था, वे सब-के-सब वहाँ से भाग खड़े हुए॥ ३७॥

ततः सुपर्णः काकुत्स्थौ स्पृष्ट्वा प्रत्यभिनन्द्य च।
विममर्श च पाणिभ्यां मुखे चन्द्रसमप्रभे॥३८॥

तत्पश्चात् गरुड़ ने उन दोनों रघुवंशी बन्धुओं को स्पर्श करके अभिनन्दन किया और अपने हाथों से उनके चन्द्रमा के समान कान्तिमान् मुखों को पोंछा॥३८॥

वैनतेयेन संस्पृष्टास्तयोः संरुरुहुव्रणाः।
सुवर्णे च तनू स्निग्धे तयोराशु बभूवतुः ॥ ३९॥

गरुड़जी का स्पर्श प्राप्त होते ही श्रीराम और लक्ष्मण के सारे घाव भर गये और उनके शरीर तत्काल ही सुन्दर कान्ति से युक्त एवं स्निग्ध हो गये।३९॥

तेजो वीर्यं बलं चौज उत्साहश्च महागुणाः।
प्रदर्शनं च बुद्धिश्च स्मृतिश्च द्विगुणा तयोः॥४०॥

उनमें तेज, वीर्य, बल, ओज, उत्साह, दृष्टिशक्ति, बुद्धि और स्मरणशक्ति आदि महान् गुण पहले से भी दुगुने हो गये॥ ४०॥

तावुत्थाप्य महातेजा गरुडो वासवोपमौ।
उभौ च सस्वजे हृष्टो रामश्चैनमुवाच ह॥४१॥

फिर महातेजस्वी गरुड़ ने उन दोनों भाइयों को, जो साक्षात् इन्द्र के समान थे, उठाकर हृदय से लगा लिया। तब श्रीरामजी ने प्रसन्न होकर उनसे कहा-॥ ४१॥

भवत्प्रसादाद् व्यसनं रावणिप्रभवं महत्।
उपायेन व्यतिक्रान्तौ शीघ्रं च बलिनौ कृतौ॥४२॥

‘इन्द्रजित् के कारण हमलोगों पर जो महान् संकट आ गया था, उसे हम आपकी कृपा से लाँघ गये। आप विशिष्ट उपाय के ज्ञाता हैं; अतः आपने हम दोनों को शीघ्र ही पूर्ववत् बल से सम्पन्न कर दिया है। ४२॥

यथा तातं दशरथं यथाजं च पितामहम्।
तथा भवन्तमासाद्य हृदयं मे प्रसीदति॥४३॥

जैसे पिता दशरथ और पितामह अज के पास जाने से मेरा मन प्रसन्न हो सकता था, वैसे ही आपको पाकर मेरा हृदय हर्ष से खिल उठा है॥४३॥

को भवान् रूपसम्पन्नो दिव्यस्रगनुलेपनः।
वसानो विरजे वस्त्रे दिव्याभरणभूषितः॥४४॥

‘आप बड़े रूपवान् हैं, दिव्य पुष्पों की माला और दिव्य अङ्गराग से विभूषित हैं। आपने दो स्वच्छ वस्त्र धारण कर रखे हैं तथा दिव्य आभूषण आपकी शोभा बढ़ाते हैं। हम जानना चाहते हैं कि आप कौन हैं?’ (सर्वज्ञ होते हुए भी भगवान् ने मानवभाव का आश्रय लेकर गरुड़ से ऐसा प्रश्न किया) ॥४४॥

तमुवाच महातेजा वैनतेयो महाबलः।
पतत्रिराजः प्रीतात्मा हर्षपर्याकलेक्षणम्॥४५॥

तब महातेजस्वी महाबली पक्षिराज विनतानन्दन गरुड़ ने मन-ही-मन प्रसन्न हो आनन्द के आँसुओं से भरे हुए नेत्रवाले श्रीराम से कहा- ॥ ४५ ॥

अहं सखा ते काकुत्स्थ प्रियः प्राणो बहिश्चरः।
गरुत्मानिह सम्प्राप्तो युवयोः साह्यकारणात्॥४६॥

‘काकुत्स्थ! मैं आपका प्रिय मित्र गरुड़ हूँ। बाहर विचरने वाला आपका प्राण हूँ। आप दोनों की सहायता के लिये ही मैं इस समय यहाँ आया हूँ॥ ४६॥

असुरा वा महावीर्या दानवा वा महाबलाः।
सुराश्चापि सगन्धर्वाः पुरस्कृत्य शतक्रतुम्॥४७॥
नेमं मोक्षयितुं शक्ताः शरबन्धं सुदारुणम्।

‘महापराक्रमी असुर, महाबली दानव, देवता तथा गन्धर्व भी यदि इन्द्र को आगे करके यहाँ आते तो वे भी इस भयंकर सर्पाकार बाण के बन्धन से आपको छुड़ाने में समर्थ नहीं हो सकते थे॥ ४७ १/२॥

मायाबलादिन्द्रजिता निर्मितं क्रूरकर्मणा॥४८॥
एते नागाः काद्रवेयास्तीक्ष्णदंष्ट्रा विषोल्बणाः।
रक्षोमायाप्रभावेण शरभूतास्त्वदाश्रयाः॥४९॥

‘क्ररकर्मा इन्द्रजित् ने माया के बल से जिन नागरूपी बाणों का  बन्धन तैयार किया था, वे नाग ये कद्रू के पुत्र ही थे। इनके दाँत बड़े तीखे होते हैं। इन नागों का विष बड़ा भयंकर होता है। ये राक्षस की माया के प्रभाव से बाण बनकर आपके शरीर में लिपट गये थे॥ ४८-४९॥

सभाग्यश्चासि धर्मज्ञ राम सत्यपराक्रम।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा समरे रिपुघातिना॥५०॥

‘धर्म के ज्ञाता सत्यपराक्रमी श्रीराम! समराङ्गण में शत्रुओं का संहार करने वाले अपने भाई लक्ष्मण के साथ ही आप बड़े सौभाग्यशाली हैं (जो अनायास ही इस नागपाश से मुक्त हो गये) ॥ ५० ॥

इमं श्रुत्वा तु वृत्तान्तं त्वरमाणोऽहमागतः।
सहसैवावयोः स्नेहात् सखित्वमनुपालयन्॥५१॥

‘मैं देवताओं के मुख से आपलोगों के नागपाश में बँधने का समाचार सुनकर बड़ी उतावली के साथ यहाँ आया हूँ। हम दोनों में जो स्नेह है, उससे प्रेरित हो मित्रधर्म का पालन करता हुआ सहसा आ पहुँचा हूँ।

मोक्षितौ च महाघोरादस्मात् सायकबन्धनात्।
अप्रमादश्च कर्तव्यो युवाभ्यां नित्यमेव हि॥५२॥

‘आकर मैंने इस महाभयंकर बाण-बन्धन से आप दोनों को छुड़ा दिया। अब आपको सदा ही सावधान रहना चाहिये। ५२॥

प्रकृत्या राक्षसाः सर्वे संग्रामे कूटयोधिनः।
शूराणां शुद्धभावानां भवतामार्जवं बलम्॥५३॥

‘समस्त राक्षस स्वभाव से ही संग्राम में कपटपूर्वक युद्ध करने वाले होते हैं, परंतु शुद्धभाव वाले आप-जैसे शूरवीरों का सरलता ही बल है॥ ५३॥

तन्न विश्वसनीयं वो राक्षसानां रणाजिरे।
एतेनैवोपमानेन नित्यं जिह्मा हि राक्षसाः॥५४॥

‘इसलिये इसी दृष्टान्त को सामने रखकर आपको रणक्षेत्र में राक्षसों का कभी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि राक्षस सदा ही कुटिल होते हैं। ५४॥

एवमुक्त्वा तदा रामं सुपर्णः स महाबलः।
परिष्वज्य च सुस्निग्धमाप्रष्टमुपचक्रमे॥५५॥

ऐसा कहकर महाबली गरुड़ ने उस समय परम स्नेही श्रीराम को हृदय से लगाकर उनसे जाने की आज्ञा लेने का विचार किया॥५५॥

सखे राघव धर्मज्ञ रिपूणामपि वत्सल।
अभ्यनुज्ञातुमिच्छामि गमिष्यामि यथासुखम्॥५६॥

वे बोले—’शत्रुओं पर भी दया दिखाने वाले धर्मज्ञ मित्र रघुनन्दन! अब मैं सुखपूर्वक यहाँ से प्रस्थान करूँगा। इसके लिये आपकी आज्ञा चाहता हूँ॥५६॥

न च कौतूहलं कार्यं सखित्वं प्रति राघव।।
कृतकर्मा रणे वीर सखित्वं प्रतिवेत्स्यसि॥५७॥

‘वीर रघुनन्दन! मैंने जो अपने को आपका सखा बताया है, इसके विषय में आपको अपने मन में कोई कौतूहल नहीं रखना चाहिये। आप युद्ध में सफलता प्राप्त कर लेने पर मेरे इस सख्यभाव को स्वयं समझ लेंगे॥ ५७॥

बालवृद्धावशेषां तु लङ्कां कृत्वा शरोर्मिभिः।
रावणं तु रिपुं हत्वा सीतां त्वमुपलप्स्यसे॥५८॥

‘आप समुद्र की लहरों के समान अपने बाणों की परम्परा से लङ्का की ऐसी दशा कर देंगे कि यहाँ केवल बालक और बूढ़े ही शेष रह जायेंगे। इस तरह अपने शत्रु रावण का संहार करके आप सीता को अवश्य प्राप्त कर लेंगे’॥ ५८॥

इत्येवमुक्त्वा वचनं सुपर्णः शीघ्रविक्रमः।
रामं च नीरुजं कृत्वा मध्ये तेषां वनौकसाम्॥५९॥
प्रदक्षिणं ततः कृत्वा परिष्वज्य च वीर्यवान्।
जगामाकाशमाविश्य सुपर्णः पवनो यथा॥६०॥

ऐसी बातें कहकर शीघ्रगामी एवं शक्तिशाली गरुड़ ने श्रीराम को नीरोग करके उन वानरों के बीच में उनकी परिक्रमा की और उन्हें हृदय से लगाकर वे वायु के समान गति से आकाश में चले गये॥ ५९-६० ॥

नीरुजौ राघवौ दृष्ट्वा ततो वानरयूथपाः।
सिंहनादं तदा नेदुर्लाङ्गलं दुधुवुश्च ते॥६१॥

श्रीराम और लक्ष्मण को नीरोग हुआ देख उस समय सारे वानर-यूथपति सिंहनाद करने और पूँछ हिलाने लगे॥ ६१॥

ततो भेरीः समाजजुर्मृदङ्गांश्चाप्यवादयन्।
दध्मुः शङ्खान् सम्प्रहृष्टाः श्वेलन्त्यपि यथापुरम्॥६२॥

फिर तो वानरों ने डंके पीटे, मृदंग बजाये, शङ्खनाद किये और हर्षोल्लास से भरकर पहले की भाँति वे गर्जने और ताल ठोंकने लगे॥६२॥

अपरे स्फोट्य विक्रान्ता वानरा नगयोधिनः।
द्रुमानुत्पाट्य विविधांस्तस्थुः शतसहस्रशः॥६३॥

दूसरे पराक्रमी वानर जो वृक्षों और पर्वतशिखरों को हाथ में लेकर युद्ध करते थे, नाना प्रकार के वृक्ष उखाड़कर लाखों की संख्या में युद्ध के लिये खड़े हो गये॥ ६३॥

विसृजन्तो महानादांस्त्रासयन्तो निशाचरान्।
लङ्कादाराण्युपाजग्मुर्योद्धुकामाः प्लवंगमाः॥६४॥

जोर-जोर से गर्जते और निशाचरों को डराते हुए सारे वानर युद्ध की इच्छा से लङ्का के दरवाजों पर आकर डट गये॥६४॥

तेषां सुभीमस्तुमुलो निनादो बभूव शाखामृगयूथपानाम्।
क्षये निदाघस्य यथा घनानां नादः सुभीमो नदतां निशीथे॥६५॥

उस समय उन वानरयूथपतियों का बड़ा भयंकर एवं तुमुल सिंहनाद सब ओर गूंजने लगा, मानो ग्रीष्म ऋतु के अन्त में आधी रात के समय गर्जते हुए मेघों की गम्भीर गर्जना सब ओर व्याप्त हो रही हो। ६५॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे पञ्चाशः सर्गः॥५०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में पचासवाँ सर्ग पूरा हुआ।५०॥


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Shivangi

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